24 घंटे किसी मुद्दे की तलाश में लगे टीवी चैनलों के हाथों जैसे बैठे-बिठाए एक खजाना लग गया है. बीजेपी ने पिछले छह साल में इतने ब्रेकिंग न्यूज नहीं दिए जितने बीते एक महीने में दे चुकी है. सबसे पहले जसवंत के जिन्ना प्रेम की पट्टी लहराई- इस सवाल के साथ कि जिन्ना पर किताब लिखने के बाद क्या जसवंत का वही हाल होगा जो आडवाणी का हुआ था. सबको लग रहा था, शायद ऐसा न हो, क्योंकि जसवंत की आडवाणी जैसी हैसियत नहीं है, फिर जसवंत ने आडवाणी की तरह इस मुद्दे पर पार्टी में किसी बहस की मांग तक नहीं की.
इतने बड़े-बड़े धमाकों के बीच सुधींद्र कुलकर्णी, वसुंधरा राजे और भुवनचंद्र खंडूड़ी छोटे पटाखे साबित होकर रह गए. जब दिमाग में कैंसर का अंदेशा हो तो हाथ के फोड़े पर कौन ध्यान दे
लेकिन बीजेपी चौंकाने पर जुटी थी. शिमला की चिंतन बैठक की पहली ही सुबह लहराई दूसरी पट्टी- जसवंत सिंह पार्टी से निकाले गए. इसके बाद का ड्रामा जसवंत सिंह का रहा– याद दिलाते हुए और अफसोस जताते हुए कि बीजेपी ने तो उनकी किताब पढ़ी तक नहीं और उन्हें बाहर कर दिया. अगला दिन बीजेपी की साफ-सफाई में गुजरा- पार्टी की मूल विचारधारा से समझौता नहीं हो सकता. इस बीच पार्टी जसवंत का एक और गुनाह निकाल चुकी थी- पटेल की आलोचना का. जसवंत ने ही याद दिलाया कि सरदार पटेल ने तो संघ को प्रतिबंधित किया था.
लेकिन बीजेपी के लिए निरुत्तर कर देने वाले प्रश्न बचे हुए थे. अगले दिन संघ के पुराने नेता एचवी शेषाद्रि की किताब सामने आ गई जो कई साल से गुजरात में संघ से जुड़ी दुकान पर बिकती रही है. पटेल की लगभग वही आलोचना वहां है जैसी जसवंत सिंह की किताब में है. जैसे यह काफी न हो, पुराने सरसंघचालक केएस सुदशर्न इतिहास की गली में उतर गए और जिन्ना, नेहरू, पटेल और गांधी को भी साथ लिए टीवी चैनलों पर प्रगट हुए. इतिहास ने सुदशर्न को बताया था कि जिन्ना राष्ट्रवादी थे जो पटेल और नेहरू की अनदेखी से भटक गए. यही नहीं, उनके मुताबिक विभाजन के असली जिम्मेदार तो गांधी जी थे जो नेहरू की वजह से कमजोर पड़ गए. जो लोग कम पढ़ते हैं, वे जब इतिहास पढ़ते हैं तो क्या होता है, इसकी मिसाल बीजेपी और संघ परिवार है. इन सबके बीच एक पढ़ने वाले ने अपने गुस्से का इजहार किया. अरुण शौरी ने जो उपमाएं दे डालीं वे राजनाथ को ठीक से समझ में भी नहीं आई होंगी. हंप्टी-डंप्टी और एलिस इन ब्लंडरलैंड का मतलब ठीक से समझ पाते तो शायद अरुण शौरी के ख़िलाफ भी कार्रवाई कर डालते. बात यहीं नहीं रुकी. हल्ले के सबसे बड़े शिकार आडवाणी हो गए. पता चला कि कांधार मामले पर झूठ बोला था और 2002 के दंगों के बावजूद गुजरात में मोदी का बचाव किया था. यशवंत सिन्हा और बृजेश मिश्र तक हां हां करने लगे. इतने बड़े-बड़े धमाकों के बीच सुधींद्र कुलकर्णी, वसुंधरा राजे और भुवनचंद्र खंडूड़ी छोटे पटाखे साबित होकर रह गए. जब दिमाग में कैंसर का अंदेशा हो तो हाथ के फोड़े पर कौन ध्यान दे.
अंत में मोहन भागवत आए. कैमरों के फ्लैश चमकते रहे, टीवी चैनल इंतजार करते रहे, लेकिन भागवत की मूंछों के नीचे खिल रही मंद-मंद मुस्कान सारे राजों पर परदा डाले बैठी रही. अगले दो दिन में पता चला, संघ उत्तराधिकार का झगड़ा निबटाने में जुटा है. दूसरी पीढ़ी के नेता झंडेवालान में बैठे हैं और आडवाणी के लिए देर-सबेर गद्दी छोड़ने का आदेश है.
जसवंत सिंह ने ठीक कहा- यह कू क्लक्स क्लान है. ऐसा संगठन जो छुप कर काम करने और फैसले लेने में भरोसा करता है. लेकिन जसवंत से सहानुभूति क्यों हो? यही काम वे भी करते रहे. अब समझ पा रहे हैं कि संघ ऐसा संगठन है तो इसके पीछे भोलापन नहीं, कुछ और है.
बहरहाल, टीवी चैनलों को बीजेपी का शुक्रिया अदा करना चाहिए. अरसे बाद टीवी पर राजनीतिक रिपोर्टिंग को इतनी महत्त्वपूर्ण हैसियत हासिल हुई. इस पूरे प्रकरण में सिर्फ बीजेपी के नहीं, दूसरे दलों के नाराज नेताओं के लिए भी एक संदेश है. अगर आपको यह शिकायत है कि राजनीतिक दलों में अंदरूनी लोकतंत्न नहीं है और पार्टी आपकी नहीं सुन रही तो कोई बात नहीं. मीडिया की शरण में चले जाएं. आपके गुस्से को आपकी उम्मीद से ज्यादा जगह मिलेगी. मीडिया के शानदार प्रबंधन के लिए जानी जाने वाली बीजेपी के होंठ सिले हुए हैं. उसके एक राष्ट्रीय प्रवक्ता बोल चुके हैं कि वे सिर्फ सूखे, स्वाइन फ्लू और महंगाई पर बोलेंगे, क्योंकि वास्तविक राष्ट्रीय समस्याएं यही हैं.
अपने संकट को छुपाने की, उससे आंख मिलाने से बचने की यह बेचारी सी कोशिश बताती है कि उन्हें अब भी मीडिया और लोकतंत्न पर नहीं, कू क्लक्स क्लान पर भरोसा है.
प्रियदर्शनलेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं