गुजर जाने के बाद का तूफान

ईरान में राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने के महीना भर बाद, अभी भी कुछ प्रदर्शनकारियों के हौसले की मशाल जल रही है. लेकिन ईरानी सरकार अपनी फाइल बंद कर चुकी है. उसका दावा है कि सरकारी टेलीविजन पर, दस प्रतिशत वोटों की गिनती का सीधा प्रसारण कर उसने साबित कर दिया है कि चुनाव प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी रही है. विरोध, तेहरान की सड़कों से गायब हो रहा है लेकिन पश्चिमी मीडिया, ख़ासकर अमेरिकी चैनल सीएनएन और उसी की पर्शियन सर्विस इस शमा को बुझने नहीं देना चाहती. तेहरान की सड़कें न सही, सीएनएन तो है, जो कि एक ख़ास रणनीति के तहत, सिर्फ राष्ट्रपति महमूद अहमदीनिजाद से हार चुके उम्मीदवार मीर हुसैन मूसावी के समर्थकों से ही फोन पर लाइव बात करता रहा हैं.

राजनीति में धर्म के दुरुपयोग के उदाहरण तो पाकिस्तान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान और भारत तक में मिलते हैं लेकिन किसी समाज में धर्म का उपयोग भी हो सकता है ये ईरान सिखाता है

अपने काम में माहिर ईरानी खुफिया तंत्र भी जुट गया है, पता लगा रहा है कि  प्रदर्शनकारियों को उकसाने में अमेरिका का हाथ ज्यादा था या ब्रिटेन का. खुफिया विभाग के मंत्री गुलाम इजाई साफ़तौर पर आरोप लगा रहे हैं कि उनके पास पक्के सबूत हैं कि किस तरह पश्चिमी ताकतों ने एक ‘स्थाई ईरान’ को हिलाने की हर मुमकिन कोशिश की. एक-एक करके अहमदीनिजाद के तमाम विरोधी भी अब ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे नहीं लगता कि अब उनकी तरफ़ से किसी विरोध की गुंजाइश बाकी है. समूचा ईरान एक दिखने की कोशिश कर रहा है ताकि सारा आरोप बाहरी ताकतों पर मढ़ा जा सके.

इस्लामिक ईरान के इतिहास के सबसे विवादित चुनाव के आकलन की सबसे बड़ी बाधा है सही सूचना का अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक न पहुंच पाना. सूचना के उपलब्ध दोनों मुख्य माध्यमों – ईरानी सरकारी टीवी और पश्चिमी न्यूज चैनलों (सीएनएन, बीबीसी) – पर ही पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि जहां ईरानी सरकार ने विदेशी पत्रकारों को एक ह़फ्ते के बाद वहां टिकने की अनुमति नहीं दी वहीं विदेशी चैनल बिना संवाददाताओं के ही ख़बरें दिखाते रहे हैं. कितने लोग अहमदीनिजाद के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे? कितनों की जानें गईं, कितने जख्मी हुए, कितने लापता कर दिये गये हैं? और कितने अभी जेल में बंद हैं? किसी भी सवाल का कोई विश्वसनीय जवाब नहीं है.

इस सब के बीच ईरान अपने नुकसान का हिसाब भी लगा रहा है. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, सीरिया से लेकर रूस और चीन ने जिस तरह अहमदीनिजाद की जीत का स्वागत किया है, उसे ईरान एक बड़ी जीत के तौर पर पेश कर रहा है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस पूरे बवाल से, पश्चिमी एशिया में क्षेत्रीय नेतृत्व की ईरान की आकांक्षाओं को जरूर धक्का पहुंचा है.

ईरान की सड़कों पर निकलें तो यहां नेताओं की नहीं शहीदों की तस्वीरें नजर आती हैं. ईरान के लिये इस्लामिक क्रांति को हर दिन याद रखना, देशभक्ति तो है ही जरूरत और मजबूरी भी हैईरान की सड़कों पर निकलें तो यहां नेताओं की नहीं शहीदों की तस्वीरें नजर आती हैं. ईरान के लिये इस्लामिक क्रांति को हर दिन याद रखना, देशभक्ति तो है ही जरूरत और मजबूरी भी है. देश के सबसे ताकतवर मजहबी नेता अयातुल्लाह ख़ुमैनी से लेकर राष्ट्रपति अहमदीनिजाद तक, इस समय ईरान का लगभग पूरा नेतृत्व उन लोगों के हाथों में है जिन्होंने इस्लामिक क्रांति और उसके बाद ईराक के साथ आठ साल तक चली जंग में सीधे तौर पर हिस्सा लिया. इससे न सिर्फ इन नेताओं को बने रहने का परमिट मिलता है बल्कि ये लगातार सक्रिय बाहरी ताकतों के बीच देश को एक बनाए रखने का तरीका भी है.

इस सबके बावजूद यदि विरोध प्रदर्शन अभी भी जारी हैं तो इसलिए कि मुद्दा सिर्फ इस या उस राष्ट्रपति का चुना जाना भर नहीं है बल्कि  70 प्रतिशत युवाओं का ये देश एक नये ईरान की मांग कर रहा है. वो 1979 की क्रांति से अपने को नहीं जोड़ पा रहा है. सड़कों पर आजादी की मांग कर रहे ज्यादातर युवा या तो 30 साल पहले की क्रांति के समय पैदा ही नहीं हुए थे या फिर इतने छोटे थे कि उन्हें कुछ याद नहीं. इसीलिये शायद ईरान विरोधाभासों का देश है. मुश्किल ये है कि क्रांति से पहले और बाद की आबादी के बीच पुल कैसे बने.

तेहरान की सड़कों पर, ख़ूबसूरत कपड़े, ब्रांडेड चश्मे और डिजाइनर पर्स के साथ इठलाती लड़कियां मुश्किल से ‘जबरदस्ती का स्कार्फ’ संभालती चलती हैं – ईरानी सरकार का फरमान है 9 साल से ऊपर कोई भी लड़की घर से बाहर बिना स्कार्फ के नहीं निकल सकती. लेटेस्ट फैशन की जींस टी-शर्ट और बालों को स्पाइक बनाये नौजवान लड़कों को देखकर सहज ही पता चलता है कि आज का ईरानी अपने आज के लिये जीता है.

तेहरान में ईरान की 20 फ़ीसद आबादी बसती है, भौगोलिक रूप से यूरोप से बहुत नजदीक न होकर और विचारधारा में अमेरिका से बिल्कुल मेल न खाने के बावजूद यहां युवाओं को उनका फैशन और लाइफ़-स्टाइल अपनाने से कोई परहेज नहीं. जब वो नाइकी, रीबॉक पहनकर, कोक से गला तर करते हुए जेनिफ़र लोपेज के गानों पर नाचता है तो अमेरिका से अपनी दुश्मनी को याद नहीं रखना चाहता. वो सियासत से अपनी जिंदगी को बोझिल नहीं बनाता.

ईरान इस्लामिक है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान नहीं है. पाकिस्तान भी नहीं है. ईरान ने 1979 के बाद जिस तरह धर्म की चादर ओढ़ी उससे न सिर्फ पश्चिमी ताकतें बल्कि दूसरे देशों में भी लोगों की भवें चढ़ती हैं. राजनीति में धर्म के दुरुपयोग के उदाहरण तो पाकिस्तान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान और भारत तक में मिलते हैं लेकिन किसी समाज में धर्म का उपयोग भी हो सकता है ये ईरान सिखाता है.

इस्लामिक क्रांति के समय 30 साल पहले, इस्लामिक गणतंत्र की संरचना करने वाले अयातुल्लाह ख़ुमैनी ने फ़तवा दिया था कि बेटी को पढ़ाना हर ईरानी का पहला धर्म है (ईरान में सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह की बात को सिर्फ एक सरकारी आदेश नहीं बल्कि आकाशवाणी की तरह लिया जाता है. ईरान से बाहर भी दुनिया भर के शिया समुदाय के लोग ईरानी अयातुल्लाह को अपना इमाम मानते हैं और किसी भी देश में होने के बावजूद उनका धार्मिक नेतृत्व स्वीकार करते हैं). एक फ़तवे ने सिर्फ 20 सालों में महिला साक्षरता की दर 22 से 94 प्रतिशत पहुंचा दी. एक अनुमान के मुताबिक ईरान में कॉलेज जाने वाली लड़कियों की तादाद ब्रिटेन से भी ज्यादा है.

भारत में जरूर इस बात पर बहस जारी है कि बच्चों को सेक्स शिक्षा दी जाये या नहीं लेकिन इस इस्लामी गणतंत्र में सेक्स न सिर्फ शिक्षा का हिस्सा है बल्कि शादी से पहले जोड़ों को फैमिली प्लानिंग की पूरी ट्रेनिंग दी जाती है. जिससे महिला का अपने शरीर पर पूरा नियंत्रण हो.

हर विकासशील समाज की तरह ईरान के गांव और शहर भी अलग तस्वीर पेश करते हैं. तेहरान से कुछ ही दूर सबसे बड़े धार्मिक शहर कुम – फिलहाल विश्व में शिया धार्मिक शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र  – जैसे इलाकों में जहां सर से पैर तक काली चादरों में लिपटी महिलायें और पारंपरिक चोग़े पहने पुरुष नजर आते हैं वहीं तेहरान में बड़ी तादाद में महिलायें नौकरी करती हैं, स्वतंत्र रूप से जिंदगी गुजारती हैं और अपना जीवन साथी भी चुनती हैं.

पर्दे के मामले में दिल पत्थर कर लेने वाले इस फारसी समाज में, मोहब्बत के फूल बरसते हैं. तेहरान की सड़कों पर हाथों-में-हाथ लेकर चलने और कंधे पर सर रखकर बैठने वाले नौजवान जोड़े किसी भी विदेशी को ईरान के बारे में दोबारा सोचने पर मजबूर करते हैं. यहां ज्यादातर लोग कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही शादी कर लेते हैं और इनमें से 90 फीसदी प्रेम-विवाह करते हैं. लेकिन बच्चों के मामले में अक्सर औरत को ही फैसला लेने का हक दिया जाता है. शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक का खर्च सरकार के जिम्मे होता है लेकिन ये सुविधा तीन बच्चों तक ही सीमित है.

बहरहाल, कहा नहीं जा सकता कि इन प्रदशर्नों के बाद ईरानी नेता अपने युवाओं का दिल पढ़ पाये होंगे और 10 हजार साल पुरानी फ़ारसी तहजीब को बचाने के साथ-साथ, 21वीं सदी के आधुनिक ईरान का निर्माण भी करेंगे.

आरफ़ा ख़ानम शेरवानी, वरिष्ठ पत्रकार