मार्च 2001 की एक शाम, दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर के ऑडिटोरियम के बाहर काफी लोग जमा थे. इसमें डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के शौकीन भी थे और फिल्म निर्माण के क्षेत्र में जाने का सपना संजोए छात्र भी. मौका था उर्फ प्रोफेसर नाम की एक फिल्म के प्रदर्शन का. दर्शक रोमांचित थे क्योंकि फिल्म को उन्हीं दिनों चल रहे डिजिटल टॉकीज इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिल चुका था.
कुंदन शाह कहते हैं, ‘पंकज हमेशा एक तरह का पागलपन दिखाना चाहते हैं, एक ऐसा भंवर जिसमें लोग फंस जाते हैं.’
मगर फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो पाया. पता चला कि फिल्म को सेंसर बोर्ड की मंजूरी नहीं मिली थी और इसलिए इसका प्रदर्शन हैबिटेट सेंटर में नहीं हो सकता था. इसके बाद ये शो ब्रिटिश काउंसिल के ऑडिटोरियम में करवाने की व्यवस्था की गई. अफरा-तफरी में दर्शक वहां पहुंचे. फिल्म सभी को खूब भायी.
तभी से पंकज आडवाणी की प्रतिभा के चर्चे होने लगे थे. हाल ही में उनकी फिल्म संकट सिटी रिलीज हुई. समीक्षकों ने इसकी खूब तारीफ करते हुए कहा कि बहुत दिनों बाद ऐसी फिल्म देखने को मिली है जिसमें कॉमेडी स्वाभाविक लगती है. कइयों को अब भी याद था कि ये उसी शख्स की फिल्म है जिसने उर्फ प्रोफेसर बनाई थी. देखा जाए तो ये भी अपने आप में एक उपलब्धि है कि कोई ऐसी फिल्म जो रिलीज भी न हो पाई हो, आठ साल बाद भी लोगों को याद रहे. फिल्मों में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के बीच लोकप्रिय ब्लॉग पैशन फॉर सिनेमा पर एक प्रशंसक के शब्दों में तो ‘उर्फ प्रोफेसर पिछले 30-40 साल के दौरान हिंदी सिनेमा की तीन सबसे अच्छी कॉमेडी फिल्मों में से एक है.’ मगर कुछ फिल्म समारोहों के अलावा उर्फ प्रोफेसर कहीं प्रदर्शित नहीं हो सकी. आडवाणी कहते हैं, ‘जब मैं उर्फ प्रोफेसर बना रहा था तो मुझे सेंसर बोर्ड का ख्याल तक नहीं आया. मैंने वही किया जो मैं चाहता था. इसकी एक वजह ये थी कि मैं एक डिजिटल फिल्म बना रहा था. मगर इससे भी बड़ी वजह ये थी कि मुझे फिल्म बनाते हुए मजा आ रहा था.’
दर्शकों को चौंकाने के मामले में संकट सिटी, उर्फ प्रोफेसर जैसी तो नहीं है मगर इसे देखकर साफ हो जाता है कि 43 साल के आडवाणी आज भी अपने काम का मजा ले रहे हैं. उनके सिनेमा में अनुराग कश्यप से ज्यादा स्याह और कुंदन शाह की फिल्मों से ज्यादा हास्य रंग देखने को मिलते हैं. संकट सिटी को देखा जाए तो ये सत्तर और अस्सी के दशक की फिल्मों को मजे-मजे में दी गई एक श्रंद्धाजंलि की तरह लगती है. इसमें एक कार चोर की भूमिका निभाने वाले अभिनेता केके मेनन कहते हैं, ‘80 के दशक के दौरान अनगिनत फिल्मों में जो बहुत ही गंभीरता से किया जाता था पंकज ने उसकी पैरोडी की है.’
उर्फ प्रोफेसर और संकट सिटी, दोनों में भूमिका निभाने वाले मनोज पाहवा कहते हैं, ‘आप भले ही बारह-चौदह घंटे तक लगातार शूटिंग कर रहे हों मगर पंकज के साथ आपको थकान महसूस नहीं होती.’
आडवाणी की एक खूबी ये भी है कि काम करते हुए वे कभी थकते नहीं. उर्फ प्रोफेसर और संकट सिटी, दोनों में भूमिका निभाने वाले मनोज पाहवा कहते हैं, ‘आप भले ही बारह-चौदह घंटे तक लगातार शूटिंग कर रहे हों मगर पंकज के साथ आपको थकान महसूस नहीं होती.’ पाहवा याद करते हैं कि उर्फ प्रोफेसर के दौरान किस तरह उन्हें महज डेढ़ घंटे में कांदीवली में शूटिंग खत्म करके बांद्रा के एक होटल में आना था और वहां स्वीमिंग पूल में एक सीन शूट करना था. वे कहते हैं, ‘एक सेकेंड टेक का टाइम तक नहीं था मगर एक टेक में ही उन्होंने क्या कमाल का सीन फिल्माया.’
ये चमत्कार ही है कि आडवाणी लंबे समय तक इस जोश को बरकरार रख पाए. उनके कई प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चले गए थे. उर्फ प्रोफेसर के अलावा उन्होंने एक फिल्म लवेरिया भी बनाई थी. इसकी स्क्रिप्ट उन्होंने कुंदन शाह के साथ मिलकर लिखी थी. मगर ये रिलीज नहीं हो सकी. उन्होंने बीआई टीवी के लिए फोटो स्टूडियो नाम से एक धारावाहिक भी बनाया. मगर इसका प्रसारण शुरू होने से पहले चैनल ही बंद हो गया.
बड़ौदा की एमएस यूनिवर्सिटी से फाइन आर्ट्स की पढ़ाई के बाद आडवाणी ने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट से फिल्म एडिटिंग का कोर्स किया. इसके बाद वे फिल्म स्क्रिप्ट्स लिखना सीखना चाहते थे और उनकी दिली इच्छा थी कि वे ये काम कुंदन शाह से सीखें. शाह बताते हैं, ‘पंकज ने मुङो दादर स्टेशन से फोन किया. मैंने कहा, अरे बाबा, मेरे पास तुम्हारे लिए काम नहीं है. मगर उसने कहा, मैं आ रहा हूं.’
हंसते हुए आडवाणी कहते हैं, ‘उन्हें लगा कि मैं एडिटिंग का काम चाहता हूं. मगर मैं तो बस उनके साथ लिखना चाहता था.’ ये 1989 की बात है. आडवाणी कुंदन शाह से मिले और इसके बाद दोनों ने कई प्रोजेक्ट्स पर काम किया जिसमें 1993 में प्रदर्शित हुई कभी हां कभी ना भी शामिल है. आडवाणी इसके सहलेखक थे. 1993 में उन्होंने चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए संडे के नाम से एक फिल्म बनाई. इसे दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. हालांकि ये फिल्म भी सिनेमाघरों में रिलीज नहीं हो पाई.
आडवाणी ने कभी कसम खाई थी कि वे कभी टीवी के लिए काम नहीं करेंगे. मगर फिल्मी दुनिया में गाड़ी इतनी बार अटक गई थी कि परेशान होकर उन्होंने अपनी कसम तोड़ दी और चैनल वी के पास गए जिसने उन्हीं दिनों भारतीय दर्शकों को ध्यान में रखकर कार्यक्रम बनाने शुरू ही किए थे. चैनल वी के लिए उन्होंने भेजा फ्राई और तूफान टीवी नाम के दो कार्यक्रम बनाए. इन्हें बनाने के दौरान उनकी मुलाकात कई तरह के लोगों से हुई. आडवाणी बताते हैं, ‘मुझे बी ग्रेड फिल्मों के अभिनेताओं, निर्माताओं और निर्देशकों से मिलने का मौका मिला जो सेक्स, हॉरर, डाकू और टारजन टाइप फिल्में बनाते थे.’ इन कार्यक्रमों से आडवाणी ने काफी कुछ सीखा जिसकी झलक अब उनके काम में भी देखने को मिलती है. अनुराग कश्यप कहते हैं, ‘उनकी फिल्में हाशिए पर पड़े लोगों के इर्द-गिर्द घूमती हैं.’ कुंदन शाह कहते हैं, ‘पंकज हमेशा एक तरह का पागलपन दिखाना चाहते हैं, एक ऐसा भंवर जिसमें लोग फंस जाते हैं.’ आलोचकों और दर्शकों, दोनों को उनका ये अंदाज भा रहा है.