सहमति की समलैंगिकता अब दिल्ली में अपराध नहीं है यह तो ठीक है लेकिन यह बताइए कि इसमें इतना उत्सव मनाने का क्या कारण है? समलैंगिकों को राहत महसूस हो कि वे जो अपने दोस्तों के साथ करते हैं वह कानूनी अपराध नहीं माना जाएगा और उन्हें मुक्ति का अहसास हो यह भी समझा जा सकता है. लेकिन अत्याचार से पीड़ित होने का उनका त्रास कानूनी उतना नहीं है जितना सामाजिक और सांस्कृतिक. वे कानूनी रूप से लगातार तंग किए जा रहे हों इसके कोई असंख्य उदाहरण तो कहीं नहीं हैं.
कोई भी समाज मलैंगिकता को सहज स्वस्थ प्रक्रिया मान कर मान्यता और सम्मान नहीं देता. यह बीमारी नहीं तो विचलन तो है ही
लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में चले विधि आयोग के कोई एक सौ उनपचास साल पहले बनाए गए इस कानून के तहत अब तक कुल जमा एक मुकदमे में सन् पैंतीस में सजा हुई है. और इन एक सौ उनपचास साल में कुल छह मामले दर्ज हुए हैं. इन आंकड़ों से इतना तो साफ है कि अपने देश की पुलिस समलैंगिकों पर सख्त कानूनी कार्रवाई करने में कोई बहुत सक्रिय नहीं रही है. उन अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं जिनने अपने विक्टोरियन युग की नैतिकता के चलते भारत में यह कानून बनाया. और आजाद भारत में भी नहीं जिसने हिजड़ों की चली आ रही पुरानी संस्था को मलमास की तरह अपने समाज के ‘‘मित्र अल्प और अनैसर्गिक’’ मैथुन व्यवहार को सम्मान नहीं तो एक तरह की सामाजिकता जरूर दी है. चूंकि यह कानून सख्ती से और व्यापक रूप से कभी लागू ही नहीं किया गया इसलिए कानूनी उत्पीड़न की शिकायत नहीं की जा सकती.
हां, यह हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए कानून यानी धारा 377 का होना ही उत्पीड़न का पर्याप्त कारण हो. लेकिन यह भी उत्पीड़न तभी बन सकता है जब सामाजिक और पारंपरिक मान्यताओं का दबाव भी बहुत ज्यादा हो. मेरा निवेदन है कि माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बताए जा रहे इस फैसले से अपने समाज की पारंपरिक मान्यताएं नहीं बदलती. यह फैसला तो भारत के बहुत छोटे से छोटे वर्ग को प्रभावित करता है. लेकिन शारदा एक्ट और दहेज विरोधी कानून तो लगभग हर परिवार को प्रभावित करता है. फिर भी न दहेज प्रथा रुकी है व बाल विवाह.
यह दलील कानून और अदालती फैसलों को अप्रभावी बताने के लिए नहीं है. कहना बस यही है कि कानून और अदालती फैसलों से सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएं और पूर्वाग्रह नहीं बदलते. जो कानून सामाजिक चलन को कानूनी मंजूरी देता है वहीं सचमुच और बिना बड़ी कोशिश के लागू हो जाता है. कानून को समाज के पीछे चलना चाहिए. कानून के जरिए समाज को बदलने की कोशिशें सफल नहीं होती. साम्राज्य चलाने वाले लोग ही अपने कानून से ऐसे समाज को बदलने की कोशिश करते हैं जिसे वे नहीं जानते और जिसमें बदलाव लाने के आंतरिक उपाय जिनकी समझ से बाहर होते हैं.
समलैंगिक समानता की भारतीय लड़ाई की प्रेरणा यूरोप में है तो इसीलिए कि अंग्रेजी मीडिया में भारतीय समलैंगिकता-नपुंसकलिंगता की समझ नहीं है
दिल्ली उच्च न्यायालय के सहमति की समलैंगिकता को अपराध न मानने के फैसले से समलैंगिकता के बारे में भारतीय समाज के पारंपरिक रवैये और पूर्वाग्रह में बदलाव नहीं होगा. होगा भी तो इतने धीमे और अदृश्य तरीके से होगा कि कब हो गया इसका पता ही नहीं चलेगा. यानी समलैंगिकों और उनके समर्थकों का उत्साह आंशिक और अल्पजीवी है. जिन लोगों ने धारा 377 से सहमति की निजी समलैंगिकता को अपराध मुक्त करवाया है वे समाज के रवैये और पूर्वाग्रह को बदलने की बुनियादी सामाजिक कार्य नहीं कर रहे हैं. अगर उनके ध्यान में ऐसा बुनियादी बदलाव लाना होता तो वे अदालत के फैसले पर ऐसा जश्न नहीं मनाते. आप सच पूछें तो उनके जश्न ने समाज की संवेदनशीलता पर चोट ही की है. चोट करना भी बदलाव लाने का एक तरीका है. लेकिन वह तभी असर करता है जब उसकी प्रेरणा अंदर से आती है.
समलैंगिकता को कुल समाज स्वीकार करे इसकी प्रेरणा भारतीय समाज से निकल कर नहीं आई है. समलैंगिक लॉबी के व्यवहार और तौर-तरीके से ही साफ दिखता है कि इसकी प्रेरणा यूरोपीय या पश्चिमी समाज से आई है. उनके व्यवहार से साफ लगता है कि यह एक ऐसे समाज से आई है जिसमें विषमता और असमानता के ज्यादा बुनियादी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पहलू लगभग हल कर लिए गए हैं. यह एक ऐसे समाज की समस्या लगती है जो सहज उपभोग से अघाया हुआ समाज है और स्वाभाविक संवेदनों से इतना ऊब गया है कि उसे नित नए और सनसनीखेज उपायों की जरूरत होती है. यूरोप का विकसित और परमिसिव समाज समलैंगिकों की समानता की लड़ाई लड़ सकता है. लेकिन भुखमरी, बेरोजगारी और सब तरह की वंचनाओं में किसी प्रकार जीते हुए रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ने वाले अधिसंख्य भारतीय समाज में समलैंगिकों की समानता तो कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनती. पश्चिमी में भी ईसाइयत ने अगर लैंगिक और मैथुनिक संबंधों पर इतना कट्टर रवैया नहीं अपनाया होता तो वहां भी समलैंगिकों को ऐसा संघर्ष नहीं करना पड़ता. भारत के अंदर से अगर यह लड़ाई निकली होती तो हिजड़ों की दयनीय हालत पर ध्यान गया होता. अदालतों में जाने वाले और हवाई यात्राओं से प्रदर्शनों में भाग लेने वाले भारत के समलैंगिक कौन हैं यह सचाई किसी से छुपी नहीं है.
इस मामले पर अंग्रेजी टीवी चैनलों पर हुई बहस को आपने सुना है? वहां सवाल कुछ ऐसे बनाए जा रहे थे जैसे समलैंगिकों और समलैंगिकता का समर्थन करना प्रगतिशीलता और विकसित होने का सबूत हो और जो लोग सहज प्रकृतिक स्त्री पुरुष लैंगिकता का आग्रह कर रहे हों वे पुराणपंथी और पारंपरिक किस्म के घटिया लोग हों. इससे बड़ी मानसिक विकृति कोई हो नहीं सकती. किसी भी सभ्यता संस्कृति ने समलैंगिकता को प्राकृतिक मान कर उसका उत्सव नहीं मनाया. ईसाइयत ने आखिर पश्चिमी समाज में व्याप्त मान्यताओं को ही धार्मिक वर्जनाओं में शामिल किया. अब शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान में इतना काम हो जाने के बाद भी यही फर्क आया है कि समलैंगिकता को व्यक्त करने का एक तरीका है भले ही यह प्रजनन की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया से जुड़ी न हो. कोई भी समाज इसे सहज स्वस्थ प्रक्रिया मान कर मान्यता और सम्मान नहीं देता. यह बीमारी नहीं तो विचलन तो है ही.
लेकिन हमारा अंग्रेजी मीडिया इसे कुछ ऐसे पेश करता है जैसे समलैंगिकता को स्वीकार करना विकसित होना है. पश्चिम में यूरोप के विकसित समाज ने इसे मंजूर किया है तो यह निश्चित ही तरक्की की निशानी है. ये बेचारे नहीं समझते कि ईसाइयत ने जो कि यूरोपीय समाज का धर्म है वहां के लोगों के मन में समलैंगिकता पर कैसी वितृष्णा भर रखी है और वहां इस वर्जना से मुक्त पाना कैसी स्वतंत्रता है. भारत में पहले तो धर्म ही संगठित नहीं है फिर स्थानीयता और व्यक्तिमत्तता को बहुलता और विविधता ने खूब अच्छी तरह समो रखा है. महाभारत के महावीर अजरुन को जब पांडवों के वनवास में छद्म रूप में रहना था तो वे बृहन्नला बन कर रहे. हिजड़ों को हमारे समाज में जो एक सांस्थानिकता दी गई हे वह इसीलिए कि उन्हें भी समाज में उपयोगिता की एक भूमिका मिले. वे आम स्त्री-पुरुष से भिन्न और विचल तो माने गए लेकिन उन्हें भी जगह दी गई. दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जवाहर लाल नेहरू के हवाले से जिस ‘समावेशिता’ का गुण गाया है वह भारतीय समाज का ही एक पारंपरिक गुण है.
लेकिन हमारा अंग्रेजी मीडिया भारतीयता को भी पश्चिमी और अंग्रेजी रास्ते से ही स्वीकार करता है. और जब तक यूरोप और अंग्रेजी-समलैंगिकता और नपुंसकता की भारतीय समाज व्यवस्था में जगह को परिभाषित नहीं करती तब तक हम उन्हें ईसाइयत की नजर से ही देखते जाएंगे. हमारा यह दृष्टि दोष ही हमें यूरोप के सेकुलरज्म और भारत के सर्व धर्म समानत्व का अंतर नहीं समझने देता. ऊपर मैंने कहा है कि समलैंगिक समानता की भारतीय लड़ाई की प्रेरणा यूरोप में है तो इसीलिए कि अंग्रेजी मीडिया में भारतीय समलैंगिकता-नपुंसकलिंगता की समझ नहीं है. इसीलिए ऐसे वाक्य लिखे गए कि दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले से भारत का भूमंडलीकरण हो गया और हम उन विकसित देशों की सूची में आ गए जो समलैंगिकता को अपराध नहीं मानते.
समलैंगिकता के रुझान पर किसी से भेद करना तो अन्याय है ही और दिल्ली उच्च न्यायालय ने हमारे संविधान का हवाला ठीक ही दिया है. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि ब्रिटेन के विक्टोरियन युग की ईसाई नैतिकता भारतीय समाज की नैतिकता नहीं है. यह कहने का मतलब यह भी नहीं कि भारतीय समाज तो शुरू से ही बहुत उदार है और समलैंगिकता को स्वीकार करता है. भारतीय समाज में भी इसका सहज निषेध है. इसलिए वह दिल्ली उच्च न्यायालय और उसके प्रांगण के बाहर ‘गे लोगों’ के प्रदर्शन को सहज आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं मानता. अंग्रेजी मीडिया ने भारत के मध्य और उच्च मध्यवर्ग के कुछ लोगों की लड़ाई को भारत में न्याय की लड़ाई बना कर पेश करने की कोशिश की है.
यह एक अल्पसंख्यक – बहुत ही अल्पसंख्यक – वर्ग की लड़ाई को एक अल्पसंख्यक मीडिया का प्रोजेक्शन है. हमारा अंग्रेजी मीडिया भारत के अल्पसंख्यक अंग्रेजी समुदाय की राय बताने वाला मीडिया है. और भारत के लोगों की न्याय की लड़ाई कहीं बड़ी और व्यापक है. समझे कि नहीं?