हमका अइसा-वइसा ना समझो

शहर की अमीरज़ादी गांव के गरीब स्वाभिमानी छोरे पर मर मिटती है। प्रेमी युगल, लड़की के शातिर बाप को छका कर, जो कि उसे घर जमाई बनाना चहता है, उंचनीच की इस खाई को पाट देते हैं। एक दूसरी कहानी में गांव का शरारती लड़का फिल्मी सितारा बनने के लिए घर से पैसे चुरा कर मुंबई भाग जाता है। धोखा खाने और अपनी आंखें खुलने के बाद वो एक आज्ञाकारी बेटे की तरह घर वापस आ जाता है। या फिर ठाकुर, गांव की औरतों, उनके जानवरों और गरीब किसानों पर अपनी बुरी नज़र डालता है और हीरो जवान हो कर उससे उसकी काली करतूतों का बदला लेता है। क्या हम सत्तर और अस्सी या इससे पहले के दशकों वाली दिलीप कुमार, धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की सुपर हिट फिल्मों की बात कर रहे हैं? दरअसल इस तरह की कहानियां इक्कीसवीं सदी में ज़बर्दस्त तरीके से फल-फूल रहे भोजपुरी सिनेमा की ख़ास पहचान बन चुकी हैं। 

लंबे समय तक उपेक्षित रही पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के 15 करोड़ लोगों की भाषा भोजपुरी एकाएक बढ़िया मुनाफे वाले सिनेमा का ज़रिया बन गई है। कहा जा रहा है कि भोजपुरी में आई इस बहार का सालाना कारोबार 200 करोड़ रूपए से भी ज्यादा है। और इसमें प्रोड्यूसर, डिस्ट्रीब्यूटर से लेकर सिनेमा हॉल तक सबकी जेबों में अभूतपूर्व पैसा पहुंच रहा है। इस सफलता का कुछ श्रेय उन 40 लाख प्रवासियों को भी जाता है जो मुंबई, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसी अनजान जगहों पर भी तमाम हिंदी फिल्मों के मुकाबले इनका बेहतर प्रदर्शन सुनिश्चित करते हैं। "आम लोग भोजपुरी फिल्मों की तरफ मुड़ रहे हैं क्योंकि वो आजकल की हिंदी फिल्मों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं करते," कहना है भोजपुरी फिल्म निर्माता दीपा नारायण का। दीपा को पिछले साल इन्हें "कब होई गौना हमार" के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। भोजपुरी के गायककलाकार और सितारे मनोज तिवारी धड़ल्ले से कहते हैं, "भोजपुरी ने भारतीय गांवो और वहां के पारिवारिक मूल्यों को पहचान लिया है। हिंदी सिनेमा में बड़ी मुश्किल से ही हिंदुस्तान की झलक मिलती है।" उनके प्रतिद्वन्द्वी भोजपुरी सितारे रवि किशन भी इस बात से इत्तेफ़ाक रखते हुए कहते हैं– "हिंदी फिल्मों में आज कोई भी न तो ट्रैक्टर चलाता है न ही अपने पिता के पैर छूता है।

समझा जा सकता है कि बॉलीवुड भोजपुरी फिल्मों की तरफ क्यों आकर्षित हो रहा है। जीपी सिप्पी और इंद्र कुमार ने पिछली होली पर ही अपनी पहली भोजपुरी फिल्में रिलीज़ की थी। फरवरी में एकता कपूर की बालाजी टेलीफिल्म ने भी अब तक की सबसे महंगी, 2 करोड़ रूपए की लागत वाली भोजपुरी फिल्म गब्बर सिंहरिलीज़ की। इसके अलावा अमिताभ बच्चन पहले ही दो भोजपुरी फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं तो अजय देवगन ने भी एक भोजपुरी फिल्म में काम किया है। अगर आंकड़ो पर नज़र दौड़ाएं तो इस साल करीब 70 भोजपुरी फिल्मों के रिलीज़ होने की उम्मीद है। 

इन फिल्मों की लोकप्रियता और दिनोंदिन बढ़ती जा रही भव्यता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले महीने ही भोजपुरी फिल्मों का पहला नहीं बल्कि तीसरा समारोह आयोजित किया गया जो हर मायने में हिंदी फिल्मी आयोजनों से टक्कर ले रहा था। 

1961 में रिलीज़ हुई पहली फिल्म "गंगा मैय्या तोहे पियरी चढ़इबों" से शुरू हुआ भोजपुरी फिल्मों का सफ़र एक लंबी यात्रा तय कर चुका है। आज भोजपुरी फिल्म के नायक आसानी से एक फिल्म के लिए 15 लाख से ज़्यादा मेहनताना लेते हैं। श्वेत श्याम "गंगा मैय्या तोहे पियरी चढ़इबों" की रिलीज़ के एक महीने बाद तक उत्तर भारत के सारे सिनेमा घर हाउसफुल रहे। फिल्म देखने वालो में देश के पहले राष्ट्रपति भोजपुरी भाषी डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे। 

हालांकि ये फिल्म, भोजपुरी फिल्मों की कोई परिपाटी स्थापित नहीं कर सकी। 70 के दशक की दो चार फिल्मों को छोड़ दें तो भोजपुरी सिनेमा की पहली लहर ने जल्द ही दम तोड़ दिया था। ऐसा इसलिए नहीं था कि हिंदी ज्यादा विस्तृत इलाके में समझी जाने वाली भाषा थी बल्कि उस समय तक की हिंदी फिल्में भी कमोबेश उत्तर भारतीय गांवो और छोटे कस्बों की सामाजिक परंपराओं को अपनी फिल्मों में शामिल किया करती थीं। "1990 के शुरुआती दिनों में सनी देओल और अजय देवगन के आने तक हिंदी फिल्में आम आदमी के लिहाज से ही बनती थी," फिल्म वितरक और निर्माता सुनील बुबना बताते हैं। इन्होंने अपने सिनेमा हॉल में हिंदी फिल्मों की बजाय भोजपुरी फिल्मों का प्रदर्शन शुरू कर दिया है। भोजपुरी फिल्मो की ऐश्वर्या राय मोनालिसा कहती हैं, "भोजपुरी बोलने वाले लोग हाईफाई नहीं हैं।" गब्बर सिंह के निर्माता महेश पांडे मुस्करा कर बताते हैं, "भोजपुरी फिल्मों ने इस हद तक हिंदी फिल्मों की जगह ले ली है कि बिहार में अब इनके लिए सिनेमा हॉल्स ही नहीं बचे हैं"

पिछले एक दशक के दौरान हिंदी सिनेमा को पूरी तरह से बदलने की तीन वजहें स्पष्ट रूप से नज़र आती हैं जिनकी वजह से भोजपुरी सिनेमा के पुनर्जन्म की नींव तैयार तैयार हुई। पहला, 1991 का आर्थिक उदारीकरण जिसने मनोरंजन प्रिय महानगरीय भारतीयों की आय में हुई बढ़ोत्तरी कर उन्मुक्त खर्च को बढ़ावा दिया। मल्टीप्लेक्सों की बाढ़ सा आ गई जिनमें अब तक अगली कतार में बैठने वाले साधारण लोगों के लिए कोई जगह ही नहीं थी। दूसरे, यहां के अंग्रेज़ी भाषी, पश्चिमोन्मुख, छोटे परिवारों वाले भारतीय जो लंबे समय से अपनी पिछली गंवई ज़िंदगी से अलग थलग रहे थे उनके पास जातपांत, गांव का छोराशहर की गोरी, कुली, जूता साफ करने वाला लड़का, मिल मजदूर, ईमानदारी की बेइमानी पर जीत जैसे हिंदी सिनेमा के लोकप्रिय मसालों के लिए कोई समय नहीं था। और तीसरी बात, हिंदी सिनेमा अपनी मूल आत्मा मध्य भारत की हिंदीउर्दूहिंदुस्तानी से दूर हटकर दिल्ली और उत्तरपश्चिम की पंजाबीहिंदी की ओर मुखातिब हो गया था। इसका विषय, भावनाएं, चरित्र, डायलॉग से लेकर गीतों के बोल तक सब बदल चुके थे। बॉलीवुड ने सूंघ लिया था कि अब बड़े शहरी दर्शकों की जेब में ही पैसा था, जो "से शावा, शावा" पर थिरकता था। यूपी बिहार का गरीब दर्शक इससे खुद को अलग-थलग महसूस कर रहा था।

"यश चोपड़ा जैसे निर्माताओं ने आम आदमी को किनारे करके ऊपरी तबके के लिए फिल्में बनानी शुरू कर दी", ये कहना है जालंधर के अजय भनोत का जो पंजाब और हरियाणा के 35 सिनेमा हॉल्स में ज़बर्दस्त सफलता के झंडे गाड़ने वालीं भोजपुरी फिल्मों का वितरण करते हैं। भनोत आगे बताते हैं, "ज्यादातर हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी संवाद होते हैं जिन्हें ये दर्शक समझ ही नहीं पाते हैं।" पिछली दिवाली पर लुधियाना में मनोज तिवारी की फिल्म "धरतीपुत्र" देखने के लिए मची मारामारी देखकर भनोत सकते में आ गए थे। इसने अक्षय कुमार की "गरम मसाला", संजय दत्त की "शादी नं. वन", और सलमान खान की "क्योंकि" की कुल कमाई से भी ज्यादा पैसे बटोरे थे। 

गायककलाकार मनोज तिवारी के योगदान को भोजपुरी फिल्मों की इतनी बड़ी सफलता में भुलाया नहीं जा सकता। बेहतर मनोरंजन की भूख ने 1990 में भोजपुरी लोकगीतों का एक बेहद फलता-फूलता बाज़ार तैयार कर दिया। इससे जुड़े गायकों मनोज तिवारी, दिनेश लाल यादव को खूब शोहरत मिली। उनके ऑडियो कैसेट्स की बिक्री लाखों में पहुंच गई। सदी की पहली भोजपुरी फिल्म "हमार सैंइयां" 2001 में रिलीज़ हुई। रवि किशन इसके हीरो थे और मनोज तिवारी ने इसके पांच गानों को अपनी आवाज़ दी थी। तीन साल बाद खुद मनोज तिवारी "ससुरा बड़ा पैसावाला" में हीरो बने नज़र आए। फिल्म सुपर हिट साबित हुई और छोटे बजटवाली इस फिल्म ने 2 करोड़ रूपए की कमाई की। किशन इस समय दो फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं जिसमें नायक भी वे खुद ही हैं, और जिनमें से एक का नाम है "बिहार माफिया"। 

भोजपुरी फिल्मों ने मुंबई और दिल्ली के 50 से ज्यादा सिनेमा हॉल्स को भी उनकी निश्चित मौत से बचाया है। बीग्रेड फिल्मों से सप्ताह में 80,000 रूपए कमाने वाले सिनेमाहॉल्स भोजपुरी फिल्मों से हफ्ते में औसतन तीन लाख रूपए की शानदार कमाई का आंकड़ा छूने लगे हैं। मुंबई में भोजपुरी फिल्म दिखाने वाले राजेश सिंह ने बताते हैं, "पहले तो हमें अपने स्टाफ को पैसा तक देने में दिक्कत होती थी।" इसने उन वितरकों को भी नई ज़िंदगी दी है जो मुंबई के कॉर्पोरेट डिस्ट्रीब्यूटर्स के हाथों अपना व्यापार गंवा चुके थे। भनोत आगे जोड़ते हैं, "भोजपुरी फिल्में हमारा ऑक्सीजन है।"

निश्चित रूप से भोजपुरी फिल्मों का व्यापार हिंदी फिल्मों (सालाना व्यापार 8,000 करोड़ रूपया) का एक ज़रा सा हिस्सा ही है। बिहार और उत्तर प्रदेश में 6 से 15 रूपए या फिर शहरों में अधिकतम 30 रूपए की टिकट के मद्देनजर भोजपुरी निर्माताओं को बजट पर ध्यान देने की आवश्यकता है। निर्देशक मोहनजी प्रसाद कहते हैं, "किसी फिल्म के लिए 70 लाख रूपए से ज्यादा का निवेश निस्संदेह जोखिम भरा है।" किशन इसे डेढ़ करोड़ तक पहुंचा देते है। लेकिन तिवारी मल्टीप्लेक्स दर्शकों तक पहुंचने के लिए बजट में बढ़ोत्तरी की हिमायत करते हैं। अजय देवगन के अभिनय वाली फिल्म "धरती कहे पुकार के" के निर्माता अभय सिन्हा कहते हैं, "भोजपुरी फिल्मों को मल्टीप्लेक्सों से फायदा होगा। आखिरकार दक्षिण भारतीय भी अपनी फिल्मों को देखने के लिए मल्टीप्लेक्सों का रुख करते ही हैं।"

भोजपुरी की गंगा का बहाव इतना तेज़ है कि हर कोई इसमें हाथ धोना चाहता है। आलम ये है कि तीन नए भोजपुरी चैनल जल्द ही आने वाले हैं। इनमें से एक चैनल "महुआ" ने रवि किशन को एक कार्यक्रम पेश करने के लिए भी साइन किया है। चाहे टीवी हो या फिर फिल्म, भोजपुरी में सफल होने के लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण चीज़ है इन फिल्मों की कथावस्तु। निर्देशक आनंद घटराज याद करते हैं, "शाहरुख की सुपरहिट फिल्म डरकी भोजपुरी रीमेक बुरी तरह फ्लॉप रही।" 70 के दशक की हिंदी फिल्मों के विषय इस भाषा के दर्शकों के लिए बिल्कुल मुफीद है। इन दिनों भोजपुरी फिल्म बना रहे गर्लफ्रेंड और हवश जैसी बी ग्रेड फिल्मों के सहायक निर्देशक बाबुल सोनी बताते हैं, "मैं अपने माता पिता को अपनी हिंदी फिल्में देखने के लिए कभी नहीं कह सका। लेकिन बांके बिहारी एमएलए का निर्देशन करने के बाद मैं उन्हें सिनेमा हॉल ले गया और हमने साथ में बड़ा अच्छा वक्त बिताया।"

अजित साही