21 जुलाई 2009 को गंगूबाई हंगल का संसार से विदा होना, एक 96 वर्षीय संगीतकार का निधन मात्र नहीं है. ये अपने आप में एक विश्वविद्यालय का बंद होना है. वे इस दौर में किराना घराने का सबसे रोशन चिराग थीं. इस घराने का दूसरा सबसे बड़ा नाम उनके गुरुभाई पं. भीमसेन जोशी हैं. वे भी जीवन की सांध्यवेला में हैं
निषाद पर अद्भुत पकड़ वाले उस्ताद अब्दुल करीम खान, उनकी संगीतज्ञ बेटियों हीराबाई बरोडेकर और रोशनआरा बेगम, उनके शागिर्द पंडित रामभाऊ कुंडगोलकर (सवाई गंधर्व) और उस्ताद आमिर खान ने अपने पीछे गायिकी का ऐसा संग्रह छोड़ा है जो अपने आप में ‘राष्ट्रीय धरोहर’ है. गंगूबाई संगीत की इस विस्तृत धरोहर की आखिरी वारिस थीं, जो अपनी संपूर्ण संगीत यात्रा के दौरान कभी भी किराना घराने की मूल विशेषताओं से नहीं हटीं. भजन, अभंग या ठुमरी को एक तरफ रखते हुए उन्होंने अपने गायन में घराने की शास्त्रीयता हमेशा बनाए रखी.
दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के छह दशकों के बाद भी हमने इस विरासत को संभालने, उसे संरक्षित करने और पोषित होने की दिशा में काफी कम प्रयास किए हैं. यदि ऐसा हो पाता तो हमारे यहां पिछली पीढ़ी के मजबूत स्तंभों की जगह लेने को तैयार एक नई पीढ़ी खड़ी दिखती. चौंकाने वाली बात यह भी है कि कलाक्षेत्र में हमारी समृद्धि को बढ़ाने और पोषित करने वाली सोच भी आज भी नदारद है. पिछले महीने ही कर्नाटक संगीत की महान गायिका डीके पट्टम्मल का चेन्नई में निधन हुआ, उस समय भी मेरे दिमाग यही विचार उठे थे. पट्टम्मल भी अपने आप में संगीत विश्वविद्यालय थीं. 20वीं सदी में हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत के पुनर्जागरण युग के दो सबसे चमकीले सितारे अब आसमान में नहीं हैं. गंगूबाई और पट्टम्मल दुनिया से विदा हो चुकीं है, जल्द ही कोई इन दोनों की जगह ले पाए फिलहाल ऐसी उम्मीद नहीं है.
कर्नाटक का धारवाड़ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मामले में बेहद उर्वरा भूमि माना जाता है. गंगूबाई का जन्म भी यहीं हंगल गांव में हुआ था. देवदासी परंपरा से संबंधित उनकी मां अंबाबाई और नानी कमलाबाई को कर्नाटक संगीत में महारत हासिल थी.
शुरुआत में गंगूबाई का झुकाव नाट्य संगीत की ओर था. पास-पड़ोस में कहीं रेडियो या ग्रामोफोन पर कोई गाना बज रहा हो तो वे अक्सर वहां पहुंच जाया करती थीं और उसकी नकल करने की कोशिश करतीं थीं. संगीत की तरफ झुकाव को देखते हुए उनके परिवार ने उन्हें हिंदुस्तानी संगीत की शिक्षा देनी शुरु की. शुरुआती शिक्षा-दीक्षा के बाद उन्होंने हुबली के एस कृष्णाचार्य और दत्तुपंत देसाई से गायिकी सीखी. इसके बाद वे कुंडगोल के सवाई गंधर्व की शागिर्द बनीं. सवाई गंधर्व की शागिर्दी अपने आप में नई चुनौती थी. यहीं पर उन्हें पहली बार किराना घराना के संस्थापक उस्ताद अब्दुल करीम खान से मिलने का मौका मिला, जिन्होंने गंगूबाई से मिलते ही समझ लिया कि यह छोटी लड़की भविष्य की बड़ी संगीतकार बनने वाली है. इसके बाद गंगूबाई का असल प्रशिक्षण शुरू हुआ. अब वे हर दिन हुबली से 30 किमी दूर कुंडगाल जाने लगीं. अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति देने से पहले 13 साल तक हर दिन ये क्रम चला.गंगूबाई की संगीत साधना में सबसे बड़े रोड़े उस दौर की रूढ़ियों और समाज ने अटकाए. अपनी आत्मकथा नांना बादुकिना हादू (मेरा जीवनगीत) में वे लिखती हैं कि अपने परिवार से बाहर लोगों ने कभी उन्हें संगीत सीखने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया. कुछ बदमाश लोग रास्ते में उन्हें ‘गाने वाली’ कहकर गोबर फेंक दिया करते थे. पड़ोसी टीन के डब्बे बजाकर कोशिश करते कि वे अपना रियाज न कर पाएं.
भैरवी, आसावरी तोड़ी, भीमपलास, पूरिया धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस जैसे रागों के गायन में गंगूबाई की जैसी महारत थी, वो दुर्लभ है. बड़ा ही विचित्र विरोधाभास है कि परंपराओं से हर पल विद्रोह कर संगीत सीखने वाली यह ‘उस्ताद’ जिंदगी भर किराना घराने की गायिकी में शुद्धता की कट्टर पैरोकार बनी रही. ये उनकी गायिकी का ही करिश्मा था कि संगीत सुनना भी एक कला बन गया.