5 दिसंबर 1992 को मैं आडवाणी की रैली कवर करने के लिए लखनऊ में था. रात को भाषण के बाद जब पत्रकारों की भीड़ छंटने लगी थी तो मैं न जाने क्या सोचकर वहीं रुक गया. आडवाणी के पीछे-पीछे चलते हुए मैं सीधे कल्याण सिंह के घर जा पहुंचा. वहां अटल बिहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी सहित भाजपा के तमाम बड़े नेताओं की बैठक हो रही थी. माहौल काफी तनाव भरा था.
‘अब बहुत हो चुका उन्हें नीचे उतारें.’ लेकिन दूसरे नेता इतने से ही संतुष्ट नहीं थे. जैसे ही पहले गुम्बद में दरार पड़नी शुरू हुई उमा भारती, साध्वी तंभरा और सिंधिया ने नारा लगाया –‘एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो’
आधी रात को जब आडवाणी बाहर निकलने लगे तो मैंने उनसे यूं ही पूछ लिया, ‘कल अयोध्या के लिए कब निकलेंगे.’ उन्होंने जवाब दिया, ‘अभी’. अचानक ही वाजपेयी भी बाहर आए और दिल्ली के लिए रवाना हो गए. मैंने अपने सहयोगी रिपोर्टर को फोन किया और हम भी अयोध्या की तरफ निकल पड़े.
अयोध्या में जब आडवाणी महंत परमहंस के आश्रम से निकले तो मैं उनके पीछे हो लिया. तमाम भाजपा और विहिप नेताओं के साथ वो उस मंच पर आ गए जो कि विवादित ढांचे के ठीक सामने ही बना था. मैं इस समय भी उनके पीछे था. संघ और भाजपा के तमाम दूसरे नेता भी वहीं मौजूद थे. उन्हें लगा होगा कि शायद मैं विहिप का फोटोग्राफर हूं इसलिए मुझे मंच से नहीं हटाया गया. ज्यादातर दूसरे फोटोग्राफर पूजा के लिए बने शामियाने में थे. पूजा और नेताओं के भाषण शुरू हो गए थे. 11.30 बजे के करीब लोग गुम्बद पर चढ़ने लगे. फोटोग्राफरों ने उनके चित्र लेने शुरू किए तो कारसेवक उन पर टूट पड़े. उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया गया और जिसने भी विरोध किया उसे पीटा भी गया.
लेंस के जरिए मैंने देखा कि हाथों में लोहे की रॉड लिए लोग एक गुम्बद को तोड़ रहे थे. मैंने मुड़ के देखा तो आडवाणी और शेषाद्री के चेहरों पर परेशानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. मगर मंच पर मौजूद दूसरे काफी नेता खुश लग रहे थे. ऐसा लगा कि आडवाणी विहिप नेताओं को ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि, ‘अब बहुत हो चुका उन्हें नीचे उतारें.’ लेकिन दूसरे नेता इतने से ही संतुष्ट नहीं थे. जैसे ही पहले गुम्बद में दरार पड़नी शुरू हुई उमा भारती, साध्वी तंभरा और सिंधिया ने नारा लगाया –‘एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो’.
इसी समय मुझे खबर मिली कि बाकी फोटोग्राफरों की पिटाई हुई है. मुझे अहसास हुआ कि मैं सिर्फ अकेला फोटोग्राफर हूं जो गुंबदों के गिरने की तस्वीरें खींच सकता हूं. मैंने आडवाणी को प्रमोद महाजन से ये कहते हुए सुना, ‘जाओ देखो वहां क्या हो रहा है.’ आडवाणी एक बार भी मंच से हटे नहीं जबकि दूसरे नेता आते-जाते रहे. महाजन के वापस लौटने पर मैंने उन्हें ये कहते सुना – ‘कुछ नहीं किया जा सकता. उन्होंने पीछे से रस्से बांध दिए हैं. वो गुम्बद को गिरा देंगे.’
चूंकि मैंने पूरे दिन से कुछ खाया-पिया नहीं था इसलिए मुझे याद है एक कुर्सी पर बैठे-बैठे अचानक ही मेरा सिर एक ओर ढुलक गया था. तभी एक स्वामीजी मेरे पास आए और पूछने लगे ‘तुम्हारा सिर क्यों झुका हुआ है? क्या तुम खुश नहीं हो?’ शाम 4.30 बजे तक दो गुम्बद धराशायी हो चुके थे. मैंने इनकी तस्वीरें ले ली थीं. शुरुआत में काफी अफरा-तफरी थी लेकिन जैसे-जैसे दिन चढ़ा
तोड़-फोड़ में भी कुछ व्यवस्था बनने लगी थी. इस बीच कुछ फोटोग्राफर भागकर मंच पर आ पहुंचे. उनमें से एक से मैंने लंबा वाला लेंस उधार मांग लिया. उसका कैमरा टूट गया था. मैंने आखिरी गुम्बद को झुकते हुए देखा, कुछ पलों तक वो झुका रहा और फिर जमीन से जा मिला. आखिरी गुम्बद का झुकते हुए कुछ देर के लिए रुकना और फिर भरभराकर गिर जाना, आज भी मेरे जेहन में ताजा है. मंच पर उल्लास का माहौल था. जल्द ही मुझे शहर के छोर पर धुआं दिखाई दिया. एक संत माइक पर चिल्लाए, ‘इन मुसलमानों को देखो, हमें बदनाम करने के लिए ये अपना घर खुद फूंक रहे हैं.’ बस कारसेवक उन्मत और अनियंत्रित हो गए.
जब मैं मंच से नीचे उतरा तो सड़कों पर चारों तरफ लकड़ी के लट्ठे और आग दिखाई दे रही थी. लोग हाथों में लाठियां और रॉड लहरा रहे थे. 7.30 बजे तक ज्यादातर पत्रकार वहां से जा चुके थे. मैं भी एक कार की व्यवस्था करके फैजाबाद लौट गया. अगले दिन जब मैं फिर से घटना के बाद के चित्र खींचने के लिए अयोध्या लौटा तो मैंने पाया कि वो टीला जहां मस्जिद खड़ी थी अब गुलाबी रंग की पट्टी से ढका हुआ था. वहां अस्थायी मंदिर बनना शुरू हो गया था.
आज 17 सालों बाद भी जो चीज मेरे मन में अमिट है वो गुम्बदों का एक के बाद एक गिरना नहीं बल्कि उस संत के शब्द हैं जो उसने मुसलमानों के घरों से उठते धुंए को देखकर कहे थे. मैं आज भी सोचता हूं कि आखिर आडवाणी को उस माइक्रोफोन तक जाने से किसने रोका था? शायद उस समय उनकी एक अपील कई जानें बचा सकती थी.
प्रशांत पंजियार
जाने-माने फोटोग्राफर प्रशांत पंजियार कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से संबद्ध हैं