कत्ल की राजकीय ‘अ’व्यवस्था?

7 सितंबर 2009 की शाम. गुजरात उच्च न्यायालय के अधिवक्ता मुकुल सिन्हा अपने हाथ में एक स्थानीय जज की रिपोर्ट लिए तेजी से एक पत्रकार वार्ता की ओर दौड़े जा रहे थे मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग द्वारा हाथ से लिखी गई ये रिपोर्ट उसके थोड़ी ही देर बाद समाचार चैनलों और अगले दिन अखबारों की सबसे बड़ी सुर्खी बनने जा रही थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों का 15 जून 2004 को अहमदाबाद पुलिस द्वारा किया गया एनकाउंटर सोच-समझकर किया गया एक फर्जी एनकाउंटर था.

‘हमने तब तक रिपोर्ट को पढ़ा नहीं था इसलिए जैसे ही हमने इसे गुजराती से अनुवाद करके पढ़ना शुरू किया, हम भौचक्के रह गए’ सिन्हा कहते हैं. उनके मुताबिक तीन सप्ताह में तैयार की गई रिपोर्ट ने उस सच को उघाड़ कर सामने रख दिया था जिसे वो सालों से सामने लाने का प्रयास कर रहे थे. अगले दिन गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कल्पेश झवेरी ने तमांग की रिपोर्ट पर ये सवाल उठाते हुए रोक लगा दी कि जब वे पहले से ही इशरत जहां की मां शमीमा की सीबीआई जांच की मांग वाली याचिका की सुनवाई कर रहे हैं तो इस जांच की जरूरत ही क्या थी? शमीमा ने उच्च न्यायालय के इस स्थगनादेश के खिलाफ अब देश की सर्वोच्च अदालत में गुहार लगाई है.

तमांग रिपोर्ट के निष्कर्ष 

तीन सप्ताह चली जांच से उजागर हुआ कि पांच साल पहले हुई इस मुठभेड़ की असलियत क्या थी

1- शरीर से गोली निकलने के निशान, गोली घुसने के निशान से बड़े थे, इसका मतलब है कि चारों लोगों को गोली बेहद नजदीक से मारी  गई. हालांकि गोली लगने के कुछ निशान, बाहर निकलने के निशान से बड़े भी पाए गए

निष्कर्ष: जिन लोगों को गोली मारी गई वे उस समय बैठे हुए थे. और गोली चलाने वालों ने उनके पास खड़े होकर उन्हें गोली मारी

2- पुलिस ने 70 गोलियां चलाने का दावा किया लेकिन घटनास्थल से सभी गोलियां नहीं मिलीं. पुलिस का कहना है कि उन्होंने कार   पर बाईं ओर से गोलियां चलाईं. इससे कार का बायां टायर फट गया गया. बाद में कार दाईं तरफ से डिवाइडर से टकरा गई

निष्कर्ष: पुलिस का दावा झूठा है क्योंकि बायां टायर फटने से कार बाईं ओर से ही डिवाइडर से टकराती

3- मारे गए लोगों के शरीर पर एके-56 और 9-एमएम पिस्टल की गोली के घाव थे. जबकि पुलिस इनका प्रयोग नहीं करती. बाद में यही हथियार मृतकों के पास से बरामद किए गए. मृतकों के शरीर पर बारूद के कोई अवशेष नहीं मिले

निष्कर्ष: पुलिस ने जिन हथियारों से मुठभेड़ को अंजाम दिया बाद में उन्हें ही मृतकों की कार में रख दिया

4- मृतकों की जेब से उनके पहचान पत्र बरामद किए गए. जबकि इशरत जहां का पहचान पत्र गले में लटका पाया गया था, जिसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है. मृतकों के पास कोई पैसा बरामद नहीं हुआ. कार की डिक्की से बिना ताला लगा ब्रीफकेस मिला जिसमें दो लाख रुपए थे

निष्कर्ष: पुलिस ने हत्या के बाद मृतकों के पास पहचान पत्र और ब्रीफकेस रख दिया

5- मृतकों के शव 15 जून को दोपहर 3:40 बजे पोस्टमार्टम के लिए लाए गए तब तक इनमें अकड़न शुरू हो चुकी थी. यह स्थिति मृत्यु के 12 से 24 घंटे के बीच होती है, इसका मतलब है कि मुठभेड़ सुबह 3:40 बजे से पहले हुई होगी. लेकिन पुलिस ने मुठभेड़  का वक्त सुबह 4 बजे बताया

निष्कर्ष: पुलिस ने चारों लोगों को कहीं और मारा, बाद में उन्हें घटनास्थल पर लाया गया 

तमांग रिपोर्ट पर उच्च न्यायालय द्वारा लगाई रोक ने निश्चित ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राहत पहुंचाई है. इसमें और भी इजाफा तब हुआ जब 14 सितंबर को भाजपा ने गुजरात विधानसभा की सात सीटों के उपचुनाव में पांच पर जीत हासिल कर ली. भाजपा नेता अरुण जेतली का तुरंत ही बयान आया कि इशरत जहां का साथ देना कांग्रेस को भारी पड़ गया जिसने पिछले विधानसभा चुनावों में जीतीं 3 सीटों को भाजपा के हाथों गंवा दिया था. लेकिन अहमदाबाद के रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अच्युत याग्निक जेतली के इस दावे को खारिज कर देते हैं. ‘ये दुष्प्रचार है. भाजपा ये साबित करना चाहती है कि गुजराती मध्य वर्ग और दूसरे लोग उसके साथ हैं’ वो कहते हैं, ‘सच तो ये है कि कांग्रेस अति-आत्मविश्वास और उम्मीदवारों के गलत चयन की वजह से हारी न कि तमांग रिपोर्ट के चलते मतदाताओं के भाजपा का साथ देने की वजह से.’

गुजरात पुलिस का पूर्व उपमहानिरीक्षक डीजी वंजारा 2007 से ही एक मुस्लिम व्यवसायी सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी के कत्ल की साजिश रचने के आरोप में जेल में है. राज्य में हुए ज्यादातर एनकाउंटर्स के दौरान मोदी के काफी नजदीक माने जाने वाले वंजारा, अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के मुखिया हुआ करते थे

अपने चिर-परिचित अंदाज में मोदी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी विकास के मुद्दे पर जीती है. उन्होंने इन उपचुनावों के प्रचार अभियान में बिल्कुल भी भाग नहीं लिया था इसलिए मोदी ने ये भी दावा किया कि अब उनकी पार्टी गुजरात में केवल उनपर ही निर्भर नहीं रही है. मगर प्रेक्षकों का मानना है कि लोकसभा चुनावों में हार से अपनी छवि को लगे धक्के के बाद मोदी कानूनी अड़चनों के चलते इस समय अपने राजनीतिक जीवन की सबसे तल्ख सच्चाइयों से रूबरू हैं. हाल ही में शिमला में हुई चिंतन बैठक के दौरान जब तमाम तरह के हंगामे हो रहे थे तो मोदी कहीं नजर ही नहीं आ रहे थे. उससे कुछ ही समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष जांच दल (एसआईटी) को 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुईं मुस्लिमों की हत्याओं में मोदी की भूमिका की जांच करने के आदेश दिये थे.

तमांग की रिपोर्ट ने राज्य के तमाम पुलिस अधिकारियों में भय का संचार करने का काम किया है. अपनी रिपोर्ट में तमांग ने 21 पुलिसवालों के नाम लिए हैं जिनमें अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त केआर कौशिक (जो बाद में राज्य पुलिस के महानिदेशक भी बने) और अपराध शाखा के संयुक्त आयुक्त पीपी पांडेय सहित कई बड़े पुलिस अधिकारी शामिल हैं. सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी आरबी श्रीकुमार जो कि 2002 में मुसलमानों के नरसंहार में मोदी की तथाकथित भूमिका का पर्दाफाश करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ते रहे हैं, कहते हैं कि अब इन पुलिस अधिकारियों को अपने भेद खुल जाने का डर सता रहा है. ‘कुछ पुलिस अधिकारियों ने – जिनका नाम तमांग ने अपनी रिपोर्ट में लिया है – मोदी तक अपनी ये बात पहुंचा दी है कि वे वंजारा की तरह खामोश नहीं बैठने वाले’ अपनी पहचान जाहिर न करने के अनुरोध के साथ एक सूत्र का कहना था, ‘उनका कहना है कि यदि अदालत उन्हें दोषी ठहराती है तो वे ये बताने में जरा भी नहीं हिचकेंगे कि निर्दोष मुसलमानों का कत्ल राज्य की एक अघोषित नीति रही है.’

गुजरात पुलिस का पूर्व उपमहानिरीक्षक डीजी वंजारा 2007 से ही एक मुस्लिम व्यवसायी सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी के कत्ल की साजिश रचने के आरोप में जेल में है. राज्य में हुए ज्यादातर एनकाउंटर्स के दौरान मोदी के काफी नजदीक माने जाने वाले वंजारा, अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के मुखिया हुआ करते थे. तमांग ने इशरत जहां के एनकाउंटर के साजिशकर्ताओं में वंजारा का भी नाम लिया है.

जहां तमांग की रिपोर्ट में क्या है वो आज पूरी दुनिया को पता है वहीं इसके पीछे की कहानी क्या है ये कम ही लोगों को पता है. तमांग की रिपोर्ट के सार्वजनिक हो जाने के बाद गुजरात सरकार के प्रवक्ता जयनारायण व्यास ने मजिस्ट्रेट की कड़ी आलोचना की – जिसे अदालत की अवमानना के दायरे में भी रखा जा सकता है क्योंकि तमांग एक न्यायिक अधिकारी हैं – और मुठभेड़ को सही करार दिया. उनका ये भी कहना था कि जब उच्च न्यायालय के आदेश पर पहले से ही एक उच्च स्तरीय जांच चल रही है तो एक मजिस्ट्रेट इस मामले की जांच कैसे कर सकता है. गुजरात सरकार का अदालत में ये भी कहना था कि वो ये नहीं जानती कि इस जांच का आदेश किसने दिया था.

सच ये है कि ये गुजरात सरकार ही थी जिसने अहमदाबाद के चीफ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (सीएमएम) डीएम पटेल को न्यायिक जांच की रफ्तार बढ़ाने का निर्देश दिया था. ‘12 अगस्त को गृह मंत्रालय से किसी अधिकारी का फोन आया था’ कोर्ट का एक कर्मचारी हमें बताता है, ‘उसी दिन सीएमएम नें तमांग को ये जांच सौंप दी.’ पटेल ने तत्काल ही मामले से संबंधित सभी काग़जात तमांग को तुरंत कार्रवाई करने के निर्देश के साथ सौंप दिए. उल्लेखनीय ये भी है कि तमांग रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के दो दिन बाद ही पटेल को स्थानांतरित कर दिया गया. तो गुजरात सरकार ने मुठभेड़ के पांच साल बाद इसकी जांच कराने का मन कैसे बना लिया. दरअसल शमीमा ने गुजरात उच्च न्यायालय में इशरत जहां मामले की सीबीआई जांच को लेकर एक याचिका दायर की हुई थी जिस पर 26 जून को न्यायमूर्ति झवेरी ने सीबीआई को इस मामले में एक पार्टी बनाने का आदेश दिया था. इससे डरे मुठभेड़ में भूमिका निभाने वाले पुलिस अधिकारियों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. इसके बाद दो तरह की रणनीतियां अपनायीं गईं.

एसआईटी का काम अब और ज्यादा मुश्किल हो चुका है. मुठभेड़ को जायज ठहराने के लिए इसे तमांग रिपोर्ट की बखिया उधेड़ने की जरूरत होगी जो कि मुठभेड़ की तमाम परतों को फॉरेंसिक सबूतों की रोशनी में उघाड़ती हैपहली रणनीति केंद्रीय गृह मंत्रालय पर उच्च न्यायालय को ये बताने के लिए दबाव डालने की थी कि एनकाउंटर सही था. जानकारी के मुताबिक पुलिस अधिकारियों द्वारा इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) के एक उच्च पदस्थ अधिकारी राजेंद्र कुमार से संपर्क साधा गया जो कि 2004 में एनकाउंटर के वक्त गुजरात में आईबी के संयुक्त निदेशक हुआ करते थे. मानवाधिकारकर्ता शबनम हाशमी के मुताबिक वो काफी पहले ही केंद्र सरकार को राजेंद्र कुमार के मोदी तथा वंजारा से संबंधों को लेकर चेता चुकी हैं. राजेंद्र कुमार की निगरानी में ही आईबी ने लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों के गुजरात में मोदी को लक्ष्य बनाने के लिए आने से संबंधित विवादित खुफिया ‘इनपुट’ भेजी थी. सूत्रों के मुताबिक इस बार भी राजेंद्र कुमार ने ही गृह मंत्रालय को उच्च न्यायालय में हलफनामा दायर करने के लिए तैयार किया.

इस दौरान उच्च न्यायालय में ये मामला बड़ी तेजी से आगे बढ़ा रहा था और न्यायमूर्ति झवेरी 12 अगस्त को मामले की सुनवाई करने वाले थे. मगर इससे पहले ही केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार और पुलिस के दावे को समर्थन करने वाला हलफनामा अदालत में पेश कर दिया जिसमें मुठभेड़ को सही बताने के साथ ही सीबीआई जांच को गैरजरूरी बताया गया था. सूत्र बताते हैं कि अहमदाबाद में केंद्र सरकार के वकील असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल पीएस चंपानेरी ने पहले-पहल इस हलफनामे का साथ देने में असमर्थता जाहिर की थी क्योंकि उन्होंने पिछली एक सुनवाई के दौरान अदालत से कहा था कि केंद्र सरकार इस मामले में सीबीआई जांच कराने की इच्छुक है.

दूसरी रणनीति मुठभेड़ से संबंधित सभी लंबित पड़ी जांचों को तेजी से पूरा करके अदालत के जेहन में ये बिठाना था कि राज्य सरकार इस मामले में अपनी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन कर रही है. 2004 में मुठभेड़ की मजिस्ट्रीरियल जांच के आदेश भी दिए गए थे जो कभी पूरी नहीं हुई थी. उस समय जांच अहमदाबाद के एसडीएम गौरव प्रजापति कर रहे थे जो कि न्यायिक अधिकारी न होकर राज्य सरकार के अधीन काम करने वाले अधिकारी थे. बाद में 2006 में भारतीय अपराध संहिता में संशोधन के बाद ये जांच न्यायिक अधिकारी के अधिकार क्षेत्र में आ गई. इसके बाद तीन साल तक किसी को इस जांच का कोई अता-पता तक नहीं था. 12 अगस्त को जब झवेरी मामले की सुनवाई करने वाले थे ठीक उसी दिन इस जांच को पुनर्जीवित कर तमांग को सौंप दिया गया.

जस्टिस झवेरी ने मामले की सुनवाई 12 की बजाय 13 अगस्त को की और बिना देर किए तीन आला पुलिस अधिकारियों के एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का फैसला सुना दिया. एसआईटी को अपनी जांच रिपोर्ट 30 नवंबर से पहले देनी थी. इस दौरान राज्य सरकार ने न तो उच्च न्यायालय को मजिस्ट्रीरियल जांच के बारे में ही कुछ बताया और न ही तमांग की रिपोर्ट और सीबीआई जांच की मांग की तरह एसआईटी के गठन का ही जरा भी विरोध किया. क्या ये इसलिए था क्योंकि जस्टिस झवेरी ने राज्य के महाधिवक्ता द्वारा सुझए पुलिस अधिकारियों में से ही तीन को चुन लिया था? अगर गुजरात सरकार को लगता था कि एनकाउंटर फर्जी नहीं तो उसने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में गुहार क्यों नहीं लगाई.

एक महीना से ज्यादा हो चुका है मगर उचित आदेशों के अभाव में एसआईटी अभी तक अपना काम शुरू तक नहीं कर पाई है. वैसे इसमें भी कोई शक नहीं कि एसआईटी का काम अब और ज्यादा मुश्किल हो चुका है. मुठभेड़ को जायज ठहराने के लिए इसे तमांग रिपोर्ट की बखिया उधेड़ने की जरूरत होगी जो कि मुठभेड़ की तमाम परतों को फॉरेंसिक सबूतों की रोशनी में उघाड़ती है.

‘अगर तमांग रिपोर्ट न होती तो एसआईटी आसानी से खुफिया जानकारियों की बिना पर एनकाउंटर को असल करार दे देती’ , मामले से जुड़े एक वकील कहते हैं, ‘लेकिन अब एसआईटी को तमांग द्वारा सामने लाए फॉरेंसिक जांच के बिंदुओं में झोल तलाशने होंगे.’ मगर यदि एसआईटी तमांग की रिपोर्ट को सही करार दे देती है – कि 21 पुलिस वालों ने  तसल्ली से सोच-विचार कर इशरत जहां और तीन अन्य लोगों के कत्ल की साजिश रची थी तो ये नरेंद्र मोदी के लिए एक बहुत बड़ी परेशानी का सबब बन सकता है क्योंकि ये सोहराबुद्दीन के बाद दूसरा ऐसा मामला होगा.

तब ये सवाल खुलकर गुजरात सरकार के सामने खड़ा हो सकता है कि क्या मुसलमानों के फर्जी एनकाउंटर मोदी के गुजरात की अघोषित नीति रहे हैं? अप्रैल-सितंबर 2002 में गुजरात के मुखिया रहे आरबी श्रीकुमार के मुताबिक गुजरात के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक के चक्रवर्ती ने एक मई 2002 को फोन करके उनसे कहा था कि ‘सुब्बाराव (तत्कालीन मुख्य सचिव) ने उनसे कहा है कि कुछ मुसलमान खत्म किए जाने चाहिए’. ‘मैंने सुब्बाराव से कहा कि यदि कोई एनकाउंटर होता है तो मैं उसकी जांच करूंगा और यदि वो एनकाउंटर फर्जी होगा तो मैं अपने सहयोगियों के खिलाफ कार्रवाई करूंगा’ श्रीकुमार कहते हैं कि उन्होंने ऐसी तमाम छोटी-छोटी बातें एक डायरी में लिखना शुरू कर दीं और बाद में उसे एक सुरक्षित स्थान पर रख दिया है. श्रीकुमार को सितंबर में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और अगले ही महीने इस तरह के एनकाउंटर की राज्य में पहली घटना हुई. अगले चार सालों में राज्य की अपराध शाखा ने करीब 17 कथित आतंकवादियों को मार गिराया. ज्यादातर मामलों में दावा किया गया कि आतंकवादी या तो मोदी या आडवाणी या फिर वीएचपी नेता प्रवीन तोगड़िया की हत्या करने के लिए राज्य में आए थे. इन एनकाउंटरों की बाढ़ तब जाकर रुकी जब वंजारा और कुछ दूसरे पुलिस अधिकारियों को सोहराबुद्दीन फर्जी मठभेड़ के मामले में गिरफ्तार कर लिया.