उम्र का पलस्तर जब कच्चा होता है तो उसमें पड़ने वाली लकीरें हमेशा के लिए आपमें रह जाती हैं. 1993 की बात है. शिक्षक दिवस के दिन की. मैं तब दसवीं में था. हर विशेष दिन की तरह इसे मनाने के लिए भी स्कूल में एक औपचारिक आयोजन रखा गया था. सबको पता था कि इसमें क्या होगा. जीवन में गुरू की भूमिका, डा. राधाकृष्णन, शिक्षा के क्षेत्र में भारत की महान विरासत जैसे विषयों पर वही उबाऊ भाषण होने थे जो इससे पिछले और उससे भी पिछले साल हुए थे.
दौलत, शोहरत और जवानी के बदले में बचपन की चाह वाली नई तरह की गजल मेरी समझ में ज्यादा तो नहीं आई मगर ये जरूर लगा कि इसे लिखने वाले और गौतम सर ने कुछ ऊंची बात कही हैअक्सर ऐसे मौकों पर ज्यादातर छात्र अपनी-अपनी प्रतिभा के हिसाब से टाइमपास के तरीके ईजाद कर लेते. खुसुर-फुसुर संवाद, एक-दूसरे के हाथ पर पेन और जमीन पर लकड़ी के छोटे से टुकड़े से कलाकारी, दूब की ज्यादा से ज्यादा गांठें बिना तोड़े उखाड़ने की प्रतियोगिता इनमें शामिल थे. उस दिन भी यही हो रहा था कि संचालक जी के शब्द गूंजे, ‘श्री गौतम जी इस अवसर पर एक गजल सुनाना चाहते हैं. मैं अनुरोध करता हूं कि वे मंच पर आएं और गजल पेश करें.’ टाइमपास में व्यस्त छात्र चौंके. बात थी ही ऐसी. हम सभी के लिए शिक्षकों के साथ भाषण शब्द अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था. मौका कोई भी हो, स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयंती.. और मौका न भी हो तब भी हमें उनसे भाषण ही सुनने को मिलते. ऐसे में कोई टीचर अगर गजल सुनाने जा रहा हो तो छात्रों की जिज्ञासा जागनी स्वाभाविक थी.
आलोक गौतम यानी गौतम सर को नौकरी ज्वाइन किए ज्यादा समय नहीं हुआ था. वे इंटर की कक्षा को फिजिक्स पढ़ाते थे और उन्हें देखकर यकीन करना मुश्किल था कि वे टीचर हैं. उनका व्यक्तित्व शिक्षक के उन खांचों में कहीं फिट नहीं होता था जो हमारे दिमाग में बरसों से गड़े हुए थे. वे 27-28 साल के थे, स्मार्ट थे और उन्हें देखकर डर नहीं लगता था. कस्बे का न होने की वजह से उनके बारे में कई बातें उड़ती थीं. कपिल थपलियाल का कहना था कि पढ़ाई में तेज होने की वजह से उन्हें इतनी जल्दी नौकरी मिल गई तो विक्रम गुसाईं के मुताबिक वे आरक्षित कोटे से थे इसलिए एमएससी के तुरंत बाद ही नौकरी पा गए. खैर, गौतम जी मंच पर आए और खुद ही हारमोनियम थामते हुए उन्होंने गजल सुनानी शुरू की, ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो..
मेरे लिए यह बिल्कुल नई तरह का अनुभव था. दौलत, शोहरत और जवानी के बदले में बचपन की चाह वाली नई तरह की गजल मेरी समझ में ज्यादा तो नहीं आई मगर ये जरूर लगा कि इसे लिखने वाले और गौतम सर ने कुछ ऊंची बात कही है. उम्र के उस पड़ाव पर मेरी जिज्ञासा अनंत थी. मुझे लगा, कितना अच्छा हो अगर ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी टीचर से बात करने का मौका मिल जाए.
मगर इंटर में जाने में अभी पूरा साल लगना था और यहां तो हाल यह था कि अपने ही टीचर्स से पढ़ाई के अलावा कोई और बात करने की हिम्मत नहीं हो पाती थी. पर शायद अपनी किस्मत अच्छी थी. कुछ दिन बाद ही पता चला कि गौतम सर एक नुक्कड़ नाटक करवा रहे हैं और उन्हें उसके लिए लोग चाहिए. मैं फौरन उनके पास पहुंच गया. रोल मिल गया और डायलॉग्स लिखे कुछ पन्ने भी. अब हर रोज आखिरी पीरियड में नाटक की प्रैक्टिस होती. जब वे समझते कि इस डायलॉग को ऐसे बोलना है तो मुझे बड़ा अच्छा महसूस होता. मेरे लिए इस तरह के व्यक्तित्व की नजर में होना ही अपने आप में बड़ी बात थी.
देखते ही देखते मैं 11वीं में भी पहुंच गया. अब गौतम सर हमें पढ़ाने लगे थे. फिजिक्स में ठीक-ठाक होने पर भी मैंने पापा से जिद करके उनसे ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दिया. रोज सुबह मैं गौतम सर के घर पहुंचता. वे अकेले ही रहते थे. पढ़ाई से ज्यादा मेरी दिलचस्पी उनके कैसियो कीबोर्ड और कैसेट प्लेयर में थी जिसके पास जगजीत सिंह की गजलों के कैसेट पड़े रहते थे. मैं उनके घर कुछ पहले पहुंच जाता और सबके आ जाने और ट्यूशन शुरू होने तक ध्यान से गजलें सुनता हुआ उनके मायने समझने की कोशिश करता. गौतम सर चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया भी थे. कंप्यूटर, किताबों, फिल्मों से लेकर भूत-प्रेत तक मैं उनसे हर तरह के सवाल पूछा करता और उनके पास मेरी हर जिज्ञासा को शांत करने वाला जवाब होता. काफी हद तक ये उनकी सोहबत का ही नतीजा था कि मैं जगजीत सिंह की गजलों, अच्छी फिल्मों और किताबों का मुरीद हो गया. गनीमत रही कि ये सब करते हुए भी फिजिक्स में बुरे नंबर नहीं आए.
आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि उम्र के उस को पलस्तर में गौतम सर ने अनजाने ही कुछ अच्छी लकीरें खींच दी थीं जिनकी छाप हमेशा के लिए मुझमें रह गई है.
विकास बहुगुणा
30 वर्षीय विकास पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं