नब्बे पार का नौजवान

खुशवंत सिंह

उम्र: 94 ‘मैं टिके रहना चाहता हूं लेकिन मुझे पता है कि अब मेरा वक्त करीब है,’ चार साल पहले मनमौजी सरदार खुशवंत सिंह ने मौत के जिक्र पर ये बात कही थी. उस दुर्लभ मौके पर उन्होंने घंटे भर से ज्यादा मौत के दर्शन पर बातचीत की थी. खिड़की के बाहर देखते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं अक्सर उस पेड़ को देख कर सोचा करता हूं कि मैं इसे कब तक देख पाऊंगा. मैंने इसे अपने साथ ही बढ़ते हुए देखा है. मैं मानसिक तौर पर फिट हूं मगर मेरी शक्ति खत्म हो रही है. मैंने अपनी पत्नी को मानसिक तौर पर असंतुलित होते हुए देखा और बाद में उसकी बहुत दुर्दशा हुई. मुझे भी उस स्थिति के लिए तैयार रहना होगा.’

शायद भारत के सबसे चर्चित लेखक. उनका स्तंभ न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर आज भी पाठकों के बीच लोकप्रिय है इन दिनों वे एक और किताब लिख रहे हैं, इसका विषय क्या है, ये जानने का एक ही तरीका है और वह है इंतजारहालांकि सेक्स के कलेवर में लिपटी हुई मजेदार फंतासियों का ये किस्सागो और 30 से ज्यादा किताबों का ये लेखक जीवन के प्रति आज भी पूरी तरह से केंद्रित है. उनके बेटे राहुल सिंह से पूछने पर कि आखिर क्या चीज उनके पिता को अभी भी चलायमान रखे हुए है, तुरंत ही उत्तर मिलता है, ‘हर शाम व्हिस्की के दो पेग और उनकी तमाम महिला मित्र जो अपनी रूमानी जिंदगी को और मजेदार बनाने के लिए हर दिन उनसे सलाह लेने के लिए इकट्ठा होती हैं.’ हर शाम, बेनागा, 7 से 8 बजे के बीच इलस्ट्रेटेड वीकली का ये पूर्व संपादक अपने लिविंग रूम में बैठक जमाता है जिसमें गिने-चुने लोग ही शामिल होते हैं. उनके मुख्य दरवाजे पर हमेशा एक बोर्ड टंगा होता है- ‘अगर आप आमंत्रित नहीं है तो घंटी न बजाएं’.

इस एक घंटे का भरपूर लुत्फ उठाने के लिए खुशवंत सिंह बेहद अनुशासित दिनचर्या का पालन करते हैं. वे तड़के चार बजे ही उठ जाते हैं और रोज सभी अखबारों के क्रॉसवर्ड्स हल करते हैं. इसके बाद उनकी दिनचर्या में शामिल होता है, कॉलम लिखना, दोपहर में दो घंटे झपकी लेना, शाम के सात से आठ बजे का इंतजार और 8.30 बजे डिनर करके 9 बजे तक सो जाना. अगले दिन वे फिर से 4 बजे उठ जाते हैं. उन्हें चलने-फिरने के लिए दीवार का सहारा लेना पड़ता है, अक्सर वे फोन सिर्फ ये कहने के लिए उठाते हैं, ‘मैं बहरा हूं. मैं आपकी आवाज सुन नहीं सकता, मुझे पत्र लिख कर भेजें.’ खुशवंत सिंह के मानसिक स्वास्थ्य का राज सिर्फ उनकी महिला मित्र ही नहीं बल्कि शायरी और हंसी-मजाक भी है जिसकी खुराक वे आज भी रोजाना लेते हैं.

चार साल पहले तहलका के साथ साक्षात्कार में ये पूछे जाने पर कि वे सबसे ज्यादा किस चीज की कमी महसूस करते हैं, उनका जवाब था, ‘बढ़िया सेक्स. मैं काफी समय से बढ़िया सेक्स का आनंद नहीं ले पा रहा हूं. कोई आदमी जिस दिन बढ़िया सेक्स न कर पाए समझ लीजिए उसके जाने का वक्त हो गया है. लेकिन हां, मैं रूमानी कल्पनाएं करता हूं.’

व्यंग्य और कटाक्ष उनके जीवन का हिस्सा रहा है, यहां तक कि उम्र के बीसवें दशक के दौरान ही उन्होंने खुद की श्रद्धांजलि लिख डाली थी. उनका साप्ताहिक स्तंभ ‘न काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ इस बात का सबूत है कि उन्हें जिंदगी से अब भी उतना ही प्रेम है. उन्होंने सब कुछ दान कर दिया है. वे कहते हैं, ‘मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है.’ बावजूद इसके उनके पास देने के लिए बहुत कुछ है जिसे वे हफ्ता दर हफ्ता अपने पाठकों तक पहुंचाते रहते हैं.

हरिंदर बवेजा 

नावक के तीर

‘मुझे अपने काम से प्रेम है. मुझे कार्टून बनाना अच्छा लगता है. भला हो हमारे नेताओं का कि आलोचना और व्यंग्य के लिए ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ती’ 

आरके लक्ष्मण

उम्र: 85

कार्टूनिस्ट

 

उन्हें मुंबई के जेजे कॉलेज ऑफ आर्ट्स में एडमिशन इसलिए नहीं मिल सका क्योंकि कॉलेज के डीन के मुताबिक उनकी ड्राइंग्स इतनी बढ़िया नहीं थी कि उन्हें इस संस्थान में दाखिला लेने के योग्य समझा जाता85 वर्षीय के आरके लक्ष्मण ज्यादा बात नहीं करते. लेकिन इस मितभाषिता की पूर्ति उनके पांच दशक लंबे करियर के दौरान बनाए गए अनगिनत कार्टूनों से हो जाती है क्योंकि उनका हर कार्टून काफी-कुछ कह देता है. उनका जग प्रसिद्ध भौचक्का ‘आम आदमी’ चांद पर जाने के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार है. क्योंकि लक्ष्मण के ही शब्दों में ‘वह भोजन, पानी, हवा, रोशनी या छत बिना भी जी पा रहा है.’ कुछ ऐसा ही है लक्ष्मण की व्यंग्यात्मक सोच और हल्के-फुल्के  अंदाज का स्वभाव. चुटकी लेते हुए वे कहते हैं ‘मुझे अपने काम से प्रेम है. मुझे कार्टून बनाना अच्छा लगता है. भला हो हमारे नेताओं का कि आलोचना और व्यंग्य के लिए ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ती.’

अपनी उम्र के तमाम दूसरे लोगों की तरह इस कार्टूनिस्ट के पास सुबह की सैर के लिए वक्त नहीं है. वे कहते हैं, ‘मैं ये सब नहीं करता.’ बजाय इसके वे हर दिन आराम से 8.30 बजे उठते हैं. हल्का नाश्ता करने के बाद वे हर दिन 1 से 2 बजे तक दिमाग के घोड़े दौड़ाते हुए दिन के कार्टून का खाका अपने दिमाग में बनाते हैं. इसके बाद वे अपनी सोच को कागज पर उकेरने में घंटा भर लेते हैं और फिर इसे टाइम्स ऑफ इंडिया को भेज देते हैं.

2003 में उनके शरीर का बायां हिस्सा आंशिक रूप से लकवे का शिकार हो गया था. बावजूद इसके हर दिन तंज गढ़ने की उनकी क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ा. लक्ष्मण कहते हैं, ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. मैं आज भी पहले की तरह ही काम कर रहा हूं.’ इन दिनों वे नियमित रूप से दो घंटे तक फिजियोथिरैपी करवाते हैं. ये पूछने पर कि क्या उनके व्यंग्य का कोई फार्मूला है, वो कहते हैं, ‘ऐसा कुछ नहीं है. ये खुद-ब-खुद हो जाता है.’ अगर दुरूह चुनौतियों का सामना करने का एक तरीका व्यंग्य है तो आरके लक्ष्मण इस विधा के पुरोधा हैं.

दिव्या गुप्ता   

मूल आलेख के लिए क्लिक करें अक्षय घट ऊर्जा के