आपने अखबारों में सादगी पर बहस पढ़ी होगी. और यह भी देखा होगा कि अंग्रेजीवाले तो उसे पाखंड बता कर खारिज कर रहे हैं लेकिन हिंदी वालों का सुर यह है कि सादगी होनी चाहिए पर वह दिखनौटी नहीं होनी चाहिए. क्या हिंदी वालों के पास ऐसे बौद्धिक औजार नहीं हैं जिनसे वे कांग्रेस और उसकी सरकार के चलाए जा रहे सादगी के अभियान के आर-पार देख सकें ? या वे स्वभाव से भोले और विश्वासी हैं और नेता लोग और सत्तारूढ़ पार्टियां जो करती या दिखाती हैं उसमें सहज ही भरोसा कर लेते हैं. अंग्रेजी वाले राजनीति के प्रति एक असम्मान का रवैया रखते हैं और नेताओं और पार्टियों के करने धरने को चीड़-फाड़ कर के जांचते और उसमें बंडलबाजी पाते हैं तो बिना लागलपेट के साफ साफ कहते हैं. इसलिए सादगी के अभियान के प्रति बहस में यह फर्क साफ साफ दिखाई देता है.
आप शाही अंदाज में खर्च करने के आदी भी हों तो भी यह कैसे भुलाया जा सकता है कि आप जनता के प्रतिनिधि हैं और यह जनता पांच सितारा क्या मामूली झोंपड़ी में भी नही रहती. आप उसके प्रतिनिधि हैं तो आपको कुछ तो उसकी हालत का सम्मान करना चाहिए
सोनिया गांधी की तरफ से सादगी के अभियान की बात मानसून में गड़बड़ी और इस कारण कई इलाकों में सूखे की स्थिति पर विचार के बाद कांग्रेस की तरफ से आई. कांग्रेसी सांसदों, विधायकों और कार्यकर्ताओं को फिजूलखर्ची से बचने और अपने वेतन भत्तों में से कुछ न कुछ देने की बात हुई. सबसे ठाठ का जीवन मंत्री लोग जीते हैं, इसलिए उनके बर्ताव और रवैये पर स्वाभाविक ही सादगी के अभियान का सबसे ज्यादा ध्यान था. तभी इंडियन एक्सप्रेस में खबर आई कि विदेश मंत्री एसएम कृष्णा और विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर मई में मंत्री बनने के बाद से पांच सितारा होटलों में रह रहे हैं क्योंकि उन्हें जो सरकारी आवास दिया गया है वह अभी रहने के लायक नहीं है.
सब जानते हैं कि मंत्री बनने के बाद सांसद अपने को मिले आवास में अपनी पसंदगी से कई फेरबदल करवाते हैं. अपने दफ्तरों को भी वे अपनी मर्जी और शौक के मुताबिक बार-बार बनवाते हैं. इनमें निजी पसंदगी से लेकर अपने अपने ज्योतिष और वास्तुशास्त्री का भी कहा बताया चलता है और केंद्रीय लोक निर्माण विभाग को इन सब बातों को एडजस्ट करना पड़ता है. इसमें लाखों बल्कि कुल मिलाकर करोड़ों का खर्च होता है. मंत्री पहले से चले आ रहे बंगलों और दफ्तरों में फिट नहीं होना चाहते. वे उन्हें अपने मुताबिक करना चाहते हैं. शायद अपने निजी निवासों और कार्यालयों पर वे उतने दिल खोल कर खर्चे नहीं करते जितने सरकारी आवासों पर करवा लेते हैं. इसे वे अपने मंत्री होने का विशेषाधिकार मानते हैं. सार्वजनिक धन के प्रति उनका यह रवैया और दूसरी चीजों और जगहों पर भी खुल कर प्रकट होता है.
इसे देखते समझते हुए विदेश मंत्री कृष्णा और उनके सहायक शशि थरूर का पांच सितारा होटलों में रहना कोई बड़ी बात नहीं थी. लेकिन सवाल यह है और सही है कि जब आपकी पार्टी और सरकार सादगी का अभियान चला रही हो तब आप मंत्री की हैसियत से पांच सितारा होटलों के सूट में कैसे रह सकते हैं? मंत्रियों की तरफ से कहलवाया गया कि हम तो वहां अपने निजी खर्च से रह रहे हैं सार्वजनिक फंड से नहीं. बाद में यह दावा गलत निकला क्योंकि मंत्री कोशिश कर रहे थे कि उनके रहने का खर्च सरकार उठाए. पर मान लीजिए कि आपके पास पांच सितारा होटलों में महीनों तक रहने के पैसे हों भी और आप शाही अंदाज में खर्च करने के आदी भी हों तो भी यह कैसे भुलाया जा सकता है कि आप जनता के प्रतिनिधि हैं और यह जनता पांच सितारा क्या मामूली झोंपड़ी में भी नही रहती. आप उसके प्रतिनिधि हैं तो आपको कुछ तो उसकी हालत का सम्मान करना चाहिए.
हमारा अंग्रेजी मीडिया को यह चिंता थोड़े है कि इस देश के अस्सी प्रतिशत से ज्यादा लोग दो जून दाल-रोटी भी नहीं पा सकते. उनके लिए निर्बाध उपभोग का तो कोई मतलब ही नहीं है
इंडियन एक्सप्रेस की खबर पक्की थी और निश्चित ही सरकारी सूत्रों से मिली होगी. इसके बाद वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इन मंत्रियों को सलाह दी और वे पांच सितारा होटल छोड़ने पर लोकमत के कारण मजबूर हुए. तभी अंग्रेजी अखबारों और टीवी चैनलों को बुरा लगा कि एक अखबार की खबर के कारण इन मंत्रियों को डांट पड़ी और अपमानित होना पड़ा. लेकिन अगर आप अफोर्ड कर सकते हैं और वैसी जीवन शैली के आदी हैं तो आपको क्यों नहीं पांच सितारा होटलों में रहना चाहिए. आखिर जो सरकारी आवास और सुविधाएं मंत्रियों और सांसदों को मिलती हैं उन सब को बाजार के व्यापारिक दामों से आंका जाए तो वे पांच सितारा रहन-सहन से भी महंगी पड़ेंगी. लुटियन की दिल्ली के घरों में रहना और सुविधाएं भोगना कोई सादगी में जीना नहीं है. इसलिए मंत्रियों को पांच सितारा होटलों से निकलवाना और सादगी का आग्रह करना पाखंड है. मंत्री के नाते काम करने और रहने के लिए जो भी जरूरी हो उसे मान लेना चाहिए और सादगी की झूठी कसौटियां नहीं लगानी चाहिए.
इस बहस में वे सरोजिनी नायडू की वह प्रसिद्ध टिप्पणी भी लेकर आए कि गांधीजी को गरीबी और सादगी में रखने के लिए व्यवस्था को कितना खर्च करना पड़ता है. शशि थरूर ने ट्वीटर पर इकॉनामी क्लास को कैटल क्लास और सोनिया गांधी और राहुल गांधी को होली काउज कह दिया. उनसे कांग्रेसियों ने इस्तीफा मांगा और सोनिया गांधी ने नसीहत दे कर माफ कर दिया. देश में सार्वजनिक जीवन में सादगी और पारदर्शिता और जवाबदेही के नाते महात्मा गांधी आदर्श कायम कर चुके हैं. उन्हीं को इस बहस में पाखंडी बताने की कोशिश की गई. और कहते हैं कि ट्वीटर पर थरूर को लाखों लोगों ने अच्छा मजाक करने वाला कहा और माना कि राजनीति में ऐसे लोग होने चाहिए.
सवाल यह है कि इस देश में विमान की इकॉनामी क्लास में भी कितने लोग यात्रा कर पाते हैं जो उसकी भीड़ को केरल से निर्वाचित एक सांसद ने कैटल क्लास कह दिया. और अगर वह मवेशी की तरह यात्रा करना है तो हमारी रेलगाड़ियों और बसों में जो ठूसमठूस होती है उसे तो आप कीड़े-मकोडों से भी बदतर बता देंगे. और अगर इस देश के आम लोग कीड़े-मकोड़े और मवेशी हैं तो आप उनके कैसे तीस मार खां प्रतिनिधि हो गए जो पांच सितारा होटल के बिना रह नहीं सकते और जो विमान में खूब जगह में सुख-सुविधाओं के साथ यात्रा करें तभी यात्रा पर जाएंगे. एक गरीब देश के आप कैसे राजशाही प्रतिनिधि हो सकते हैं? यह लोकतंत्र है या राजतंत्र?
लेकिन आप देखिए कि इस देश के अंग्रेजी मीडिया में बहस यह नहीं है कि सूखे और मंदी के जमाने में सादगी से रहना चाहिए या नहीं? भारत जैसे गरीब लोकतंत्र के प्रतिनिधि राजकीय ठाठ और विलासिता में कैसे रह सकते हैं? भारत जैसे देश में जहां चौरासी करोड़ लोगों को छह से बीस रुपए रोज भी नहीं मिलते आप अमेरिकी या यूरोपीय जीवन-शैली कैसे अपना सकते हैं? भारत में सच्चा जीवन तो सादगी का जीवन ही हो सकता है. अगर सूखे और मंदी के साल में मंत्रियों और सरकार से आप सादगी की उम्मीद करें तो यह पाखंड कैसे हो सकता है?
अंग्रेजी मीडिया इसे नहीं मानता. उसका आग्रह है कि सादगी अपने आप में कोई सार्वजनिक मूल्य नहीं हो सकता. सरकार का काम चलाने और मंत्रियों की जिम्मेदारियों को देखते हुए उन्हें वे तमाम सुविधाएं दी जानी चाहिए जो उनके काम और दक्षता के लिए जरूरी हैं. ऐसी ही सुख-सुविधाएं वे उद्योगपतियों, व्यापारियों और नौकरशाहों के लिए भी जरूरी मानते हैं. सादगी को वे पाखंड कहते हैं क्योंकि सभी क्षेत्रों में राज करने वाले लोगों को सुख-सुविधाओं के बिना वे सक्षम और स्मार्ट नहीं मानते. सक्षमता और स्मार्टनेस वे उपभोग के स्तर से तय करते हैं. आखिर विकसित देश अपना जीवन स्तर उपभोग के अपने स्तर से निश्चित करते हैं. हमारा अंग्रेजी मीडिया उस बाजार का एजंट है जो उपभोग को लगातार बढ़ाते जाने को ही बेहतर अर्थव्यवस्था और बेहतर जीवन मानता है. उसे यह चिंता थोड़े है कि इस देश के अस्सी प्रतिशत से ज्यादा लोग दो जून दाल-रोटी भी नहीं पा सकते. उनके लिए निर्बाध उपभोग का तो कोई मतलब ही नहीं है.
भारत का उपभोगी मध्यवर्ग अमेरिका की कुल आबादी से भी बड़ा है. इन्हीं का उपभोग वह बाजार है जिस पर अमेरिका समेत सभी विकसित देशों की आंखें टिकी हैं. इस मध्यवर्ग ने भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया के अमीरों के साथ अपना भूमंडलीकरण किया है. पहले इसकी राष्ट्रीय चेतना हुआ करती थी जिसने हमारे महान नेता पैदा किए. अब यह इस गरीब देश को दमघोटू बोझ मानता है. उपभोग में कटौती इसे पसंद नहीं. अगर नेता सादगी में रह कर थोड़े में गुजारा करें तो लोकमत निर्बाध उपभोग के खिलाफ जाएगा और खाते-पीते मध्यवर्ग की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी. इसलिए सादगी पाखंड है. भ्रष्ट उपभोगी नेता इस वर्ग को चाहिए. गरीब हिंदीवालों को नहीं. समझे कि नहीं आप?’
प्रभाष जोशी