पोखरण: एक अनावश्यक विवाद

संथानम न तो पश्चिमी विश्लेषकों की राय को नकारने वाले परमाणु आयोग के जवाब के बिंदुओं पर ही कुछ कह रहे हैं और न ही परीक्षण से संबंधित डीआरडीओ के किन्हीं आंकड़ों को ही अपनी बात के समर्थन में रख रहे हैं 

कुछ ही दिन हुए हैं डीआरडीओ के एक पूर्व अधिकारी के संथानम – जो कि मई 1998 में पोखरण में किये गए शक्ति श्रंखला के परमाणु परीक्षणों से करीब से जुड़े हुए थे – का ये बयान आया कि उस समय किया गया सबसे महत्वपूर्ण थर्मोन्यूक्लियर या हाइड्रोजन बम परीक्षण बुरी तरह असफल रहा था और इसलिए भारत को सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने के बारे में अभी सोचना तक नहीं चाहिए.

वो अकेले नहीं हैं जिन्होंने भारत के पोखरण-2 परीक्षणों पर सवाल खड़े किये हैं. परीक्षणों के तुरंत बाद ही तमाम पश्चिमी विश्लेषक भी ऐसा ही कर चुके हैं. मगर ये भी उतना ही सच है कि परमाणु ऊर्जा आयोग के वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने यथासंभव उन विश्लेषकों की आलोचनाओं के जवाब भी दे दिये थे. अब संथानम न तो पश्चिमी विश्लेषकों की राय को नकारने वाले परमाणु आयोग के जवाब के बिंदुओं पर ही कुछ कह रहे हैं और न ही परीक्षण से संबंधित डीआरडीओ के किन्हीं आंकड़ों को ही अपनी बात के समर्थन में रख रहे हैं. वे तो बस पश्चिमी विशेषज्ञों की राय का हवाला देते हुए परीक्षणों को असफल बताए जा रहे हैं.

चूंकि भारत का जरूरी परमाणु क्षमता होने का दावा, उसका परमाणु परीक्षणों पर लगाया गया एकतरफा प्रतिबंध और सीटीबीटी को लेकर पड़ रहे चौतरफा दबाव पर उसकी प्रतिक्रिया, ये सारी चीजों इसी बात पर निर्भर करती हैं कि पोखरण-2 परीक्षण पूरी तरह सफल थे या नहीं, इसलिए इन परीक्षणों पर खुले दिमाग से विचार किया जाना जरूरी है.

थोड़ा विज्ञान को समझने की कोशिश करें तो भारतीय परीक्षणों पर पश्चिमी वैज्ञानिकों की राय इनसे पैदा हुई भूगर्भीय तरंगों की माप पर आधारित थी. इन तरंगों को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में स्थित भूकंप-मापी केंद्रों द्वारा मापा गया था. इसके अलावा विश्लेषकों का ये भी तर्क था कि चूंकि 1974 में हुए पोखरण-1 से पोखरण-2 की अपेक्षा ज्यादा बड़ा गड्ढा हुआ था इसलिए भी पोखरण-2 पूर्णतया सफल होने के भारतीय दावे सही नहीं हैं.

भारतीय वैज्ञानिकों का कहना है कि 11 मई को किये गए तीन परीक्षणों में से दो एक साथ एक-दूसरे से मात्र एक किमी की दूरी पर किए गए थे. चूंकि दोनों परीक्षणों से पैदा हुई तरंगों के बीच कई तरह की क्रियाएं हुई होंगीं इसलिए विभिन्न केंद्रों द्वारा की गईं इन तरंगों की माप का गलत होना स्वाभाविक है. दूसरा इन तरंगों की माप से परमाणु विस्फोट की क्षमता का आकलन करते समय विश्लेषकों ने पोखरण के बारे में ज्यादा जानकारी न होने की स्थिति में दूसरे परमाणु परीक्षण स्थलों के आंकड़ों का इस्तेमाल किया. इसके अलावा पोखरण-2 से ज्यादा बड़ा गड्ढा न होने की वजह ये थी कि इसमें विस्फोट जमीन से 230 मीटर नीचे ग्रेनाइट की चट्टानों के बीच किया गया था जबकि पोखरण-1 में गहराई मात्र 107 मीटर ही थी.

अमेरिका भी सही क्षमता आंकने के लिए परीक्षण स्थल पर परमाणु परीक्षण के बाद किये गए परीक्षणों पर ही भरोसा करता है मगर पोखरण-2 के बारे में ऐसे परीक्षण केवल परमाणु आयोग ही कर सकता था, संथानम या पश्चिमी विश्लेषक नहीं. तो फिर क्यों न हम अपने प्रधानमंत्री, और कलाम, चिदंबरम जैसे योग्य वैज्ञानिकों की राय से इत्तेफाक रखें.

संजय दुबे