करीब चार साल पहले ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल और दिल्ली की एक शोध संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति पर एक सर्वे करवाया था. रिपोर्ट में कहा गया कि भारतीय प्रतिवर्ष 20,000 करोड़ रूपए की रिश्वत देते हैं और इसमें हर स्तर के सरकारी कर्मचारी लिप्त हैं. सर्वेक्षण में न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार का बेहद बारीकी से विश्लेषण किया गया था और इसमें सुधार के लिए कुछ बहुमूल्य सुझाव भी दिए गए थे. रिपोर्ट के मुताबिक हमारा न्यायिक तंत्र बेहद खर्चीला और सुस्त रफ्तार है जिसकी वजह से आम आदमी के लिए न्याय पाना टेढ़ी खीर हो जाता है. लिहाजा लोग न्याय के जाम पड़े पहिए में रिश्वत का तेल डाल देते हैं. इसका लाभ उठाने वालों में वकील और कोर्ट कर्मचारियों से लेकर जज तक शामिल हैं.
पूर्व मुख्य न्यायाधीश भरूचा के उस बयान पर कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि 20 फीसदी के करीब जज भ्रष्ट हैं. सवाल उठता है कि अपने इस पांचवें हिस्से को सुधारने के लिए बाकी बचे 80 फीसदी लोगों ने क्या किया?
लोगों के जेहन में जज वी रामास्वामी का बहुचर्चित मामला अभी भी ताजा है. संसद द्वारा बनाई गई तीन जजों की जांच समिति ने उन्हें भ्रष्टाचार के कई मामलों में दोषी पाया इसके बावजूद सत्ताधारी दल ने उन्हें बाहर का रास्ता नहीं देखने दिया और वोट न देने की आसान सी जुगत का इस्तेमाल करते हुए उनके खिलाफ संसद में महाभियोग की कार्रवाई को औंधे मुंह गिरा दिया. सर्वोच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार के एक सीधे-सपाट मुद्दे को मतलबी राजनेताओं ने उत्तर और दक्षिण की प्रतिद्वंदिता का मुद्दा बना दिया. संसदीय भ्रष्टाचार ने न्यायपालिका के भ्रष्टाचार का जमकर सहयोग किया.
राजस्थान हाईकोर्ट के एक जज और उनके रजिस्ट्रार ने एक महिला डॉक्टर के यौन शोषण का प्रयास किया. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति ने उन्हें दोषी पाया लेकिन जज ने सिर्फ त्यागपत्र दिया. मैसूर में कुछ जज सेक्स स्कैंडल में लिप्त पाए गए. मगर इसे भी गंभीर नहीं माना गया. दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज पर प्रॉपर्टी डीलरों के साथ अवैध लेन-देन का आरोप लगा, पर एक दशक से भी ज्यादा हो गया, इस पर सुनवाई तक शुरू नहीं हुई है. ऐसे में सम्माननीय पूर्व मुख्य न्यायाधीश भरूचा के उस बयान पर कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि 20 फीसदी के करीब जज भ्रष्ट हैं. सवाल उठता है कि अपने इस पांचवें हिस्से को सुधारने के लिए बाकी बचे 80 फीसदी लोगों ने क्या किया?
रिपोर्ट इस तथ्य की ओर भी ध्यान खींचती है कि अपने न्यायिक फैसलों के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने खुद को पुलिस द्वारा की जाने वाली किसी भी आपराधिक जांच से सुरक्षित कर लिया है जबकि बाकी सभी दूसरे सरकारी कर्मचारी इस जांच के दायरे में आते हैं. रिपोर्ट में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन पर जोर दिया गया है जिसके पास जजों की नियुक्ति और उन्हें बर्खास्त करने का अधिकार हो, ये एक सही कदम है. जिस तरह से न्यायपालिका ने एक मायने में अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर जाते हुए राजनीतिक उम्मीदवारों को अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश दिया था उसी तरह से ये सुझाव भी दिया जा रहा है कि जजों को भी अपनी और परिवारजनों की संपत्तियां सार्वजनिक करनी चाहिए.
सांसद या विधायक बनने की इच्छा रखने वाला कोई उम्मीदवार अगर अपनी और अपने परिजनों की संपत्ति सार्वजनिक कर सकता है तो क्या ये और जरूरी नहीं हो जाता कि न्यायाधीश के पद पर बैठने की इच्छा रखने वाला या फिर इस पद पर पहले से आसीन व्यक्ति भी ऐसा ही करें?संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय अपराध निरोधक संस्था तमाम अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर काम कर रही है. अप्रैल 2000 में इस समूह ने उचित न्यायिक व्यवहार के लिए एक आचार संहिता बनाने का फैसला किया था और नवंबर 2002 में हेग में इस संहिता को स्वीकार कर लिया गया. इस संहिता के मुताबिक, हालांकि न्यायपालिका के बर्ताव के उच्च मानकों को बनाए रखने की प्राथमिक जिम्मेदारी न्यापालिका की ही है, हर समाज ये मानता है कि कानून का राज स्थापित करने के लिए न्यायिक शुचिता एक मूलभूत आवश्यकता है. किसी जज का व्यवहार और उसका कामकाज हर हाल में ऐसा होना चाहिए जिससे आम लोगों का विश्वास न्यायपालिका में और मजबूत हो सके. सभी, उन राष्ट्रीय कानूनों से भी इत्तेफाक रखते हैं जिनके मुताबिक हर जज को अपनी वित्तीय संपत्तियों को सार्वजनिक करना चाहिए.
भ्रष्टाचार का मुद्दा जिसमें न्यायपालिका से जुड़ा भ्रष्टाचार भी शामिल है अगले संसदीय चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बनने वाला है. लोगों को पता है कि जज संपत्ति के खुलासे को अपनी निजता में दखल मानकर खुश नहीं हैं. दुर्भाग्य से जजों को ये एहसास नहीं है कि जनता मजबूती से ये मानती है कि संपत्तियों को सार्वजनिक किया जाना भ्रष्टाचार, हितों के टकराव और जनता के पैसे के दुरुपयोग को हतोत्साहित करने का एक प्रभावी जरिया है. आम नागरिक, सामाजिक संगठन और मीडिया इस बात पर एकराय है कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक करने का प्रावधान लागू होना चाहिए और इनका कड़ाई से पालन भी किया जाना चाहिए.
ब्राजील, मेक्सिको और अर्जेन्टीना जैसे तमाम लातिन-अमेरिकी देशों ने सरकारी कर्मचारियों की संपत्ति सार्वजनिक करने के लिए विशेष कानून बनाए हैं. कुछ खुलकर न्यायाधीशों के भी इन कानूनों के दायरे में आने की बात करते हैं. अमेरिका जैसे देशों को छोड़ भी दिया जाए तो अल सल्वाडोर और युगांडा जसे देशों में भी संपत्ति सार्वजनिक करना एक विधायी जरूरत है.
मेरी राय में हमारे यहां न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति घोषित करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि संविधान का 14वां अनुच्छेद कानून के समक्ष सबको बराबरी का और समान सुरक्षा का मूलभूत अधिकार देता है. अत: इसके लिए हमें किसी अतिरिक्त कानून की जरूरत ही नहीं है. इस बात में कोई विवाद नहीं है कि भारतीय दंड संहिता और भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत जज भी एक जनसेवक हैं. 1988 में सासंद और विधायक भी जनसेवक भी श्रेणी में आ गए. जज भी हमेशा से इसी श्रेणी में रहे हैं इसलिए उनके साथ दूसरे सरकारी कर्मचारियों के जैसा ही बर्ताव होना चाहिए. उनके साथ विशेष बर्ताव के लिए कोई भी दलील स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए.
सांसद या विधायक बनने की इच्छा रखने वाला कोई उम्मीदवार अगर अपनी और अपने परिजनों की संपत्ति सार्वजनिक कर सकता है तो क्या ये और जरूरी नहीं हो जाता कि न्यायाधीश के पद पर बैठने की इच्छा रखने वाला या फिर इस पद पर पहले से आसीन व्यक्ति भी ऐसा ही करें? जजों के प्रति आम जनता के मन में विश्वास और निष्ठा ही न्यायिक व्यवस्था का आधार है. न्यायालय की अवमानना का कानून जजों को एक व्यक्ति के तौर पर सुरक्षा प्रदान नहीं करता बल्कि उनके कार्यों के निष्पादन के संदर्भ में ऐसा करता है.
हमारे संविधान ने जजों को बेहद असीमित अधिकार दिए हैं, विशेषकर शीर्ष न्यायालय के जजों को. वो नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति जसे मामलों में तो दखल रखते ही हैं साथ ही उनके पास नौकरशाहों, मंत्रियों और सरकारों के काम-काज को भी सिर्फ इस आधार पर अवैध घोषित करने का अधिकार है कि उन्होंने संविधान का उल्लंघन किया है और न्याय के मूल सिद्धांतों की अवहेलना की है. इसके अलावा वो संसद के दोनों सदनों और राष्ट्रपति द्वारा पास किए गए किसी भी कानून को ये कह कर अवैध घोषित कर सकते है कि वो कानून संविधान की मूल भावनाओं से मेल नहीं खाता. चूंकि संसद देश की आम जनता की भावनाओं का प्रतिबिंब मानी जाती है इस आधार पर कुछ लोग कोर्ट के इस विशेषाधिकार को जनता की संप्रभुता का हनन मानते हैं. सांसदों विधायकों को जहां नियमित अंतराल पर जनता के बीच जाना होता है वहीं जज रिटायर होने तक इस तरह की किसी भी जांच, सुरक्षा अथवा नियंत्रण से मुक्त होते हैं. इसके बावजूद वे सरकार और संसद द्वारा पास किए गए कानूनों को ये कहते हुए निरस्त कर सकते हैं, ‘हम उस संविधान को आप से कहीं ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं जिसे आप लोगों ने 60 साल पहले लागू किया था.’ संविधान निर्माताओं ने जजों को ये अधिकार उस दौर के जजों की काबिलियत और उनकी क्षमता को देखते हुए प्रदान किए थे. आज ये देख कर बहुत दुख होता है कि उनका स्तर कितना गिर चुका है. ये जरूरी है कि अब जजों को जनता के विश्वास को और कम करने के लिए कुछ नहीं करना चाहिए. संपत्ति घोषित करने से उनका इनकार करना इस भरोसे को चकनाचूर कर देने की ताकत रखता है.
मार्च 2003 में चुनाव आयोग ने विस्तार से इस बात की जानकारी दी कि उम्मीदवारों को अपनी संपत्ति की घोषणा करना क्यों जरूरी है. उसने बताया कि उम्मीदवार की पारदर्शिता के लिए संपत्ति की घोषणा एक जरूरी शर्त है. मतदाताओं को अपना वोट डालने के लिए उम्मीदवार से जुड़ी हर जानकारी पाने का अधिकार है. किसी लोकतंत्र में इस तरह की सूचना पाने का अधिकार राजव्यवस्था के लोकतांत्रिक स्वभाव से पैदा होती है. आयोग ने कहा कि विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता के मूल अधिकार के तहत ही सूचना पाने का अधिकार भी शमिल है. इसने 2 मई 2002 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए उस आदेश का भी हवाला दिया जिसमें उसने सभी उम्मीदवारों की संपत्ति सार्वजनिक करवाने का चुनाव आयोग को निर्देश दिया था.
बहुत से न्यायाधीशों का कहना है कि वे बिना किसी कानून के भी अपनी संपत्तियों की घोषणा करने के लिए तैयार हैं. मुख्य न्यायाधीश ने बिल्कुल सही कहा कि स्वेच्छा से अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने वाले जजों का स्वागत है. यदि सुप्रीम कोर्ट जजों की संपत्ति सार्वजनिक करने की जरूरत को किसी अजीबोगरीब आधार पर ठुकरा देता है तो वो खुद को ढोंगियों जैसा नजर आने से नहीं रोक सकेगा.
मुझे उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए माननीय मुख्य न्यायाधीश जल्द ही अपना विचार बदलेंगे और सभी जजों की संपत्ति सार्वजनिक करना अनिवार्य करेंगे. सिर्फ मुख्य न्यायाधीश के समक्ष संपत्ति की घोषणा ही पर्याप्त नहीं है बल्कि पूरे देश के नागरिकों को इसके बारे में जानने का अधिकार है. अगर वो इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो दिल्ली उच्च न्यायालय में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुख्य सूचना आयुक्त के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खुद-ब-खुद निरर्थक हो जाएगी. इस देश में तमाम ऐसे लोग हैं, जो स्पष्ट तौर पर मानते हैं कि हाईकोर्ट में मुकदमेबाजी करके सुप्रीम कोर्ट अपनी प्रतिष्ठा खुद ही मिट्टी में मिला रहा है. देश के प्रतिष्ठित न्यायविद फाली एस नरीमन, जिनसे हाईकोर्ट ने इस मामले में सहायता मांगी थी, ने ये कह कर ऐसा करने से इनकार कर दिया कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों को ये बात साबित करनी ही होगी कि कानून सबके लिए एक-समान है. ये घटना काफी कुछ सिखा सकती है.