लेह में अगर आप किसी से मिलें तो इसकी अच्छी-खासी संभावना होती है कि वो फिल्म स्टार निकले. किसी जमाने में लद्दाख राज्य की राजधानी रहा ये शहर अब भारत की नवीनतम फिल्म इंडस्ट्री का केंद्र है. लद्दाखी सिनेमा पर बन रही आउट ऑफ थिन एअर नाम की डॉक्यूमेंट्री फिल्म के निर्देशकों में से एक समीरन फारुकी कहते हैं, ‘जब हमने पहली बार लद्दाखी फिल्मों के बारे में सुना तो हम हैरान हो गए. जिस होटल में हम ठहरे हुए थे हमने उसके मालिक डेविड सोनम से पूछा, कौन देखता है ये पिक्चर? उनका जवाब आया, कौन नहीं देखता. बाद में पता चला कि डेविड प्रोडक्शन कंट्रोलर भी हैं.’ सह निर्देशक शबानी हसनवालिया आगे जोड़ती हैं, ‘जब हमने गौर करना शुरू किया तो पता चला कि लद्दाखी फिल्मों से हर कोई जुड़ा हुआ है. आप किसी रेस्टोरेंट में खाना खा रहे हैं और पता चलता है कि रेस्टोरेंट का मालिक पिछले साल की सबसे सुपरहिट फिल्म में कोई भूमिका निभा चुका है.’
यहां के लोग आम मुंबइया मसालों से भरी इन फिल्मों को भी परंपराओं को सुरक्षित रखने का जरिया मानते हैं
सात साल और 26 फिल्मों पुराने लद्दाखी फिल्मोद्योग को आम लोगों ने बनाया है. आम लोग यानी टैक्सी ड्राइवर, दुकानदार, भिक्षु और गृहणियां. प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, डांसर्स, एडिटर, कैमरामैन, एक्टर..सब यही आम लोग हैं. काम का हुनर इन्होंने काम करते-करते ही सीखा है. आप सोच सकते हैं कि जब बड़े बजट वाली हिंदी फिल्मों में से कुछ फीसदी ही कमाऊ साबित हो रही हों तो लद्दाखी फिल्मों का क्या होता होगा. मगर आपको हैरत होगी कि ये फिल्में खूब फायदे का सौदा साबित हो रही हैं. डिजिटल वीडियो कैमरे से बनाई गई एक फिल्म का बजट औसतन पांच लाख रुपए होता है. लेह में एक ही हॉल है और हिट फिल्म इसमें रोज तीन शो के हिसाब से तीन महीनों तक चल सकती है. 250 दर्शक क्षमता वाले इस हॉल में एक टिकट की कीमत 50 रुपए है. यानी तीन महीने में 33 लाख रुपए से भी ज्यादा का कारोबार.
हालांकि बाकी चीजों की तरह लद्दाख में सिनेमा भी एक मौसमी कारोबार है. फिल्में गर्मियों में बनकर तैयार हो जानी चाहिए ताकि जब सर्दियां आएं और लोगों के पास वक्त हो तो वे उन्हें देख सकें. गर्मियों में शूटिंग करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसी मौसम में लद्दाख घाटी में हरे रंग की थोड़ी सी बहार दिखाई देती है जिसमें यशराज फिल्म्स मार्का गाने फिल्माए जा सकते हैं.पर गर्मियों में लोगों के पास पर्यटन और खेती-बाड़ी जैसी दूसरे काम भी होते हैं इसलिए फिल्मकारों को थोड़ा ‘अडजस्ट’ करना पड़ता है. शबानी बताती हैं, ‘अगर हीरो कोई परीक्षा देने जम्मू गया हो तो शूट तय करते वक्त इसका ख्याल रखना पड़ता है.’
सदियों से अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखे हुए ये इलाका अब मनोरंजन के नए माध्यमों के जरिये नये दौर में प्रवेश कर रहा है. वैसे यहां के लोग आम मुंबइया मसालों से भरी इन फिल्मों को भी परंपराओं को सुरक्षित रखने का जरिया मानते हैं. सेंसर बोर्ड की जगह यहां एक बौद्ध असोसिएशन है और अगर उसे कोई भी दृश्य परंपरा के विपरीत लगता है तो उस पर कैंची चल जाती है. उदाहरण के लिए उसने कुछ समय पहले एक फिल्म के उस दृश्य को काट दिया था जहां एक लामा को किसी महिला का सपना देखते हुए दिखाया गया था.
तो क्या परंपराओं को सुरक्षित रखने की ये जद्दोजहद पर्यटकों की बढ़ती भीड़ से उपजी असुरक्षा से तो पैदा नहीं हुई है? हो सकता है. शबानी कहती हैं, ‘इन दिनों लेह में आधुनिक कपड़ों में नजर आने वाले सिर्फ पर्यटक ही नहीं होते.’ मगर ये भी सही है कि मनोरंजन और मुनाफा भी इसकी इतनी ही मजबूत वजह है जितना अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का सरोकार.