लौहपुरुष, जो था ही नहीं?

जिस पार्टी को दो सांसदों से करीब दो सौ तक उन्होंने कभी अकेले के दम पर पहुंचाया था आज उसकी और उनकी जमकर दुर्गति हो रही है लेकिन न तो वो कुछ करते ही दिख रहे हैं और न ही इस-सबसे अपने को अलग ही दिखा पा रहे हैं 

कुछ ही बरस पहले जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी तब भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं द्वारा अटलजी को विकास पुरुष और लाल कृष्ण आडवाणी को लौहपुरुष के विशेषणों से संबोधित किया जाता था. जब सरकार ने अपना आधे से ज्यादा कार्यकाल पूरा कर लिया तो आडवाणी का महत्व भाजपा में कुछ और भी बढ़ने लगा. चूंकि उस समय अगली केंद्र सरकार भी एनडीए की बनना लगभग तय लग रहा था और खराब सेहत के चलते अटलजी कम-से-कम पूरे समय तक तो इसका नेतृत्व करने वाले थे नहीं, इसलिए भाजपाइयों को 75 साल के आडवाणी उगते सूरज सरीखे लग रहे थे. होना शायद ये था कि अटल जी के उदारवादी नेतृत्व में चुनाव जीता जाता, आसानी से गठबंधन बनता और थोड़ा आगे-पीछे सत्ता आडवाणी संभाल लेते. मगर हुआ इसका बिलकुल उल्टा. एनडीए हार गया, वाजपेयी अगले चुनाव तक सक्रिय राजनीति के लायक रहे नहीं इसलिए खुद को प्रधानमंत्री बनाने की सारी जिम्मेदारी आडवाणी के ही सर पर आ गयी.

चूंकि पुरानी, संकीर्ण सन्दर्भों में लौहपुरुष वाली छवि आडवाणी की खुद की और भाजपा की नैय्या पार लगाने में आड़े आने वाली थी इसलिए इसके पुनर्निर्माण के चक्कर में उन्होंने कई गलतियां कर डालीं: पहले तो जिन्ना को धर्म-निरपेक्ष बता अप्रासंगिकता के बोध से जूझ रहे संघ को और नाराज़ कर उन्होंने अपनी ताकत और पार्टी की अध्यक्षता खोई, फिर शायद अपने दरबारियों की सलाह पर आतंकवाद से मजबूती से निपट सकने वाले की छवि गढ़ने के चक्कर में कुछ ग़लतबयानी भी कर डाली – चुनाव से ठीक पहले उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी ही नहीं थी कि जसवंत सिंह भी रिहा किये आतंकियों के साथ कांधार जा रहे हैं जबकि सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति के कुल जमा पांच में से तीन सदस्य ये बात झुठला चुके हैं. जो चुनाव हाल ही में भाजपा ने हारा वो भी आडवाणी ने अपनी इसी खोई-पाई ताकत पर अकेले-दम लड़ा था.

अब यही बातें उनके गले की हड्डी बनी हुई हैं. सवाल उठ रहे हैं कि जसवंत सिंह को जिन्ना के ऊपर लिखने पर पार्टी-निकाला क्यों जबकि आडवाणी खुद भी कुछ-कुछ ऐसा ही कह चुके हैं. और एक उपप्रधानमंत्री रह चुका, प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति देश को सरेआम गुमराह कैसे कर सकता है? लोकसभा चुनावों में हार के बाद उनका पहले पार्टी के संसदीय दल के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना और बाद में नेता-विपक्ष बनकर ये कहना कि वो पूरे पांच साल तक इस पद पर रहने वाले हैं, भी उनकी खूब किरकिरी करवा रहा है. जिस पार्टी को दो सांसदों से करीब दो सौ तक उन्होंने कभी अकेले के दम पर पहुंचाया था आज उसकी और उनकी जमकर दुर्गति हो रही है लेकिन न तो वो कुछ करते ही दिख रहे हैं और न ही इस-सबसे अपने को अलग ही दिखा पा रहे हैं.

आश्चर्य की बात है कि अपनी किताब के विमोचन के बाद इसे लोकप्रिय बनाने के लिए पचासों साक्षात्कार देने वाला और चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को टीवी पर खुली बहस के लिए ललकारने वाला शख्स इतना सब हो जाने के बाद, अपने राजनीतिक जीवन की सांध्य बेला पर भी मौनव्रत धारे हुए है. अब इस निष्क्रियता और चुप्पी को क्या कहा जाए! 

संजय दुबे