कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनकरन का प्रकरण न्यायपालिका में सुधार की तीन सबसे महत्वपूर्ण जरूरतों की ओर हमारा ध्यान खींचता है: पहली, उच्च स्तर की न्यायिक व्यवस्था की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की; दूसरी, न्यायपालिका के किसी सदस्य पर भ्रष्ट आचरण का संदेह होने पर उसकी जांच के लिए उचित व्यवस्था के निर्माण की और तीसरी, भ्रष्टाचार के आरोप सही पाए जाने पर उचित कार्रवाई हो सके ऐसी प्रक्रियाओं और व्यवस्था की स्थापना की.
क्या कानून के मुताबिक चलकर देश के 100 करोड़ से ज्यादा लोगों की किस्मत का फैसला करने वाले खुद भी कानून से बंधे हैं?
जस्टिस दिनकरन पर आरोप हैं कि वे वेल्लौर और तिरुवल्लूर जिले में कानूनन निर्धारित सीमा से दसियों गुना ज्यादा भूमि के स्वामी हैं (तमिलनाडु में एक परिवार अधिकतम 15 एकड़ जमीन का मालिक हो सकता है जबकि अकेले वेल्लौर जिले के कावेरीराजपुरम में ही कथित तौर पर उनके परिवार की 400 एकड़ से ज्यादा भूमि है). बताया जाता है कि इसके भी एक बड़े हिस्से पर उनका कब्जा पूरी तरह से अवैध है और इस अवैध कब्जे में से भी कुछ ऐसी सरकारी भूमि है जो केवल गरीब भूमिहीन ग्रामीणों को ही दी जा सकती थी और कुछ पर कभी आम जनता द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले रास्ते, झील और पानी की धाराएं हुआ करती थीं. दिनकरन पर अनुचित न्यायिक आदेश देने के भी आरोप हैं.
मगर सुप्रीम कोर्ट के 5 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह (सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम) ने अगस्त 2009 में जस्टिस दिनकरन को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाए जाने की सिफारिश सरकार से कर दी. आम तौर पर इस तरह के निर्णयों की जानकारी राष्ट्रपति द्वारा नोटिफिकेशन जारी होने के बाद ही होती है मगर जस्टिस दिनकरन की पदोन्नति की भनक किसी तरह अखबारों को लग गई और उसके बाद उनसे संबंधित तमाम बातें सामने आ गईं. अब कॉलेजियम ने उनकी नियुक्ति के निर्णय पर रोक लगाकर उनसे इस मामले में स्पष्टीकरण मांगा है. मगर सवाल ये उठता है कि यही कार्य पहले क्यों नहीं किया जा सकता था? इसका मतलब नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था ठीक नहीं है जो सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में एक निर्णय के जरिए कार्यपालिका से अपने हाथ में ले ली थी. वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय के अति-व्यस्त पांच जजों से नियुक्तियों में हर चीज का ध्यान रखे जाने की उम्मीद रखना कतई तर्कसंगत नहीं है.
इस तरह के मामलों में इसके आगे यदि मुख्य न्यायाधीश को जरूरत महसूस होती है तो वे जांच के लिए जजों की एक समिति बना सकते हैं और आरोप सही पाए जाने पर न्यायाधीश महोदय से पहले तो खुद ही अपना पद छोड़ देने का निवेदन और ऐसा न होने पर उनके खिलाफ संसद में महाभियोग चलाए जाने की संस्तुति कर सकते हैं. या फिर 100 सांसदों द्वारा संसद में प्रस्ताव पारित किए जाने पर ऐसा किया जा सकता है. मगर पक्का कुछ नहीं है. हो सकता है जज साहब को केवल पदोन्नति न देने को ही दंड मान लिया जाए या फिर जस्टिस रामास्वामी की तरह महाभियोग का मामला ही टांय-टांय फिस्स हो जाए या फिर..
क्या कानून के मुताबिक चलकर देश के 100 करोड़ से ज्यादा लोगों की किस्मत का फैसला करने वाले खुद भी कानून से बंधे हैं? सोचना होगा!
संजय दुबे