चैनलों को कवि नहीं, अभिनेता चाहिए. क्योंकि कवि बाजार के साथ नहीं है अभिनेता बाजार के साथ है. कवि मुश्किल सवाल पूछता है, अभिनेता आसान सपने बेचता है
11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन का जन्मदिन पड़ता है, मेरे सामान्य ज्ञान में यह इजाफा पिछले कुछ वर्षों में टीवी चैनलों की सक्रियता ने किया है. अमिताभ भले उकता जाएं, वे मनाएं न मनाएं, टीवी चैनल धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाते हैं. बताने की जरूरत नहीं कि यह अमिताभ या हिंदी फिल्मों के प्रति उनकी संवेदनशीलता का नहीं, टीआरपी होड़ का नतीजा है.
लेकिन इन वर्षों से टीवी चैनल जो अमिताभ बच्चन बनाते और बेचते रहे हैं, क्या यह वही नाराज नौजवान है जो करीब तीन दशक पहले ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘त्निशूल’, ‘लावारिस’, ‘डॉन’ या ‘मुकद्दर का सिकंदर’ जैसी फिल्मों के सहारे उत्तर भारत के मध्यवर्गीय नौजवान की हसरतों और उम्मीदों को, उसकी हताशा और गुस्से को आवाज दिया करता था?
बदकिस्मती से हमारे जाने-अनजाने इन्हीं वर्षों में हिंदी फिल्मोद्योग बॉलीवुड में बदलता चला गया है और अमिताभ बच्चन बिग बी हो चुके हैं. पहले कभी जब मुंबई के फिल्मोद्योग को बॉलीवुड पुकारा जाता था तो एक क्षीण सा प्रतिरोध सुनाई पड़ता था कि इस नाम में हॉलीवुड की सतही नकल की छाप दिखती है. अब न मौलिकता का ऐसा कोई दावा बचा है न वह देशज अभिमान, जो हिंदी फिल्मों की दुनिया के बॉलीवुड कहलाने पर एतराज करे.
यही स्थिति हमारे अमिताभ बच्चन की हुई है. यह वह नायक नहीं है जो गिरे हुए सिक्के उठाने से इनकार करता था, यह वह नायक है जो करोड़पति बनाने का धंधा करता है. यह वह नायक नहीं है जो अपनी खुद्दारी और अपने ईमान को अपनी सबसे बड़ी ताकत मानता था, यह वह बिग बॉस है जो अपने घर से रियलिटी शो का दैनिक तमाशा बेचता है, यह वह लावारिस या नमकहलाल नहीं है जो सिर्फ अपने होने से एक भरोसा जगाता था, यह वह ‘गॉडफादर’ है, जिसे अपनी ‘फैमिली’ की फिक्र है. निश्चय ही यह अमिताभ सच नहीं है जैसे पिछला अमिताभ सच नहीं था. दोनों एक अवास्तविक दुनिया रचते हैं. पिछला अमिताभ एक झूठी उम्मीद बेचता था, नया अमिताभ एक नकली सपना बेचता है. अमिताभ बच्चन अक्सर यह कहते भी रहे हैं कि वे बस कलाकार हैं और उनका काम मनोरंजन करना है.
लेकिन किसी कला या मनोरंजन में हम क्या खोजते हैं, उसे किस रूप में ढालना चाहते हैं, इस बात में कुछ हमारी समझ भी झांकती है, कुछ हमारा समाज भी बोलता है. मनोरंजन के उद्योग में आज बिग बी अमिताभ बच्चन पर इसलिए भारी है क्योंकि वक्त बदल गया है, देश बदल गया है. मेहनतकश हिंदुस्तान दौलतमंद हिंदुस्तान होने का सपना देख रहा है. संकट यह है कि इस सपने की भी कोई देसी शक्ल नहीं है. यह उधार का सपना है जो बाहर से आया है. हम इस सपने को जी रहे हैं, बिना यह जाने कि यह हमारी मौलिकता पर कितना भारी पड़ रहा है, किस बुरी तरह हमें इस भूमंडलीकृत दुनिया में दूसरे दर्जे का सांस्कृतिक नागरिक और छिछला उपभोक्ता बनाकर छोड़ रहा है.
हमारे समाचार चैनलों में भी यह छिछलापन दिख जाता है. इसलिए अमिताभ के जन्मदिन की खबर उतरने का नाम नहीं लेती तो हिंदी के कवि कुंवरनारायण को देश का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान मिलने की ख़बर कहीं दिखती तक नहीं. अमिताभ हिंदी के एक बड़े कवि के बेटे हैं. अपने जन्मदिन पर भी पिता हरिवंश राय बच्चन को उन्होंने याद किया. वे मानते रहे हैं कि उनके बाबूजी उनसे काफी बड़े थे. लेकिन चैनलों को कवि नहीं, अभिनेता चाहिए. क्योंकि कवि बाजार के साथ नहीं है अभिनेता बाजार के साथ है. कवि मुश्किल सवाल पूछता है, अभिनेता आसान सपने बेचता है.
सवाल है, कवि अगर टीआरपी नहीं ला सकता तो टीवी उसे क्यों दिखाए? जवाब है कि टीआरपी के आखिरी सत्य तक पहुंचने के रास्ते में भी बहुत सारे घुमावदार मोड़ हैं. आप शॉर्टकट लेते हैं तो उन बहुत सारे रास्तों और वास्तों को काट भी देते हैं जो आपके और आपकी व्यावसायिक सफलता के भी काम आ सकते हैं. संकट यह है कि अपने समाज के घुमावदार मोड़ों को पहचानने का, उसके साथ खड़ा हो पाने का आत्मविश्वास टीवी चैनलों में नहीं है. इसलिए उन्हें देसी कवि हरिवंश राय बच्चन का बेटा अमिताभ नहीं, बेटे-बहू और पत्नी के साथ अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के छोरों को छूती एक ग्लोबल फैमिली का बिग बॉस चाहिए.
प्रियदर्शन
लेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं