अंधेरे में ज्ञान का जुगनू

हरडी गांव अजमेर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. आसपास के तमाम दूसरे गांवों की तरह ही हरडी भी बिजली, पानी, सड़क जैसे विकास के न्यूनतम प्रतिमानो से वंचित है. गड़रिया जाति बाहुल्य इस गांव के 12 किलोमीटर के दायरे में कोई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक नहीं है और गांव के पचास में से आधे परिवार गरीबी रेखा (सालाना आय दस हज़ार से कम) के नीचे जीवन जीते हैं.

संसाधनों के इस घोर सूखे के बीच गांव वाले एक रात्रिकालीन स्कूल को ज़िंदा रखे हुए हैं. स्कूल में 30 छात्र हैं, जिनमें से 18 लड़कियां हैं. यहां न तो खड़िया है, न ब्लैकबोर्ड, न कॉपी है न ही पेंसिल. गांव के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे (छठवीं तक) प्रभु लाल इस स्कूल के शिक्षक हैं. वो बताते हैं- "यहां बिजली है नहीं और गांव में लालटेन भी बहुत कम लोगों के पास हैं, इसलिए ज्यादातर पढ़ाई मौखिक ही होती है." गांववालों ने हार्डी रात्रिकालीन स्कूल की स्थापना छह साल पहले एक ग़ैर सरकारी संगठन सोशल वर्क एंड एनवायर्नमेंट फॉर रूरल एडवांसमेंट (एसडब्ल्यूईआरए) के सहयोग से की थी.

हरडी निवासी कान्हाराम खरोल कहते हैं, "हम लोग निरक्षर थे इसलिए बैंक के अधिकारी भी हमसे बहुत रूखा व्यवहार करते थे और हमें लोन लेने की प्रक्रिया भी नहीं बताते थे. हम चाहते थे कि हमारे बच्चे कम से कम इतना तो पढ़ना लिखना सीख लें जिससे वो जोड़-घटाना कर सके और जिन कागजों पर हम दस्तख़त कर रहे हैं उन्हें पढ़ सकें."

चूंकि गांव शहर और बुनियादी सुविधाओं तक से काफी दूर था इसलिए स्वयंसेवक भी यहां आकर शिक्षित करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे. लिहाजा एसडब्ल्यूईआरए के अधिकारियों और ग्रामीणों ने एकमत से गांव में जितनी संभव हो उतनी शिक्षा फैलाने की जिम्मेदारी प्रभु लाल को सौंप दी.

एसडब्ल्यूईआरए के सचिव बीएल वैष्णव बताते हैं, "हम उन ग्रामीणों को निराश नहीं कर सकते थे जो किसी भी कीमत पर पढ़ना चाहते थे. यहां तक की प्रभु लाल भी पूरी तरह से योग्य नहीं था पर वह लोगों को कुछ बुनियादी बातें तो सिखा ही देता है. कुछ नहीं तो कम से कम बच्चे पढ़ना लिखना ही सीख जाते हैं."

तब से दिन के समय शिक्षक और छात्र दोनों अपने मवेशी चराते हैं या फिर खदानों में काम करते हैं और शाम ढलते ही पढ़ने लिखने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं.

असल में यहां सर्व शिक्षा अभियान के तहत संचालित एक सरकारी स्कूल भी है। लेकिन अभिभावक अपने बच्चों को वहां भेजते ही नहीं हैं. गांव के सरपंच भगवान स्वरूप महेश्वरी ने इसकी वजह कुछ यूं बताई, "इसकी दो वजहें हैं. पहली बात तो सरकारी स्कूलों में शायद ही पढ़ाई-लिखाई होती है. दूसरी और ज़्यादा अहम बात ये कि गांव के पानी में फ्लोराइड की मात्रा सुरक्षित सीमा से काफी ज्यादा है इसलिए ये खेती और मवेशियों दोनों के लिए अनुपयुक्त है. लिहाजा ज्यादातर परिवारों नें पास की खदानों में काम करना शुरू कर दिया है, जहां वो हर दिन 60 रूपए तक कमा लेते हैं. बड़े परिवार वालों के सामने अक्सर एक समय का भोजन जुटाना भी मुश्किल हो जाता है." इस वजह से बच्चों के सामने इसके अलावा कोई चारा नहीं कि वो भी दिन में अपने जीवनयापन के लिए कुछ काम करें. अब समय केवल रात का बचता है. इसलिए रात्रिकालीन स्कूल एक बेहतर विकल्प लगता है.

कठिन परिस्थितियों के बावजूद छात्र अंकगणित के सवालों को मात्र कुछ ही सेकेंडो में मौखिक ही हल कर देते हैं. ये पूछने पर कि छात्र लिखना कैसे सीखते हैं, प्रभु लाल एक लड़की से उसका नाम लिखने को कहते हैं. वो अपने पास ही पड़ी एक छड़ी उठाती है और ज़मीन पर अपनी अधपकी सी किंतु स्पष्ट हैंडराइटिंग में लिखना शुरू कर देती है.

अपने छात्रों की जागरुकता के प्रदर्शन को उत्सुक लाल, छात्रों के बीच पाठ्यक्रम से परे भी कुछ सवाल उछालते हैं- भारत का ऱाष्ट्रपति कौन है? कक्षा से कुछ दूर बैठे महिलाओं के एक समूह से आवाजें आती हैं- "प्रतिभा पाटिल". 40 के लपेटे में चल रहीं साएरी कहती हैं, "पुरानी मान्यताओं के चलते शादीशुदा महिलाओं को कक्षाओं में बैठने और पढ़ने की मनाही है इसलिए हम अपने घरेलू कामकाज जल्दी से निपटा कर थोड़ी दूर पर बैठ जाते हैं. इस तरह से हम कुछ ऐसी चीज़ें सीख लेते हैं जो कि हमारे लिए वैसे सीखना संभव ही नहीं हो पाता."

इस बीच एक स्तब्धकारी घटना हुई. स्कूल को पिछले साल आर्थिक सहयोग मिलना बंद होने के बाद मई में बंद कर दिया गया. एसडब्ल्यूईआरए इसके बाद से ही इस प्रयास में है कि रात्रिकालीन स्कूल को सर्वशिक्षा अभियान के तहत मान्यता मिल जाए. मगर स्कूल के केवल दरवाज़े बंद हुए हैं स्कूल नहीं. छात्र अब भी हर शाम प्रभु लाल से पढ़ने के लिए स्कूल की इमारत के बाहर इकट्ठा होते हैं.

नेहा दीक्षित