भूख से हारी जिंदगी और नाम अन्नदाता

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है 
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

जिस तरह की आंकड़ेबाजियां पिछले कुछ सालों में विदर्भ के किसानों को लेकर की जा रही हैं, उस पर अदम गोंडवी का ये शेर हर तरह से मौजूं बैठता है. आंकड़े बताते हैं कि अब तक राज्य और केंद्र द्वारा दिए जा रहे राहत पैकेज के तहत किसानों को 82 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की रकम आवंटित हो चुकी है. ज्यादातर पैसा खर्च भी किया जा चुका है. इससे होने वाले राजनीतिक लाभ की फसल काटी जा चुकी है. इसके बावजूद आज भी विदर्भ में औसतन पहले जितनी ही आत्महत्याएं हो रही हैं. 2001 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 52 थी. 2008 में ये आंकड़ा 1267 रहा.

विदर्भ में सिर्फ 11 फीसदी किसानों के पास सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. इसके बावजूद प्रधानमंत्री राहत पैकेज का तीन-चौथाई हिस्सा ऐसे किसानों के लिए रखा गया है जिनके पास ये सुविधा उपलब्ध हो

वागधा गांव के मंदिर का चबूतरा किसानों से भरा हुआ है. सभी की निगाहें झुकी हैं और माहौल में खामोशी पसरी हुई है. इस साल विदर्भ में किसी किसान की खुदकुशी की ये 117वीं घटना है. 117वीं बार ऐसा हुआ है कि किसी किसान ने अपनी बर्बाद कपास की खेती और झुलसाते आसमान की तरफ देखा और फैसला किया कि बस अब बहुत हुआ. 117वीं बार एक हताश जिंदगी असमय काल का ग्रास बन गई है.

लोग बताते हैं कि 35 वर्षीय मंगलचंद प्रताप के लिए हालात बर्दाश्त के बाहर हो चुके थे. करीब 15 साल पहले विरासत में ढेर सारा कर्ज छोड़ उसके पिता चल बसे थे. दो भाई काम की तलाश में नजदीकी कस्बों में चले गए और खेती की सारी जिम्मेदारी प्रताप के कंधों पर आ गई. पिछले साल उसकी पांच हेक्टेयर के खेत पर बोई कपास की फसल कीड़ा लगने से बर्बाद हो गई. कमाई तो कुछ हुई नहीं, ऊपर से बीज के लिए जो बैंक से कर्जा लिया था उस पर ब्याज भी सुरसा के मुंह सरीखा बढ़ता जा रहा था. स्वभाव से हंसमुख उनके पति किस कदर निराशा के भंवर में डूब गए थे, याद करते हुए सुरेखा कहती हैं, ‘पिछले साल हमें जब भी रोटी नसीब हो जाती थी तो ये एक चमत्कार ही लगता था.’

मगर प्रताप ने दिल के किसी कोने में थोड़ी हिम्मत बचाकर रखी थी. इस साल अच्छी फसल की उम्मीद में उन्होंने बीज खरीदने के लिए बैंक से 30,000 रुपये का कर्ज लिया. मगर 24 जून की सुबह जब वे अपने खेतों में गए तो देखा कि हाल ही में बोए गए बीज ‘छोटा पानी’ यानी हल्की बूंदाबांदी के चलते खराब हो गए हैं. उसी शाम उन्होंने कीटनाशक दवा की एक पूरी बोतल पी ली. उनके भाई ध्यानेश्वर को अब भी प्रताप का जमीन पर गिरना, मुंह से निकलता झग और उनकी पथराई आंखें याद आती हैं. अपने भाई की आठ साल की बच्ची का हाथ पकड़े ध्यानेश्वर कहते हैं, ‘जब बच्चे भूखे सो रहे हों तो कोई इंसान कितने दिन तक हालात से लड़ सकता है? मेरा भाई तो उन कई किसानों में से सिर्फ एक है जो इस साल आत्महत्या करने वाले हैं.’

प्रधानमंत्री राहत पैकेज में भी तमाम तरह की गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार के मामले देखने को मिल रहे हैं. पैकेज में पीड़ित परिवारों को कम कीमत पर गाय दिए जाने की जो योजना थी उसका फायदा विधायक और तमाम दूसरे नेता उठा रहे हैं

ध्यानेश्वर की भविष्यवाणी दुर्भाग्य से विदर्भ का सबसे काला सच है. महाराष्ट्र की कपास बेल्ट कहा जाने वाला ये इलाका 2001 से ही किसानों की खुदकुशी के लिए कुख्यात रहा है. सामाजिक संगठनों और मीडिया की चीख-पुकार के बाद सरकार हरकत में आई और जुलाई 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दो दिन के लिए विदर्भ के दौरे पर गए. उस साल तब तक वहां 1448 किसान आत्महत्या कर चुके थे. सिंह ने सूखे से प्रभावित विदर्भ के छह जिलों के लिए 3750 करोड़ रुपये के विशेष राहत पैकेज का ऐलान किया. इसके बाद 2008 में प्रधानमंत्री ने देश भर के किसानों के लिए 71,860 रुपए की कर्जमाफी योजना की घोषणा की. 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस की जीत में इस योजना की एक अहम भूमिका रही.मगर इस सबके बावजूद विदर्भ के किसानों की  त्रासदी अंतहीन क्यों लग रही है?

केदापुर गांव में लोग हमें चंद्रकला मिश्र के घर का पता बताते हैं. एक पड़ोसी के शब्दों में, ‘पति की मौत के बाद अक्सर उनकी विधवाएं या तो मजदूरों से खेती का काम करवाती हैं या फिर जमीन ही बेच देती हैं. मगर चंद्रकला ग़जब की हिम्मतवाली महिला हैं.’ तीन साल पहले एक सुबह जब चंद्रकला जागीं तो उन्होंने पाया कि उनके पति गंगाराम मिश्र फांसी लगाकर खुदकुशी कर चुके हैं. हिम्मत हारने की बजाय उन्होंने हल चलाना सीखा. ये काम परंपरागत रूप से पुरुष करते हैं क्योंकि बैलों को हांकना आसान नहीं होता. जब हम चंद्रकला से मिलते हैं तो वे कहती हैं, ‘अगर आप मुझसे किसी मदद का वादा करने यहां आये हैं तो ये जान लीजिए कि मैं बेवकूफ नहीं हूं. मैं जब भी सरकारी अधिकारी, मीडियावाले या एनजीओ से मिली, मुझे कोरे आश्वासनों के अलावा और कुछ नहीं मिला.’

आज चंद्रकला के 12-15 घंटे बड़े जमींदारों और अपने खेतों में मजदूरी का काम और तीन घरों में चूल्हा-चौका करने में गुजरते हैं. उन्होंने अपनी दो बच्चियों को स्कूल में भर्ती कर दिया है. वे बताती हैं कि इसके लिए उन्होंने साहूकार से काफी कर्ज भी ले रखा है. चंद्रकला की जिंदगी और प्रताप की मौत इस बात का सबूत हैं कि अरबों रुपये खर्च किए जाने के बावजूद मदद का ज्यादातर हिस्सा उन तक नहीं पहुंच पाया है जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है. किसानों की विधवाओं को एक लाख रुपए का मुआवजा दिए जाने की घोषणा हुई थी. मगर जब चंद्रकला इस मुआवजे के लिए तहसीलदार के पास पहुंचीं तो उनकी अपील ठुकरा दी गई. वे बताती हैं, ‘कुछ सरकारी बाबू आए थे. मुझसे पूछा कि पैसा चाहिए या बाच्चों की पढ़ाई-लिखाई. मैंने कहा दोनों. कुछ भी नहीं मिला.’

विधवा किश्ताबाई कहती हैं, ‘कपास उगाने पर फसल बेचने से ज्यादा खर्चा हो गया था. इसलिए उनकी खुदकुशी से मुझे हैरत नहीं हुई.’

यवतमाल के जिला मुख्यालय में तैनात एक अधिकारी बताता है कि चंद्रकला के पति की मौत के पीछे या तो शराब रही होगी या फिर कोई घरेलू विवाद. पीड़ित परिवारों को मुआवजा न दिए जाने के लिए जो वजहें गिनाई जाती हैं उनमें से ये दो सबसे आम हैं. जहां तक कर्जमाफी का सवाल है तो चंद्रकला कहती है, ‘ये तो उन लोगों के लिए है जिन्होंने बैंक से कर्ज ले रखा हो. शुरुआत में बैंक हमें कर्ज देने से मना करते रहे और मजबूरी में हमें साहूकारों से कर्ज लेना पड़ा.’

आज चंद्रकला की पांच हेक्टेयर जमीन पर साहूकारों के कब्जे में चले जाने का खतरा मंडरा रहा है. वह कहती है, ‘अब मेरी समझ में आ रहा है कि मेरे पति क्यों हिम्मत हार बैठे.’ चंद्रकला जैसे लोगों के लिए ही राहत पैकेज बनाए गए थे मगर उन्हीं को ये राहत नहीं पहुंच पाई. 2008 में केदापुर गांव के भुजन्न विट्ठल का पूरा कर्ज माफ करने से इसलिए इनकार कर दिया गया क्योंकि उनके पास पांच हेक्टेयर जमीन थी. तर्क ये था कि उन्हीं लोगों का पूरा कर्ज माफ होगा जिनके पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है. विट्ठल पर 50 हजार रुपये का कर्ज था जिसमें से 20 हजार बाद में माफ कर दिए गए. दो महीने बाद वे कपास की अपनी फसल (जिसका ज्यादातर हिस्सा बर्बाद हो चुका था) को बेचने बाजार में पहुंचे. इससे जो पैसा मिला उससे उन्होंने एक किलो चावल, कुछ टमाटर और चूहे मारने की दवा की एक बोतल ली. अगली ही सुबह चारपाई पर उनकी लाश मिली जिसका रंग उनके घर की दीवारों की तरह नीला हो चुका था. उनकी विधवा किश्ताबाई कहती हैं, ‘कपास उगाने पर फसल बेचने से ज्यादा खर्चा हो गया था. इसलिए उनकी खुदकुशी से मुझे हैरत नहीं हुई.’

किश्ताबाई का 20 वर्षीय बेटा गजानंद कहता है, ‘मैं फुल स्कॉलरशिप पर एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था मगर खेती के लिए मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी. क्योंकि अब घर की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई है.’ मगर आंशिक कर्जमाफी पाने वाले गजानंद जैसे विदर्भ के छह लाख किसानों के लिए हालात और भी बदतर हो गए हैं. बैंकों ने उन्हें सूचित किया है कि अगर उन्होंने नौ जुलाई 2009 से पहले बकाया कर्ज की रकम वापस नहीं की तो इस कर्जमाफी को भी रद्द कर दिया जाएगा. कुछ किसान कह चुके हैं कि वे बकाया भुगतान नहीं करेंगे. कुछ इस उम्मीद में बैठे हैं कि फिर से किसी राहत पैकेज की घोषणा होगी. चूंकि विदर्भ में एक किसान के पास औसतन पांच हेक्टेयर से ज्यादा की जोतें होती हैं इसलिए यहां के ज्यादातर किसानों को आंशिक कर्जमाफी ही मिल सकी है. वे इस बात से अनजान थे कि अगर उन्होंने बाकी का कर्ज जल्द नहीं चुकाया तो ये भी रद्द हो जाएगी. वाशिम जिले के हीरासिंह चव्हाण कहते हैं, ‘जून से दिसंबर तक पसीना बहाते हुए हम कर्ज का पैसा खेती में लगाते हैं. मगर जब बारिश नहीं होती और फसल चौपट हो जाती है तो हमारे पास खाने तक के लिए कुछ नहीं होता. मैं 23,000 रुपये का बकाया कर्ज कैसे चुकाऊं? और अगर मैं ये नहीं चुकाता हूं तो 20,000 रुपये का जो कर्ज माफ हुआ है वह भी रद्द हो जाएगा. ये कैसा पैकेज है?’

मानसून दगा देता लग रहा है और बैंक अल्टीमेटम लेकर खड़े हैं. राज्य सरकार का खुद का सर्वे बताता है कि कपास उगाने वाले हर चार में से तीन किसान संकट में हैं

हर साल बुआई के समय यानी मई-जून में कर्ज लेने की एक नई प्रक्रिया शुरू होती है. इस समय विदर्भ के किसानों को एकमुश्त पैसे की जरूरत होती है. प्रति एकड़ जमीन के लिए कपास या सोयाबीन के बीज खरीदने का खर्च करीब 1000 रुपये आता है. इतना पैसा प्रति एकड़ जुताई पर भी खर्च होता है. हर एकड़ में 3000 रुपये का खर्च खाद और कीटनाशकों पर भी आता है. कई साल से हो रही औसत से कम बारिश और फसल का नतीजा ये हुआ है कि ज्यादातर किसानों के पास जमापूंजी जैसी कोई चीज ही नहीं है. पिछले कर्जे न चुकाने की वजह से बैंक भी उन्हें नया कर्ज देने से इनकार कर देते हैं. हालांकि 2006 में घोषित प्रधानमंत्री राहत पैकेज में बैंकों को ये निर्देश दिए गए थे कि कर्ज न चुका पाने वाले किसानों को भी नया कर्ज दे दिया जाए. उस साल दस लाख से भी ज्यादा किसानों ने कर्ज लिया. ये संख्या उससे पिछले साल कर्ज लेने वालों से दोगुनी थी. मगर लगातार तीन साल तक फसल खराब रहने का नतीजा ये हुआ कि हालात फिर से ढाक के तीन पात जैसे हो गए.

यवतमाल जिले के पहपाल में स्थित बैंक ऑफ महाराष्ट्र के मैनेजर आरजी महाजन कहते हैं, ‘हमने घोषणा की है कि 75 फीसदी किसान कर्ज दिए जाने लायक नहीं हैं.’ अमरावती जिले में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक अधिकारी बताते हैं कि विदर्भ में हमेशा से ही कर्ज न चुका पाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा रही है. वे कहते हैं, ‘इस साल हमें आशंका है कि ये संख्या और बढ़ेगी.’

प्रधानमंत्री राहत पैकेज में भी तमाम तरह की गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार के मामले देखने को मिल रहे हैं. यवतमाल में एक सामाजिक कार्यकर्ता विलास वानखेड़े ने 2008 में सूचना का अधिकार कानून के तहत एक याचिका दाखिल की तो पता चला कि इस पैकेज में पीड़ित परिवारों को कम कीमत पर गाय दिए जाने की जो योजना थी उसका फायदा विधायक और तमाम दूसरे नेता उठा रहे हैं. विदर्भ में राहत पैकेज किस तरह लागू किया जा रहा है इसकी समीक्षा के लिए 2007 में एक समिति बनाई गई थी. सात महीने बाद इस समिति के अध्यक्ष और अर्थशास्त्री डा. नरेंद्र यादव ने अपनी 102 पन्नों की रिपोर्ट में बेलगाम भ्रष्टाचार और राहत सामग्री की सामान्य से ऊंचे दामों पर आपूर्ति की बात कही. मसलन प्रधानमंत्री पैकेज के तहत सोयाबीन के बीज 3500 रुपए प्रति क्विंटल बेचे जा रहे हैं जबकि पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में यही बीज 2700 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर उपलब्ध हैं. वाशिम के किसान नारायण विभूति कहते हैं, ‘ऊपर से कोढ़ में खाज ये कि सरकार हमसे सोयाबीन केवल 2160 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से खरीदती है.’

राहत पैकेज में भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों का शोर मचने के बाद महाराष्ट्र सरकार ने इसकी जांच करने के लिए एक समिति का गठन किया. साल की शुरुआत में इस समिति ने अपनी रिपोर्ट और सुझाव सरकार को सौंपे जिन्हें अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है. जब हमने समिति के एक सदस्य डा. प्रफुल्ल काले से संपर्क किया तो उन्होंने इसमें बड़े पैमाने पर घोटाले, जिसमें कई प्रभावशाली लोग भी शामिल हैं, का संकेत दिया और माना कि जांच के दौरान उन पर कई तरफ से दबाव भी पड़ा. हालांकि उनके मुताबिक वे, ‘निष्पक्ष और तार्किक रहे.’

कई सरकारी अधिकारी भी मानते हैं कि कर्जमाफी और प्रधानमंत्री पैकेज बड़ी सीमा तक दिखावा ही रहे हैं. अमरावती में राहत पैकेज के क्रियान्वयन के इंचार्ज और डिविजनल कमिश्नर सुधीर गोयल खुद ही कहते हैं, ‘विदर्भ में इस तरह के पैकेज की जरूरत क्या है? आत्महत्याएं एक गहरे कृषि संकट का लक्षण हैं. सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर रहने वाले विदर्भ जैसे इलाकों के किसानों की मुख्य चिंता तो मानसून और कीमतें हैं. नकदी फसल को उगाने पर इतना पैसा खर्च करने के बाद फसल को बेचने पर जो मिलता है उससे तो लागत भी वसूल नहीं होती..ऐसी योजनाओं में पैसा झोंकने की क्या जरूरत है जो मूल समस्याओं पर ध्यान नहीं देतीं?’ राज्य के कृषि मंत्री बालासाहेब थोरत भी मानते हैं कि राहत पैकेज से सिर्फ अस्थाई राहत ही मिली है. वे कहते हैं, ‘इस साल भी मानसून आने में देरी हुई है और मुझे आशंका है कि स्थिति और भी खराब होगी.’

जब प्रधानमंत्री राहत पैकेज का ऐलान हुआ था तो योजना आयोग, वाम दलों और कृषि विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी कि इसमें विदर्भ से जुड़ी उन समस्याओं की उपेक्षा की गई है जिनसे ये इलाका 1970 के जमाने से ग्रस्त रहा है. उनकी चेतावनी में दम था. वर्धा स्थित कृषि विशेषज्ञ विजय जावंदिया कहते हैं, ‘जो भी पैकेज दिए गए उनके दायरे से 80 फीसदी किसान बाहर ही रह गए. जिन्हें राहत मिली उन्हें भी पर्याप्त नहीं मिली. इन योजनाओं को बनाते हुए ग्रामीण भारत और खेती से जुड़ी परंपरागत सच्चाइयों से आंखें मूंद ली गईं.’

जावंदिया की बात सही है. कर्जमाफी सहित तमाम दूसरी योजनाएं उन्हीं किसानों के लिए थीं जिनके पास पांच हेक्टेयर से कम जमीन हो. मगर ज्यादातर गांवों में परिवार के पास जो जमीन होती है उसका स्वामित्व सबसे बड़े पुरुष सदस्य के नाम पर होता है. इसलिए असलियत में काश्तकारों के पास काफी कम जमीन होती है मगर तकनीकी रूप से वह राहत के दायरे में नहीं आते. इसी तरह विदर्भ में खेती हमेशा से मानसून के भरोसे चलती रही है और इस इलाके के सिर्फ 11 फीसदी किसानों के पास सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. इसके बावजूद प्रधानमंत्री राहत पैकेज का तीन-चौथाई हिस्सा ऐसे किसानों के लिए रखा गया है जिनके पास ये सुविधा उपलब्ध हो. विदर्भ किसान आंदोलन समिति के अध्यक्ष किशोर तिवारी कहते हैं, ‘इलाके की तीन नदियां सूख चुकी हैं. भूजल का स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा है. बारिश भी इतनी कम होती है. ऐसे में सिंचाई किसी सुखद स्वप्न जैसी लगती है.’

पहपाल की मीरा काचरू छटाले विधवा हैं. उनके पति ने साहूकारों से तंग आकर 2005 में खुदकुशी कर ली थी. 2006 में जब प्रधानमंत्री राहत पैकेज का ऐलान हुआ तो एक गैरसरकारी संगठन ने उनकी तरफ से इसके लिए आवेदन किया. वे बताती हैं कि किस तरह उनके खेत में कुआं खोदने के लिए सरकारी अधिकारी एक टीम को लाए थे. ‘उन्होंने मुझे बधाई देते हुए कहा कि मेरी जिंदगी बदल जाएगी, पानी मिलने से मेरे खेतों में अच्छी फसल लहलहाएगी और मैं सफल किसान बन जाऊंगी’ मीरा बताती हैं, ‘दो दिन तक तो उन्होंने तेजी से खुदाई की. फिर उनका काम धीमा होने लगा. एक हफ्ते बाद वे जाने लगे और मुझसे कहा कि पानी आ चुका है. मैं खेत की तरफ भागी और कुएं में झंककर देखा तो इसमें एक बूंद भी पानी नहीं था.’

इस क्षेत्र के लिए बनने वाली योजनाओं ने बार-बार उन लोगों की उपेक्षा की है जिन्हें सही मायने में मदद की जरूरत है. महाराष्ट्र के कृषि विभाग में कार्यरत एक वरिष्ठ सचिव कहते हैं, ‘71,680 करोड़ के पैकेज में महाराष्ट्र का हिस्सा 14,000 करोड़ रु. का था. इसका ज्यादातर हिस्सा (लगभग 7000 करोड़ रु.) सिंचाई की सुविधा पाने वाले पश्चिमी महाराष्ट्र के उन किसानों को मिला जो तुलनात्मक रूप से बेहतर हालत में थे. विदर्भ को सिर्फ 2000 करोड़ रु. से काम चलाना पड़ा.’ यानी जिस इलाके में हो रही आत्महत्याओं से चिंतित होकर सरकार को इतना बड़ा पैकेज देना पड़ा था उसके हिस्से सिर्फ बची-खुची रकम ही आई.

इस साल भी हालात वैसे ही हैं. मानसून दगा देता लग रहा है और बैंक अल्टीमेटम लेकर खड़े हैं. राज्य सरकार का खुद का सर्वे बताता है कि कपास उगाने वाले हर चार में से तीन किसान संकट में हैं. जिन पांच दिन तहलका इस इलाके की यात्रा पर रहा उस दौरान ही यहां कम से कम दो आत्महत्याएं हुईं.अपने पिता की तस्वीर पर लगी माला को ठीक करते हुए 20 साल का गजानंद हमसे कहता है कि हम एक महीने बाद विदर्भ वापस आएं और पता करें कि क्या वो तब भी जिंदा है.