पत्नकारों के वेश में पुलिस?

रविवार रात यह खबर आई और उतर गई. दिल्ली नक्सलियों को बहुत दूर की चीज समझती है. लेकिन यह खतरनाक नक्सलवादी क्या होता है? अगले दिन पता चला कि कोबाड गांधी नाम का यह शख्स झारखंड का छत्तीसगढ़ का तीर-धनुष या बंदूक उठाने वाला कोई तथाकथित खूंखार आदिवासी नहीं है. उसने दून स्कूल में पढ़ाई की है, मुंबई के सेंट जेवियर्स से कॉलेज किया है और लंदन जाकर चार्टर्ड अकाउंटेंट का कोर्स किया है. एक बड़े घर का बेटा है जो चाहता तो कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बोर्ड में होता.

पुलिस पत्नकारों के वेश में जाती है तो एक बेहद संवेदनशील पेशे को अविश्वसनीय बनाती है. लेकिन एक खतरनाक आतंकवादी को देखने में व्यस्त पत्नकारिता इस वास्तविक खतरे से बेखबर है

मंगलवार को लगभग इन्हीं शब्दों के साथ दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों में इस खतरनाक नक्सली का परिचय छपा. साथ में कुछ संस्मरणों से भीगी टिप्पणियां भी जो बताती थीं कि कोबाड कभी कितने जीवंत शख्स हुआ करते थे और ख़ास लोगों की महिफल में कैसे दिलचस्प मुहावरे उछाला करते थे. यह भी कि लंदन की ट्यूब्स में वे भारत से आए प्रोफेसरों से किस तरह क्रांति की संभावना और उसके संकट पर बात किया करते थे.

बस इतना ही. और इसके बाद देखते-देखते खतरनाक नक्सली एक रोमानी क्रांतिकारी हो गया. कोबाड गांधी तिहाड़ के अंधेरे में अपनी बीमारी के साथ छोड़ दिए गए और नक्सलवाद फिर छत्तीसगढ़ और झारखंड के जंगलों में चला आया. पता चला कि देश के गृहमंत्नी पी चिदंबरम इन राज्यों के दौरे पर हैं और नक्सलियों पर एक निर्णायक हमले की साझा योजना का जायजा ले रहे हैं. 

लेकिन असली खबर छत्तीसगढ़ या झरखंड से नहीं, बंगाल से आई. लालगढ़ में पुलिस अत्याचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष समिति बनाने वाले छत्नधर महतो को गिऱफ्तार कर लिया गया है. इस भूमिगत ख़तरनाक नक्सली की पुलिस को अरसे से तलाश थी. लेकिन पुलिस ने इसे पकड़ा कैसे? पत्नकार बनकर. किसी स्थानीय संवाददाता को पुलिसवालों ने पत्नकार के वेश में अपने भरोसे में लिया और छत्नधर महतो का इंटरव्यू करने पहुंचे. किसी भूमिगत नेता से मुलाकात का यह जाना-पहचाना तरीका है जो बाहर से गए पत्नकार अख्तियार करते हैं.

लेकिन पुलिस की इस कार्रवाई पर क्या कोई सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए? क्या यह वही तरीका नहीं है जो तालिबानी आतंकवादियों ने एक बड़े अफगान नेता अहमद शाह मसूद को मारने के लिए इस्तेमाल किया था? वे भी पत्नकार बन कर गए और उन्होंने अहमद शाह मसूद को मार डाला. 

यह एक खतरनाक चलन है जिसका विरोध होना चाहिए. पुलिस पत्नकारों के वेश में जाती है तो एक बेहद संवेदनशील पेशे को अविश्वसनीय बनाती है. लेकिन एक खतरनाक आतंकवादी को देखने में व्यस्त पत्नकारिता इस वास्तविक खतरे से बेखबर है. अखबारों में इस कार्रवाई के तौर-तरीके पर उठे छिटपुट एतराज को भूल जाएं तो किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ रहा कि संगीनें कलम की स्याही को बदनाम कर रही हैं. 

क्या इसलिए कि हमारे भीतर यह आम राय बन गई है कि नक्सलवाद देश की सबसे ख़तरनाक चुनौती है और इससे किसी भी ढंग से निबटना नाजायज नहीं है? खुद इस देश के प्रधानमंत्नी कई मौकों पर यह राय दुहरा चुके हैं. लेकिन वे यह कभी नहीं बताते कि ये नक्सलवादी कौन हैं, कहां से आए हैं, कहां से उन्हें ताकत मिलती है? निश्चित तौर पर नक्सली हिंसा समर्थन योग्य नहीं है, लेकिन अगर हिंसा को गिनती के पैमानों पर आंका जाए तो हम पाते हैं कि सबसे खौफ़नाक राज्य की मशीनरी है जो पूरे देश में सबसे ज्यादा बेगुनाहों का खून बहा रही है- कहीं उन्हें नक्सलवादी बता कर, कहीं उन्हें आतंकवादी बताकर. इशरत जहां सिर्फ गुजरात में नहीं मारी जाती, उसे झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी फर्जी मुठभेड़ का शिकार होना पड़ता है. राज्य की यह हिंसा बहस के दायरे से बाहर है, इसलिए कोई इस पर सवाल नहीं उठाता. अगर उठाता है तो नक्सलियों का हमदर्द माना जाता है.

पत्नकारिता को यह पूछने की फुरसत नहीं है. उसके पास गृहमंत्नी का दिया हुआ बयान है और पुलिस के दिए हुए आंकड़े हैं.  इन बयानों और आंकड़ों के बीच कोई कोबाड गांधी पकड़ा जाता है तो मीडिया हैरान रह जाता है, क्योंकि नक्सलवाद का ऐसा संभ्रांत चेहरा उसकी कल्पना से परे है. शायद यह बात भी कि इस जमाने में ऐसे नादान लोग भरे पड़े हैं जो अपना सुख छोड़ दूसरों की लड़ाई लड़ते हैं.

फिलहाल याद आ रही हैं धूमिल की पंक्तियां, ‘एक ही संविधान के नीचे / भूख से रिरियाती हुई / फैली हथेली का नाम दया है / और भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम / नक्सलबाड़ी है.’  क्या राहत के नाम पर बांटे जाने वाले सरकारी पैकेजों और कानून के नाम पर चल रही सरकारी हिंसा के बीच यह पंक्तियां बार-बार याद नहीं आनी चाहिए?

प्रियदर्शन

लेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं