एनडीटीवी वाले उस दिन उन सांसदों को गरिया रहे थे जो संसद में एक टीवी कार्यक्रम ‘सच का सामना’ के खिलाफ उठ खड़े हुए थे. इन भ्रष्ट, झूठे और अपराधी सांसदों को क्या अधिकार है कि वे एक टीवी कार्यक्रम पर नैतिकता की कसौटियां लगाएं और मांग करें कि व्यक्तियों के निजी जीवन की गोपनीय मानी जाने वाली बातें ऐसे सरेआम उघाड़ कर न दिखाई जाएं. सार्वजनिक जीवन में शुचिता की चिंता इन गैरजिम्मेदार सांसदों को कैसे होने लगी. ये खुद तो कभी अपने राजनैतिक जीवन में लोकलाज और शोभनीयता की फिकर नहीं करते.
यह कार्यक्रम लोगों को सच का सामना करने को तैयार करने के लिए बनाया गया है. सच क्या किसी की निजी भावना है जो उससे जुड़े किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों की भावनाओं से बिल्कुल निरपेक्ष वस्तुनिष्ठ सत्य हो जाता है?
अपने सांसद कितने भ्रष्ट, कितने झूठे और कैसी अपराधी प्रवृत्तियों के लोग हैं यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं है. वे अपना नैतिक अधिकार खुद अपने जीवन और आचरण से प्राप्त करें यह अपेक्षा भी सही है. लेकिन सार्वजनिक जीवन में क्या हो रहा है इस पर बहस संसद में क्यों नहीं हो? वे कैसे भी हों जनता ने उन्हें चुन कर भेजा है. वे इस देश के लोगों के निर्वाचित और लोकप्रिय प्रतिनिधि हैं और जनता की लोकप्रिय नैतिकता की कसौटी पर चीजों को तौलना और विचार करना उनका संसदीय कर्तव्य है. ऐसा करने के उनके अधिकार और जिम्मेदारी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता.
फिर कौन सवाल उठा रहे हैं? निजी चैनल! सांसद कम से कम पंद्रह से बीस लाख वोटरों के निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए हैं. उनके पास जनादेश है. इन चैनलों के पास किसका जनादेश है? किसने उन्हें कहा कि पैसा लाओ, पत्रकार इकट्ठे करो और चैनल चलाओ? उन्हीं लोगों ने जिनके पास पैसा है. इस देश में एक सीमा के बाद किस तरह और कैसे पैसा जमा होता है यह यब जानते हैं. मेहनत से कमाया गया शुद्ध और धौला पैसा ही चैनलों में लगता है इसका दावा तो किसी ने किया नहीं है. फिर ऐसा पैसा भी लोकहित के काम में लगाया गया है ऐसा दावा भी किसी चैनल ने नहीं किया.
सब कहते और जानते हैं कि चैनल मुनाफा कमाने और पव्वा चलाने के लिए चलाए जाते हैं. ऐसे चैनलवालों को क्या अधिकार है कि वे सांसदों के बहस करने के नैतिक अधिकार को चुनौती दें. सांसद अगर भ्रष्ट, झूठे और अपराधी हैं तो चैनल क्या दूध के धुले हैं? हरिश्चंद्र के वंशज हैं कि दूसरों के झूठ और पाखंड को बर्दाश्त न करें? आचरण की जिस शुचिता का आग्रह वे सांसदों से करते हैं उसी की कसौटी पर वे कहां खड़े होंगे? और सांसदों को अगर समाज में नैतिक पुलिसगिरी करने का अधिकार नहीं है तो मुनाफे के लिए कुछ भी करने वाले चैनल सांसदों के जीवन आचरण पर कैसे निगरानी कर सकते हैं ? सांसदों का मकसद किसी भी तरह सत्ता में आना है तो चैनलों का प्रयोजन किसी भी तरह लाभ कमाना है. किसी भी तरह सत्ता में आना अगर पाप है तो किसी भी तरह लाभ कमाना कैसे पुण्य हो जाएगा?
देखिए ये दलीलें इसलिए नहीं हैं कि सांसदों को आलोचना से बचाया जाए. वे शायद किसी तरह के बचाव के लायक हैं भी नहीं. लेकिन चैनलों को भी आलोचना का सच्चा अधिकार और लोक विश्वसनीयता तभी मिल सकती है जब वे लोकहित में काम कर रहे हों. सच बात तो यह है कि चैनलों ने लोकहित कब का छोड़ दिया है. वे मुनाफे के लिए लोकहित और लोकलाज से कोई भी छूट लेने की होड़ में लगे हुए हैं. सांसद अगर अपने धतकरमों को संसदीय व्यवस्था और विशेषाधिकारों में ढंकते हैं तो चैनल अभिव्यक्ति की संवैधानिक आजादी का इस्तेमाल लाभ कमाने के जायज-नाजायज तरीकों को चलाए रखने के लिए.
सांसद अगर अपने धतकरमों को संसदीय व्यवस्था और विशेषाधिकारों में ढंकते हैं तो चैनल अभिव्यक्ति की संवैधानिक आजादी का इस्तेमाल लाभ कमाने के जायज-नाजायज तरीकों को चलाए रखने के लिए
दूर जाने की जरूरत नहीं. इसी ‘सच का सामना’ को लीजिए. क्या यह कार्यक्रम लोगों को सच का सामना करने को तैयार करने के लिए बनाया गया है? सच क्या किसी की निजी भावना है जो उससे जुड़े किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों की भावनाओं से बिल्कुल निरपेक्ष वस्तुनिष्ठ सत्य हो जाता है क्योंकि कोई उसे बताने या मंजूर करने का सार्वजनिक दम भर रहा है? विनोद कांबली का ही उदाहरण लीजिए. मैंने उसी को लिया तो इसलिए नहीं कि उसका कार्यक्रम देखा है. सच तो यह है कि मैंने ‘सच का सामना’ का कोई एपिसोड नहीं देखा. मैं मानता हूं कि अपने टीवी पर रिएलिटी शोज में जितना झूठपाठ और पाखंड है असली जीवन में वैसा नहीं होता. शो दिखाने के लिए बनाया जाता है यथार्थ या असलियत को समझने के लिए नहीं. बिना नाटक के कोई शो नहीं होता और सब जानते हैं कि नाटक असल जीवन नहीं है.
विनोद कांबली के ‘सामना’ के सिर्फ प्रोमो मैंने देखे हैं. इस या उस चैनल पर उसके कटे छंटे टुकड़े देखे हैं. लेकिन विनोद कांबली को मैं जानता हूं. उसने सचिन तेंदुलकर के साथ मिल कर स्कूल के एक मैच में रेकॉर्ड 664 रनों की भागेदारी की थी तब से मैं उसके क्रिकेट कैरियर को नजदीक और बड़ी रुचि से देख रहा हूं. देश में जहां तहां उसे खेलते देखा है. सन् इंकानवे में आस्ट्रेलिया के दौरे और फिर विश्व कप में मैदान पर खेलते और उसके बाहर होटलों में और समारोहों में बरतते देखा है. आस्ट्रेलिया के तो उस दौरे पर सचिन, विनोद और सौरभ तीनों थे और तीनों अभी लड़के थे. तब इन्हें देख कर कोई भी अंदाज लगा सकता था कि क्रिकेट में कौन कितनी दूर जाएगा. विनोद तब भी खेलने के साथ उन सब शगल और धींगामुश्ती में पड़ा रहता था जिनमें महानगरों के बिगड़ैल लड़के लगे रहते हैं. शाम वह लड़कियों और लाड़ लड़ाने वाले प्रवासी भारतीय परिवारों में बिताता और देर से होटल लौटता.
शुरूआती वर्षो में विनोद कांबली का प्रदर्शन सौरभ गांगुली से तो अच्छा था ही सचिन से भी बेहतर था. लेकिन सफलता उसके माथे में घुस गई और उसका दिमाग खराब कर दिया. अब क्रिकेट पर उसका ध्यान कम और एक्स्ट्रा करिक्यूलर एक्टिविटी में ज्यादा लगता था. वह कहीं से भी उस अनुशासन को मानता दिखता नहीं था जिसके बिना कोई भी लड़का या युवक गंभीर या बड़ा खिलाड़ी नहीं हो सकता. यह कोई नहीं कहता कि एक खिलाड़ी को बाकी जीवन को निलंबित कर देना चाहिए. लेकिन अगर आपका जीवन आपके खेल पर केंद्रित नहीं है तो आप खेलते तो रह सकते हैं बड़े या महान खिलाड़ी नहीं हो सकते. सभी खेलों के बड़े खिलाड़ियों के जीवन और शैली को देखिए. वे खेल और कैरियर से खेल नहीं करते. विनोद कांबली जितना खेलता था उससे ज्यादा अपने खिलाड़ी होने की प्रसिद्धि पर खेल करता था. समझदार लोग बहुत पहले कहने लगे थे कि वह अपने को बरबाद कर रहा है.
आप स्कूल में उस रेकॉर्ड भागेदारी से अब तक सचिन और विनोद के कैरियर को देखिए. सचिन अगर ब्रेडमन के बाद का सबसे महान बल्लेबाज और आदर्श खिलाड़ी माना जाता है तो सिर्फ क्रिकेट की प्रतिभा पर नहीं. सचिन को सचिन तेंदुलकर उसके एकाग्र और एकांतिक समर्पण ने बनाया है. विनोद कांबली में यह समर्पण किसी भी चीज पर नहीं है. वह बेचारा फुदकने वाला पतिंगा है. उसने प्रसिद्धि की शमा पर अपने को जला दिया. इसके लिए सिर्फ वह और वही जिम्मेदार है. पिच पर आप जब गेंद का सामना कर रहे होते हैं तो कोई सचिन क्या भगवान भी आपकी मदद नहीं करता. इसलिए जब विनोद कांबली कहता है कि उसे लगता है कि सचिन उसकी ज्यादा मदद कर सकता था तो वह
सरासर झूठ बोल रहा है. वह अपनी विफलता की जिम्मेदारी एक ऐसे खिलाड़ी पर डाल रहा है जिसने अपने किए-अनकिए के लिए सिर्फ खुद अपने को जिम्मेदार माना. विनोद कांबली की बहानेबाजी को कोई सच कह सकता है?
विनोद की झूठी बहानेबाजी को सच बता कर इसलिए प्रचारित किया गया कि सचिन महान खिलाड़ी और महान आदमी है. कांबली उसका दोस्त है और एक लंगोटिया जिगरी दोस्त उस पर लांछन लगा रहा है. इससे सनसनी मचती है और लोग शो देखने को लालायित होते हैं. यह न कांबली का सच है न सचिन का न उनकी दोस्ती का. प्रोग्राम को बेचने के लिए खेला गया हथकंडा है. यह कहीं से भी विनोद का सच नहीं है कि उसने इसका सामना किया है. यह निजी विकृति, बहानेबाजी और शोशेबाजी को बेचने की कोशिश है. लोगों में निंदा करने और दूसरों को बुरा बताने की इच्छा होती है. जितनी बुरी बातें और जितनी वाहियात निंदा उतनी ही लोगों को ताक-झांक करने की इच्छा. इसे आप सच कैसे कह सकते हैं? यह निजता को बेचने का धंधा है. सच का सामना बनाने वाले सिद्धार्थ बसु से प्रणय रॉय ने पूछा – हम कितना गिर सकते हैं? बसु ने कहा – इस देश का ध्येय सत्यमेव जयते है. सच से कैसा डरना? वाह! विनोद कांबली का तो सत्यमेव जयते हो गया! सिर पीट लीजिए.
ऐसे ही राखी का स्वयंवर. राखी बेचारी टीवी पर बिकने के लिए कुछ भी कर सकती है. अपनी किसी भी प्रायवसी के सार्वजनिक र्धुर्रे बिखेर सकती है. उसके लिए अपनी निजता पवित्र और महत्वपूर्ण नहीं है. वह प्रसिद्ध होना चाहती है और प्रसिद्धि से कमाने में लगी है. आज तो उसने स्वयंवर किया है. कल वह अपनी सुहागरात दिखाएगी. फिर राखी का तलाक नहीं तो राखी का प्रसव दिखाना. लोग टेलीविजन छोड़ कर भाग जाएंगे. ऐसी कौन सी रिएलिटी है जिसे हम सब आम तौर से नहीं जानते. हमाम में हम सब नंगे नहाते हैं. बेडरूम में फिर भी कुछ कपड़े पहनते हैं. और जैसे बेडरूम में होते हैं वैसे बैठक में नहीं रहते. बाथरूम, बेडरूम और बैठक में भेद हम कानून के कारण नहीं करते. अपनी निजता और सभ्यता के कारण करते हैं. इसलिए सच का सामना निजता को बेचने का झूठा धंधा है.
प्रभाष जोशी