कवच की जरूरत कफ़न की ख्ररीदारी

सियाचिन में तापमान शून्य से 50 डिग्री नीचे तक पहुंच जाता है. यहां मोर्चे पर डटे सैनिकों के लिए सभी कायदों को ताक पर रख कर एक ऐसी पोशाक खरीदी जा रही है जो उनके लिए कवच की बजाय कफन साबित हो सकती है. नेहा दीक्षित की विशेष पड़ताल

रक्षामंत्री के रूप में अपनी दूसरी पारी शुरू करने के पांच दिन बाद 26 मई को एके एंटनी का एक सख्त बयान आया. इसमें उन्होंने कहा था कि अगर मंत्रालय को किसी भी रक्षा सौदे में यदि किसी भी प्रकार की गड़बड़ी का पता चलता है तो उस सौदे को रद्द कर दिया जाएगा. साफ था कि अपने पिछले कार्यकाल के दौरान दो ऐसे सौदों को रद्द कर चुके एंटनी एक कड़ा संदेश देना चाहते थे.

कंपनी स्ट्रेच्ड टेफलॉन की जगह पॉली यूरेथेन का इस्तेमाल कर रही है. आज तक इस तकनीक को -10 डिग्री सें. से नीचे इस्तेमाल किए जाने का कोई उदाहरण नहीं है

मगर लगता है कि रक्षा सौदों के जरिए अपने हित साधने वालों को इसकी कोई परवाह ही नही है. अपनी दो महीने लंबी तहकीकात में तहलका ने पाया कि रक्षा मंत्रालय के कई शीर्ष अधिकारियों ने एक ऐसे फैसले की बुनियाद रख दी है जो दुनिया के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र सियाचिन में तैनात 6000 सैनिकों की जिंदगी को खतरे में डालने वाला है. इन अधिकारियों में मास्टर जनरल ऑफ ऑर्डिनेंस (एमजीओ) भी शामिल हैं. तहलका को पता चला कि एक दागी मगर अपनी पसंद की कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों को खूब तोड़ा-मरोड़ा गया.

दरअसल अगस्त 2006 में रक्षा मंत्रालय ने गोरटैक्स सूट के 53,480 जोड़ों की आपूर्ति के लिए टेंडर आमंत्रित किए थे. ये एक खास किस्म की पोशाक होती है जिसे एक्स्ट्रीम कोल्ड वेदर क्लोदिंग सिस्टम भी कहा जाता है. सियाचिन में 22000 फीट की ऊंचाई पर तैनात सैनिकों के लिए ये सूट बेहद जरूरी होता है क्योंकि यहां तापमान शून्य से 50 डिग्री नीचे तक पहुंच जाता है. इसकी बनावट कुछ ऐसी होती है कि ये ठंडी हवा, बर्फ और बारिश से शरीर को बचा सकने की क्षमता रखता है. इस सूट में सबसे अहम होती है इसके भीतर लगी पॉली टेट्रा फ्लोरो थाइलीन या स्ट्रेच्ड टेफलॉन की परत. इस परत की खासियत यह होती है कि यह शरीर से पैदा होने वाले पसीने को सुखाने में मदद करती है. अगर ऐसा न हो तो यह पसीना जम कर शरीर से चिपक जाता है और व्यक्ति फ्रॉस्टबाइट का शिकार हो जाता है जो सियाचिन में होने वाली मौतों की प्रमुख वजहों में से एक है. कहा जाता है कि सियाचिन में जान गंवाने वाले सैनिकों में 90 फीसदी गोली के नहीं बल्कि यहां की जानलेवा ठंड के शिकार होते हैं. सूत्र बताते हैं कि यहां का खतरनाक मौसम हर महीने औसतन छह सैनिकों की बलि ले लेता है. इसलिए इसमें कोई शक नहीं कि लड़ाई के इस मैदान में जितनी अहमियत सैन्य प्रशिक्षण की है उतनी ही उचित उपकरणों और कपड़ों की भी है. अमेरिकी सेना और नाटो बल भी स्ट्रेच्ड टेफलॉन का इस्तेमाल करते हैं जो -50 डिग्री सें. जैसे कम तापमान पर भी असरदार तरीके से काम करने वाली इकलौती तकनीक है. भारतीय सेना भी इसका इस्तेमाल करती रही है और ये सूट्स आखिरी बार 1999 में खरीदे गए थे.

ये भी अहम है कि मंत्रालय ने जब अगस्त 2006 में टेंडर की अधिसूचना जारी की थी तो इसमें किसी तरह के तकनीकी मानकों का कोई जिक्र ही नहीं था. इसका मतलब ये था कि टेंडर्स को किसी भी आधार पर खारिज या स्वीकार किया जा सकता था. सबसे पहले एक दक्षिण कोरियाई कंपनी वोनरयोंग का चयन किया गया और इसके द्वारा भेजे गए नमूनों का परीक्षण हुआ. जनवरी 2007 में डायरेक्टरेट जनरल ऑफ क्वालिटी ऐश्योरेंस ने कंपनी को संबंधित उत्पाद के बारे में कुछ मानक (स्पेसीफिकेशंस) भेजे. कंपनी ने इन मानकों को तकनीकी रूप से अव्यावहारिक बताया. मंत्रालय ने अपनी गलती मान ली और तीन जून 2008 को एडिशनल डायरेक्टर जनरल ऑफ क्वालिटी एश्योरेंस ने एमजीओ कार्यालय को एक पत्र भेजकर शुरुआत में 5000 सूट्स मंगाने का सुझाव दिया. मगर ये पत्र कथित तौर पर कहीं गुम हो गया और भिन्न-भिन्न नमूनों के मानकों के एक जैसा न होने को आधार बना कर टेंडर रद्द कर दिया गया.

2006 में टेंडर आमंत्रित करते हुए रक्षा मंत्रालय ने साफ कहा था कि सिर्फ वही कंपनियां इस पर प्रतिक्रिया दें जो उपकरणों की मूल निर्माता भी हों. ब्लैक डायमंड इस वर्ग में नहीं आती

अगस्त 2008 में टेंडर के लिए नई अधिसूचना जारी की गई और दक्षिण कोरियाई कंपनी को इससे बाहर रखा गया. इस बीच मंत्रालय में यह भी फैसला हुआ कि एमजीओ को कुछ वित्तीय अधिकार सौंपे जाएं ताकि जिन चीजों की तत्काल जरूरत है उन्हें खरीदने में आम प्रक्रियाओं में लगने वाली देरी न हो. ये सूट भी इन्हीं चीजों के तहत आते थे. 53,480 सूट्स के शुरुआती ऑर्डर को घटाकर 27,000 कर दिया गया और एमजीओ ले. जनरल एसएस ढिल्लन ने करीब 37.4 करोड़ रुपए का ये कांट्रैक्ट ब्लैक डायमंड नाम की एक अमेरिकी कंपनी को दे दिया.

तहलका के पास इस कांट्रैक्ट की एक प्रति है जिससे पता चलता है कि नियमों को किस तरह तोड़ा-मरोड़ा गया ताकि ब्लैक डायमंड को पिछले दरवाजे से एंट्री दिलवाई जा सके. नियमों में सबसे गंभीर उल्लंघन ये है कि ब्लैक डायमंड कथित रूप से एक ऐसी टेक्नॉलाजी का इस्तेमाल कर रही है जिसके बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि शून्य से 50 डिग्री में भी ये असरदार साबित होगी. कंपनी स्ट्रेच्ड टेफलॉन की जगह पॉली यूरेथेन का इस्तेमाल कर रही है जिसे पीयू कोटेड टेक्नॉलॉजी भी कहा जाता है. पॉली यूरेथेन को कपड़े पर दोनों तरफ किसी पेंट की तरह चढ़ाया जाता है. आज तक इस तकनीक को -10 डिग्री सें. से नीचे इस्तेमाल किए जाने का कोई उदाहरण नहीं है. इसका मतलब ये है कि किसी ने भी ऐसा किया नहीं. और ऐसा बेवजह नहीं है. दरअसल तापमान अगर -10 डिग्री सें. से नीचे चला जाए तो पीयू कोटिंग में दरारें पड़ने लगती हैं. इससे हवा और पानी कपड़े के भीतर घुसने लगता है. इससे शरीर का तापमान तेजी से गिरने लगता है जो सियाचिन जैसी जगह पर जानलेवा हो सकता है.

आईआईटी दिल्ली के टेक्सटाइल डिपार्टमेंट में कार्यरत उच्च पदस्थ सूत्र इसकी पुष्टि करते हैं कि पीयू कोटिंग पसीने के सूखने में मददगार नहीं होती. नतीजतन भागदौड़ के बाद जब काफी पसीना आता है तो ये सूखकर उड़ जाने की बजाय बदन पर ही जम जाता है और फ्रॉस्टबाइट का कारण बनता है. ये भी अहम है कि ब्लैक डायमंड के साथ सौदा पटाने वाला एजेंट कुछ साल पहले तक उस इतालवी कंपनी का प्रतिनिधि था जो सियाचिन में तैनात सैनिकों के लिए खराब स्नोबूट सप्लाई करने की वजह से चर्चा में रही थी.

सियाचिन उन सबसे दुरूह जगहों में से एक है जहां भारतीय सैनिक अपना कर्तव्य निभा रहे हैं. यहां पर उनका सामना सिर्फ दुश्मन से ही नहीं बल्कि अमानवीय हालात पैदा करने वाले मौसम से भी होता है. हवा में ऑक्सीजन की मात्रा सामान्य से 30 फीसद कम होती है. नतीजनत सैनिकों को ऑक्सीजन मास्क लगाना पड़ता है. फ्रॉस्टबाइट, बर्फ की चमक से होने वाला अंधापन, फेफड़ों और दिमाग की सूजन जैसी चीजें यहां सैनिकों को तोड़ कर रख देती हैं. ज्यादा ऊंचाई की वजह से भूख भी मर जाती है. और अगर भूख हो भी तो खाने की चीजें कम ही समय तक खाने लायक रहती हैं. संतरे ऐसे हो जाते हैं कि छीलें तो क्या हथोड़े से भी तोड़े नहीं जा सकते. तीन महीने की तैनाती में ही कई सैनिकों का वजन 20 किलो तक गिर जाता है.

दस्तानों के मामले में तो हाल ये है कि कुल जरूरत का 30 फीसद स्टॉक ही उपलब्ध है. इसका मतलब यह है कि किसी भी समय सियाचिन में तैनात हर दस सैनिकों में सिर्फ तीन ही खुद को घातक फ्रॉस्टबाइट से बचा सकते हैंआधिकारिक आंकड़ों की मानें तो अप्रैल 1984 में सियाचिन चौकी बनने के बाद से मौसम यहां पर कुल 670 सैनिकों की जान ले चुका है. मगर कुछ साल पहले सियाचिन में तैनात रहे एक सेवानिवृत्त मेजर जनरल के मुताबिक ये आंकड़ा 20,000 तक भी हो सकता है. जान अगर बच भी जाए तो भी शरीर कई तरह की अपंगताओं का शिकार हो जाता है. सियाचिन में एक बार की तैनाती के बाद ही कई सैनिकों को जिंदगी भर याद्दाश्त, श्रवणशक्ति या नजर की कमजोरी से जूझना पड़ता है.

उधर, सेना इन समस्याओं से यह कहकर पीछा छुड़ा लेती है कि सियाचिन में तैनाती के लिए हर सैनिक को हर महीने 7000 रुपये का भत्ता अलग से भी तो मिलता है. नाम न छापने की शर्त पर सेना में कार्यरत एक कैप्टन कहते हैं, ‘रक्षा शोध एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) इस दिशा में आखिर क्या कर रहा है? हम देश के लिए अपनी जान देने को तैयार रहते हैं. कम से कम ये तो हो ही सकता है कि हमें ऐसे खराब सूट न दिए जाएं.’

2006 में टेंडर आमंत्रित करते हुए रक्षा मंत्रालय ने साफ कहा था कि सिर्फ वही कंपनियां इस पर प्रतिक्रिया दें जो उपकरणों की मूल निर्माता भी हों. ब्लैक डायमंड इस वर्ग में नहीं आती. इसकी वेबसाइट बताती है कि यह एक विक्रेता भर है और अपने उत्पाद दूसरी कंपनियों से खरीदती है. खुद को एक अमेरिकी पत्रकार बता जब तहलका संवाददाता ने ब्लैक डायमंड से संपर्क किया तो इसके निदेशकों में से एक बिल क्राउस का कहना था, ‘हम किसी चीज का उत्पादन नहीं करते. हम तो सिर्फ रक्षा मंत्रालय की विशेष प्रार्थना पर ये सूट उन्हें भेज रहे हैं.’

ये विशेष प्रार्थना रक्षा मंत्रालय ने उस कंपनी से की है जो उत्पादनकर्ता नहीं है. इससे भी बदतर ये है कि कांट्रैक्ट में सिर्फ चीन के डैलियन एयरपोर्ट का जिक्र है जहां से ये सामान भारत लाया जाना है. ये सूट किस जगह और किस फैक्ट्री में बने हैं इसका कहीं कोई जिक्र नहीं किया गया है. स्ट्रेच्ड टेफलॉन तकनीक का पेटेंट गोरटैक्स कंपनी के नाम है जो ऐसे हर एक सूट के लिए 570 अमेरिकी डॉलर कीमत वसूलती है. कोरियन कंपनी ने इसकी कीमत 248 डॉलर लगाई थी. जबकि ब्लैक डायमंड एक ओर तो पीयू कोटिंग वाले सूट दे रही है जिनका कभी भी -10 डिग्री सें. तापमान के नीचे इस्तेमाल नहीं किया गया है और ऊपर से ये ऐसे हर सूट के लिए 289 डालर वसूल रही है.

अभी माल भारत नहीं पहुंचा है जबकि इसकी पहली खेप को अप्रैल 2009 तक पहुंच जाना था. जब तहलका ने डायरेक्टरेट जनरल ऑफ क्वालिटी ऐश्योरेंस ब्रिगेडियर अजय गहलोत से इस मामले पर बात करनी चाही तो उन्होंने ये कहते हुए इससे इनकार कर दिया, ‘ये राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है. मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है.’

तहलका ने डीआरडीओ और वर्तमान एमजीओ मेजर जनरल विजय शर्मा से बात करने की पूरी कोशिश की मगर कोई भी इस बारे कुछ बोलने को तैयार नहीं था. गौरतलब है कि 28 जनवरी 2009 को जब ले. जनरल एसएस ढिल्लन ने ब्लैक डायमंड के साथ कांट्रैक्ट पर दस्तखत किए तो इसके ठीक तीन दिन बाद ही उनका कार्यकाल खत्म होने वाला था. जब हमने ढिल्लन से संपर्क किया तो उनका कहना था, ‘मैं यही कह सकता हूं कि किसी पद से हटने के 15 दिन पहले तक हम कोई बड़े फैसले नहीं लेते.’ उन्हें अब आर्म्र्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल का सदस्य बनाया गया है जो सैन्य अधिकारियों के खिलाफ लंबित मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए गठित किया गया है.

रक्षा मंत्रालय में इस सौदे को लेकर चुप्पी है. मगर ये और पिछले कुछ साल में हुई अन्य घटनाएं सियाचिन में तैनात सैनिकों की बेहतरी के लिए एमजीओ की भूमिका पर कई गंभीर सवाल खड़े करती हैं. अक्टूबर 2008 में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया था कि खरीद में देरी की वजह से सियाचिन में तैनात सैनिकों को जो खास पोशाक दी गई थी वह फटी-पुरानी थी और उसकी मरम्मत कर सैनिकों को उसे वापस दे दिया गया था. इस रिपोर्ट के शब्द थे, ‘सेना मुख्यालय ठीक समय पर सियाचिन जैसे इलाकों के लिए जरूरी खास पोशाक और उपकरणों की खरीद में नाकाम रहा. इस तरह इन अहम चीजों के स्टॉक में 44 से 70 फीसदी की कमी आ गई है..इस्तेमाल की हुई विशेष पोशाक को फिर से इस्तेमाल करना स्वच्छता, उपयुक्तता और सैनिकों की मन:स्थिति के नजरिये से भी ठीक नहीं है.’ कैग ने हैरानी जताई कि गुणवत्ता मानकों को नजरअंदाज कर सिर्फ कम कीमत के आधार पर खरीद की जाती है जिसका खामियाजा आखिर में सैनिकों को उठाना पड़ता है.

कैग द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण में पता चला कि सैन्य बलों की 50 फीसदी डिविजंस या रेजिमेंट्स उन्हें दी जा रही पोशाक की गुणवत्ता और फिटिंग से संतुष्ट नहीं थीं. असंतोष के कई कारण थे. उदाहरण के लिए पैंट और शर्ट का बेमेल साइज, कपड़े की खराब क्वालिटी और उसका रंग जल्द फीका पड़ जाना, जूतों का निर्धारित समय से कम में बेकार हो जाना, टोपियों का वाटरप्रूफ न होना आदि. 2002 से 2007 के बीच विभिन्न वस्तुओं के स्टॉक में कमी के लिए सेना के एमजीओ को जिम्मेदार ठहराते हुए कैग की रिपोर्ट कहती है कि आयात की जाने वाली चीजों की गुणवत्ता के मामले में हीला-हवाली की जा रही है. कैग के ऑडिट में पता चला कि स्लीपिंग बैग, मोजे, जैकेट, दस्ताने, जूते और बर्फीले इलाकों में इस्तेमाल होने वाले चश्मे जैसी चीजों तक की भी स्टॉक में कमी है. दस्तानों के मामले में तो हाल ये है कि कुल जरूरत का 30 फीसद स्टॉक ही उपलब्ध है. इसका मतलब यह है कि किसी भी समय सियाचिन में तैनात हर दस सैनिकों में सिर्फ तीन ही खुद को घातक फ्रॉस्टबाइट से बचा सकते हैं जिसका हमला अक्सर शुरू ही हाथ और पैरों की उंगलियों से होता है.

दो साल पहले यानी 2007 में कैग ने नोट किया था कि एमजीओ ने कुल 10 कांट्रैक्ट दिए थे जिसके तहत मंगाई गई चीजों की कीमत करीब 49 करोड़ रुपए थी. इसमें से 29 करोड़ रूपये की चीजें या तो जांच के दौरान अनुपयोगी पाई गईं या फिर सैनिकों ने उन्हें खारिज कर दिया. जब तहलका ने रक्षा मंत्री एके एंटनी को इन गड़बड़ियों का हवाला देते हुए उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि इसकी शिकायत आधिकारिक रूप से दर्ज की जाए तब ही वे इस पर कुछ प्रतिक्रिया देंगे.

साफ है कि सियाचिन में सैनिकों को होने वाली तकलीफों के लिए यहां का निर्दयी मौसम तो जिम्मेदार है ही, पर अपने सैनिकों को ढंग के कपड़े तक उपलब्ध नहीं करवा पाने वाले बेपरवाह देश और एमजीओ की जिम्मेदारी भी कुछ कम नहीं.