अंग्रेजी का रेडियो टीचर

जैसे ही आप पटना से 35 किलोमीटर दूर स्थित शंभूपुरा गांव के प्राइमरी स्कूल के एकमात्र कमरे में प्रवेश करते हैं सात साल की सुषमा चहकते हुए कहती है, “गुड मॉर्निंग सर!" दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली इस बच्ची की दुबली काया, बिखरे बाल और फटे कपड़ों से उसकी गरीबी का अंदाजा लग जाता है. मगर इस बात का अंदाजा कतई नहीं लगता कि अनुसूचित जाति की इस बच्ची को अंग्रेजी के अनेकों मुहावरे और लोकोक्तियां याद होंगे. 

सुषमा अकेली नहीं है. इस स्कूल की पांचों कक्षाओं के सभी 109 बच्चों को अब अंग्रेजी के सबक पहले की तरह दुरूह नहीं लगते. बल्कि उन्हें अंग्रेजी सीखना एक खेल जैसा लगता है. ये सभी बच्चे अंग्रेजी के बुनियाद ज्ञान में पारंगत हो गए हैं.  

ये कमाल है एक रेडियो कार्यक्रम का जो धीरे-धीरे बिहार में एक क्रांति का सूत्रपात कर रहा है. आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले इस कार्यक्रम का नाम है इंग्लिश इज फन. पिछले साल नवंबर से प्रसारित हो रहा आधे घंटे का ये कार्यक्रम बिहार के प्राथमिक विद्यालयों के करीब 60 लाख बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय हो चुका है. ये हफ्ते में तीन बार दोपहर के भोजन के बाद प्रसारित होता है. 

कार्यक्रम से न सिर्फ बच्चों में अंग्रेजी का हौवा तो खत्म हो रहा है बल्कि उनकी उपस्थिति भी बढ़ने लगी है. जैसा कि शंभूपुरा प्राइमरी स्कूल की प्रधानाध्यापिका मंजू कुमारी कहती हैं, पहले गांवों में स्थित स्कूलों में ज्यादातर बच्चे दोपहर के भोजन के बाद घर चले जाते थे. अब लगभग सभी इंग्लिश इज फन के लिए रुके रहते हैं. बल्कि कहा जाए तो उन्हें वास्तव में इसका इंतजार रहता है.” 

गीतों और सरल पाठों के माध्यम से अंग्रेजी सिखाने वाले इस कार्यक्रम को ग्रामीण परिवेश को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है. इसमें पांच मुख्य पात्र हैंसियान नाम के हंसमुख बूढ़े काका, बच्चों से लगाव रखने और उनके लिए शिक्षा का सपना देखने वाली तुलसी, आठ साल की शरारती और हंसमुख चंदा, एक जिज्ञासु बच्चा राजू और हिंदी बोलने वाला चंदा का प्यारा तोता मिट्ठू जो बाकी चारों चरित्रों की बातचीत सुनकर अंग्रेजी सीखने लगता है. 

एक भूमिहीन दिहाड़ी मजदूर की बेटी और पहली कक्षा की छात्र रितु कुमारी कहती है, हमें इसमें बहुत मजा आता है. इसमें बहुत ही मनोरंजक आवाजें और गाने हैं.12 साल का राकेश, जिसके पिता महाराष्ट्र के नासिक में मजदूर का काम करते हैं, बताता है कि वो सिर्फ इस रेडियो कार्यक्रम की वजह से फिर से स्कूल जाने लगा है. राकेश कहता है, मुझे यकीन है कि मैं एक-दो साल में ही अच्छी तरह से अंग्रेजी लिखने और बोलने लगूंगा. बाद में मुझे अच्छी नौकरी मिल जाएगी.” 

बिहार शिक्षा परियोजना के निदेशक राजेश भूषण कहते हैं, अंग्रेजी में बिहार के पिछड़ेपन के मद्देनजर सरकार ने फैसला किया कि बच्चों को प्राथमिक स्तर पर ही अंग्रेजी में दक्ष करने के लिए एक नीति बनाई जाए. बुनियादी उद्देश्य ये था कि अंग्रेजी सीखना एक मनोरंजक अनुभव हो और हमें खुशी है कि ये पूरा होता दिख रहा है.” 

करीब चार करोड़ रुपये की लागत वाली इस परियोजना में बैंगलोर स्थित गैरसरकारी संगठन एजुकेशन डेवलपमेंट सेंटर और यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएड) का भी सहयोग रहा है. इसके तहत बिहार में 70,000 स्कूलों में एक रेडियो सेट उपलब्ध करवाया गया है. भूषण बताते हैं, हम आकाशवाणी को प्रसारण शुल्क भी अदा कर रहे हैं.” 

इस कार्यक्रम के लिए प्रशिक्षण लेने वाले शिक्षकों में काफी उत्साह है. यूनिसेफ की बिहार इकाई के सहयोग से बिहार शिक्षा परियोजना ने शिक्षकों के मार्गदर्शन के लिए एक पुस्तिका भी प्रकाशित की है. इसकी सहायता से शिक्षक प्रसारित होने वाले कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए बच्चों को पढ़ा सकते हैं. पटना के एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षक ओमप्रकाश कहते हैं, ये पुस्तिका और कार्यक्रम हमें ये समझने में मदद करते हैं कि अंग्रेजी किस तरह पढ़ाई जाए.” 

अक्टूबर 2007 में जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि बिहार की साक्षरता दर महज 47 फीसदी है. इंग्लिश इज फन की वजह से स्कूलों में बढ़ती उपस्थिति इस दिशा में एक उम्मीद जगाती है. अर्थशास्त्री शैवाल गुप्ता कहते हैं, राज्य के सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों के बच्चे पढ़ने आते हैं और अंग्रेजी उनके लिए अक्सर एक हौवा होती है. बिहार में एक बड़ा बदलाव लाने में इस कदम के दूरगामी परिणाम होंगे.

आनंद एसटी दास