राजनीति और राजधर्म

किसी राजनीतिक दल को स्थापित करने के लिए जिन लोकतांत्रिक तकाजों की आवश्यकता होती है वे काफी श्रम और धैर्य की मांग करते हैं. तो ऐसे में अपने चाचा बाल ठाकरे के पहले से ही परिचित रास्तों पर उनसे प्रतियोगिता करना राज ठाकरे को ज्यादा सुगम लग सकता है 

महाराष्ट्र विधानसभा में 9 नवंबर को जो हुआ वह सही था या गलत, इसका फैसला करने के लिए क्या संसदीय आचार-विचार की संहिता, भारतीय लोकतंत्र के विभिन्न स्तरों पर केंद्रीय राजभाषा हिंदी या मराठी जसी राज्य स्तर की राजभाषाओं की संवैधानिक स्थिति और राज्यों के गठन में भाषा की भूमिका का इतिहास खंगालने की कोई आवश्यकता नजर आ सकती है? गांव का कोई नितांत अपढ़ व्यक्ति भी अपनी सहज बुद्धि पर जरा भी जोर डाले बिना उस दिन लोकतंत्र के सबसे बड़े से छोटे मंदिर में जो हुआ उसको सही तौर पर गलत ठहरा सकता है.

इतिहास पर नजर डालें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि स्थानीय भाषाओं की 50-60 के दशक में राज्यों के पुनर्गठन में सबसे बड़ी भूमिका रही. इसी आधार पर मद्रास प्रेसीडेंसी को विभाजित कर आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु बने; मद्रास, बॉम्बे और हैदराबाद सूबों के कन्नड़भाषी इलाकों को मैसूर प्रांत में मिलाने से कर्नाटक और खुद महाराष्ट्र भी बॉम्बे प्रांत के बचे-खुचे हिस्सों से गुजरात को अलग करने से अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ. आजादी से पहले सन् 1921 और 1925 में कांग्रेस ने भी अपने संविधान में स्थानीय भाषा के महत्व को अभिव्यक्ति देने वाले दो संशोधन किए थे. पहले के मुताबिक कांग्रेस को अंग्रेजों द्वारा उनकी सुविधानुसार गठित राज्यों की तर्ज पर चलते रहने की बजाय अपने सांगठनिक ढांचे को भाषायी आधार पर पुनर्गठित करना था और दूसरे के मुताबिक उसके राष्ट्रीय स्तर पर कामकाज की आधिकारिक भाषा हिंदोस्तानी और प्रांतीय कांग्रेस समितियों की भाषा स्थानीय या हिंदोस्तानी रखना तय किया गया था. गांधीजी ने भी अपनी मृत्यु से 4-5 दिन पहले दिए अपने भाषण में विभिन्न प्रांतों को भाषा के आधार पर पुनर्गठित करना यह कहकर जरूरी बताया था कि ऐसा होने पर ही शिक्षा का तीव्रता से विस्तार और राज्यों-लोगों का तीव्र गति से विकास संभव है. यानी कि राज्यों में स्थानीय भाषा के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के आग्रह को उक्त तथ्यों की रोशनी जायज ठहरा देती है. मगर 9 तारीख सरीखे दुराग्रहों को नहीं.

वैसे भी संविधान का अनुच्छेद 210 इस बात की इजाजत देता है कि राज्य विधायिका के कार्यों का संपादन या तो राज्य की आधिकारिक भाषा या हिंदी या अंग्रेजी में से किसी भी भाषा में किया जा सकता है. पर यह बहस भाषा या संस्कृति से जुड़ी है ही नहीं. किसी राजनीतिक दल को स्थापित करने के लिए जिन लोकतांत्रिक तकाजों की आवश्यकता होती है वे काफी श्रम और धैर्य की मांग करते हैं. तो ऐसे में अपने चाचा बाल ठाकरे के पहले से ही परिचित रास्तों पर उनसे प्रतियोगिता करना राज ठाकरे को ज्यादा सुगम लग सकता है. इसी का नतीजा विधानसभा और सड़क पर मनसे और शिवसेना की तमाम उलटीपुलटी कारगुजारियों में दिखाई देता है.

चूंकि महाराष्ट्र और देश में कांग्रेसी सरकारें बन चुकी हैं और इसलिए मनसे की जरूरतें फिलवक्त कुछ कम हो चुकी हैं और हिंदीभाषी इलाकों में चुनाव भी सर पर हैं इसलिए हम और आप फिलहाल उम्मीद के कुछ हवाई पुल बांध सकते हैं. हो सकता है इस बार मनसे की कारगुजारियों पर महाराष्ट्र सरकार के राजनीतिधर्म की बजाय उसका राजधर्म जाग जाए.

संजय दुबे