जो देखा सो लिखा

लिखने का काम वे रात के 11 से सुबह के साढ़े चार बजे तक करती हैं, अखबार का संपादकीय पढ़ने के लिए जागती हैं और फिर दोपहर का ज्यादातर वक्त सोने में बिताती हैं.

कृष्णा सोबती, उम्र:84   साहित्यकार

कृष्णा सोबती इस सवाल का जवाब तो नहीं देतीं कि क्या उन्होंने इस उम्र के बारे में सोचा था मगर उनके असाधारण उपन्यास ए लड़की, जो कि मुख्य रूप से कभी भ्रम और कभी वास्तविकता में जीने वाली एक बूढ़ी महिला के नजरिए से लिखा गया है, से इसका ठीक-ठाक संकेत मिल जाता है कि वे इस बारे में क्या सोचती थीं. और शायद उन्होंने इसके लिए खूब कोशिश भी की है कि उनका हाल इस किरदार के जैसा न हो.

इसलिए सोबती 84 साल की उम्र में भी जीवंतता से भरपूर हैं. बीजेपी की उठापटक से लेकर दूसरे तमाम मुद्दों पर वे खुशी से बात करने के लिए तैयार रहती हैं और उनमें किसी छोटी बच्ची जैसा रोमांच दिखता है. उनकी उत्सुकता भी एक वजह है कि वे समय के साथ तालमेल बनाने में कामयाब हैं. पहाड़ों से उन्हें बहुत लगाव है. वे कहती हैं, ‘लिखते-लिखते जब कभी मैं अटक जाती हूं तो किसी हिल स्टेशन पर चली जाती हूं और फिर साफ सोच के साथ वापस आती हूं.’

हालांकि उम्र के साथ उनकी जिंदगी में कुछ बदलाव भी आए हैं. जैसा कि वे बताती हैं, ‘मुझे पता है कि अब मैं लद्दाख में ट्रैकिंग करने नहीं जा सकती जबकि मैंने 65 साल की उम्र तक भी इसका लुत्फ उठाया है. पहले मैं रोज सैर के लिए जाया करती थी मगर अब मैं मुश्किल से ही ऐसा कर पाती हूं. लेकिन हर मौसम खत्म होता है. ये सब सोचने का कोई फायदा नहीं. मैंने बहुत अच्छा वक्त बिताया है.’

उनकी बात सही है. आज के पाकिस्तान में पैदा हुई सोबती शिमला और दिल्ली में बड़ी हुईं. उनके पिता सिविल सेवा में थे. वे बताती हैं, ‘मैं इस मायने में खुशकिस्मत रही हूं कि मैंने तीनों दौर देखे – ब्रिटिश राज, आजादी और आधुनिक. और मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि मैं सिर्फ एक प्रत्यक्षदर्शी हूं.’ 1920 की दिल्ली को बयां करते दिलोदानिश  से लेकर पंजाब की मिट्टी में घुले जिंदगीनामा तक सोबती का काम उनकी इस बात की पुष्टि करता है कि वे इतिहास में सिर्फ एक प्रत्यक्षदर्शी नहीं बल्कि भागीदार रही हैं. उनकी आने वाली किताब मार्फत दिल्ली 1950 से 1970 तक शहर के साहित्यिक परिदृश्य पर है.

सोबती हमेशा से खुद को महिला साहित्यकार के खांचे तक सीमित किए जाने का विरोध करती रही हैं. उनका मानना है कि रचनात्मक होने के लिए आपको अपने भीतर छिपे पुरुष और स्त्री, दोनों पहलुओं तक पहुंचने की जरूरत होती है. निजी जीवन में वे उन घरेलू कामों से दूर रही हैं जिन्हें सिर्फ स्त्रियों की जिम्मेदारी माना जाता है. अपनी नर्म मगर स्पष्ट आवाज में वे कहती हैं, ‘रोजमर्रा के घरेलू काम औरत की ऊर्जा छीन लेते हैं. अगर आपके संसार की सीमा परिवार से आगे नहीं जाती तो आप की सोच बड़ी नहीं हो सकती.’

दुनिया की नब्ज को समझते रहना सोबती को अहम लगता है. वे कहती हैं, ‘बतौर लेखक कभी-कभी आपको कटे रहने की जरूरत होती है मगर जब रात को आप लिखने बैठते हैं तो मेज पर आपके साथ सारी दुनिया होनी चाहिए.’

तृषा गुप्ता

रंगरसिया

मकबूल फिदा हुसैन की पेंटिग्स भले ही करोड़ों में बिकती हों मगर वे जमीन पर बिछे एक साधारण से गद्दे पर सोते हैं. कूची लेकर चलने वाले हुसैन की उंगलियां लगातार किसी काल्पनिक तबले पर थिरकती रहती हैं.

मकबूल फिदा हुसैन, उम्र: 94 चित्रकार

1968 में राममनोहर लोहिया के सुझाव पर उन्होंने आठ साल की अवधि में रामायण पर 160 पेंटिग्स बनाईं. किसी भी बड़े प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले गणेश की तस्वीर बनाने वाले हुसैन इन दिनों अरबी भाषा सीख रहे हैं. एमएफ हुसैन क्या हैं इसका जवाब वे खुद ही दे देते हैं. तहलका को दिए एक इंटरव्यू में वे कहते हैं, ‘भारत एक विशाल सरकस है और मैं इसका रंगीला जोकर हूं.’ उम्र के 94वें पड़ाव पर भी हुसैन मजाक का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. अब भी उनकी जादुई उंगलियां किसी काल्पनिक तबले पर लगातार थिरकती रहती हैं. लगता है जैसे थकान जैसी कोई चीज उन्हें छू तक नहीं गई. आज आबू धाबी में हैं तो कल कतर में. गर्मियां लंदन में बीत रही हैं तो सर्दियां दुबई में. समय के साथ उनकी अनवरत यात्रा जारी है. आजकल वे अरबी भाषा सीख रहे हैं और साथ ही तीन विशाल प्रोजेक्ट्स पर भी काम कर रहे हैं. उन्हें अरबी और भारतीय सभ्यता व भारतीय सिनेमा पर चित्रों की एक श्रंखला बनानी है.

हुसैन बड़े दिलचस्प इंसान हैं. उनकी एक-एक पेंटिंग भले ही करोड़ों में बिकती हो मगर अकूत संपदा का ये स्वामी अपने ड्राइंग रूम में जमीन पर बिछे एक साधारण से गद्दे पर सोता है और नंगे पैरों से अकेले ही दुनिया भर की यात्रा करता है. उनकी भतीजी साबिहा कहती है, ‘जब चाचा घर पर होते हैं तो सांस लेने का भी वक्त नहीं होता.’ उनके चाचा ने उनकी जिंदगी का कायापलट कर दिया है. उनके भतीजे फिदा बताते हैं कि जब हुसैन दुबई में होते हैं तो उन सबका वक्त फिल्मों, पॉपकॉर्न, संगीत और खाने-पीने में ही बीतता है.

हुसैन का दिन सुबह सात बजे शुरू होता है और इसकी समाप्ति कभी-कभार तो रात के एक बजे होती है. ऐसा लगता है जैसे उनकी रग-रग में जीवन का अमृत दौड़ रहा हो. हम उनसे पूछते हैं कि उनकी इस लंबी दौड़ का राज क्या है और जवाब आता है, ‘मैं तस्वीरें बनाने के लिए जीता हूं.’

शोमा चौधरी 

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