नायक, नायिका, जाति व धर्म

वह अपने ढाई किलो के हाथ से जमीन में गड़ा नल उखाड़ कर चिल्लाता है तो पूरी पाकिस्तानी सेना के होश फाक्ता हो जाते हैं. वह 120 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार पर यू टर्न ले सकता है और उसकी मोटरसाइकिल रास्ते में आने वाली रेलगाड़ियों के ऊपर से अक्सर छलांग मारकर गुजरती है. वह रिक्शे से लेकर हवाई जहाज तक चलाना जानता है. उसका दिमाग इतना तेज है कि किसी भी टाइम बम को तीन सेकंड देखकर ही वह उस तार को पहचान सकता है, जिसको हटाने से बम निष्क्रिय हो जाएगा. उसके चेहरे में वह जादू है कि वह सिर्फ मूंछें कटवा ले तो चौबीस घंटे साथ रहने वाली उसकी पत्नी भी उसे नहीं पहचान सकती.

हमारे नायक जैसा लड़का गली-मोहल्लों-सड़कों-बाजारों में कहीं नहीं दिखता. वह राम और कृष्ण का आदर्श मिश्रण है जिसकी पूजा करने का मन करता है

वह क्रूर आतंकवादी हो तो भी उसे वह रूमानी शायरी आती है जिसे सुनकर खूबसूरत लड़कियां जान छिड़कती हैं. वह अपने कॉलेज का सबसे लोकप्रिय लड़का है जो बिना ज्यादा पढ़े-लिखे बड़ा आदमी बनता है. वह इतना खुद्दार है कि फेंके हुए पैसे आज भी नहीं उठाता. वह असहायों जैसी बातें करता है लेकिन कभी किसी की सहायता नहीं स्वीकारता. बिगड़ैल होते हुए भी वह इतना चरित्रवान है कि मजबूर अनजान लड़की को अपने बिस्तर पर सुलाकर खुद अस्तबल में सोता है. स्टेशन पर जाती हुई नायिकाएं उसे पलटकर देखना नहीं भूलती और वही है जिसके ऊपर हमेशा नायिका का उड़ता हुआ दुपट्टा आ गिरता है. उसके पास बूढ़ी मौसी को मनाने के तरीके भी हैं और बावर्ची बनकर पूरे परिवार के दिल में बस जाने के भी. वह बुजुर्गो की इज्जत करता है और बच्चों को ढेर सारा प्यार. उसका बचपन किताबें बेचकर बीमार मां की दवा खरीदने में बीता है और जवानी मृत पिता का प्रतिशोध लेने में, फिर भी वह हंसमुख है और नकचढ़ी शिवानियों को हंसाना जानता है. आखिरी दृश्य में अक्सर वह पचासों गुंडों को अकेला मारकर अपने माथे पर लिखा ‘मेरा बाप चोर है’ पोंछ डालता है. वह बॉलीवुड का हीरो है.

असल में ‘क्रिश’ के आने से पहले से ही बॉलीवुड हर फिल्म को सुपरहीरो की फिल्म की तरह बनाता आ रहा है. हमारे नायक जैसा लड़का गली-मोहल्लों-सड़कों-बाजारों में कहीं नहीं दिखता. वह राम और कृष्ण का आदर्श मिश्रण है जिसकी पूजा करने का मन करता है.

हमारी फिल्मों में हर दौर के सुपरस्टारों की खूबियों और क्षमताओं के अनुरूप कहानियां गढ़ी गईं और नायक बारंबार उन्हीं खूबियों से सजी-धजी कहानियों को अपना नायकत्व देते रहे. पचास के दशक और साठ के पूर्वार्ध में तीन हीरो हिन्दी सिनेमा के परिदृश्य पर छाए रहे- दिलीप, देव और राज. दिलीप ने ग्रामीण ‘गोपी’ और उदास ‘देवदास’ बनने का जिम्मा सँभाला. देवआनंद पहले शुद्ध रोमांटिक हीरो थे, जिन्हें देखकर लाखों लड़कियों ने आहें भरना सीखा. उनके बाद यह दायित्व राजेश खन्ना और धर्मेन्द्र ने संभाला. अपने आप पर हँस सकने की क़ाबिलियत ने इंडस्ट्री को ‘आवारा’ राजू दिया जो दुख में भी मुस्कुराता था. दिलीप की अतिरंजित वेदना और देव की असामान्य खुशमिजाजी के बीच गांव से शहर आने के अपने सफर में आम आदमी के सामान्य सुख-दुख जीता यही राजू दशर्कों को अपने सबसे करीब लगा. राजकपूर ने अपनी फिल्मों से उन नायकों की शुरु आत की, जो देश और समाज के लिए भी हल्के से फिक्रमंद थे.

साठ के उत्तरार्ध में राजेश खन्ना ने देव आनंद के प्रेमी और दिलीप के ट्रेजडी किंग को मिलाकर अपना नया संस्करण पेश किया, जिसने वर्षों तक परदे को चमत्कृत किए रखा. लेकिन आजादी के बाद के सपने के लगातार धूमिल होते जाने से जो आक्रोश नए भारत में पनप रहा था, उसे कह देने के लिए अमिताभ बच्चन से जरा भी कम काफी नहीं था. वह आनंद के शांत भास्कर बैनर्जी और चुपके चुपके के बॉटनी के प्राफेसर सुकुमार सिन्हा से बिल्कुल अलग था, जिसे राजेश खन्ना और धर्मेन्द्र की परछाइयों से बाहर निकलने के लिए गुस्सैल होना पड़ा. वह आपातकाल के वर्षो के भारत का स्वर था जो नब्बे के ग्लोबलाइजेशन तक सब नायकों पर हावी रहा. वे सब नायक फुटपाथ की जूठनों पर पलकर जवान हुए थे और किसी सेठ के अवैध धन्धों को सँभालते थे. आधी फिल्म के बाद वे उन्हीं बुरी ताकतों के विरुद्ध लड़ते थे, जिनके लिए वे इंटरवल से पहले तक काम कर रहे होते थे. पिछले दशकों में प्यासा, मुग़ल-ए-आजम, मदर इंडिया और आवारा जैसी फिल्मों ने जो क्लासिक उम्मीद जगाई थी, उसे एंग्री यंगमैन का यह बुखार ले डूबा.

हां, विपरीत धारा के इस समय में भी संजीव कुमार और अमोल पालेकर सरीखे अभिनेताओं ने अपनी साधारण (असाधारण) फिल्मों से क्लर्क या इलेक्ट्रीशियन जैसी नौकरी करने वाले सामान्य से दिखने वाले नायक बॉलीवुड को दिए जो इतने चमत्कारी नहीं थे कि उनकी एक ललकार पर भीड़ उनके पीछे हो लेती. वे कभी बॉलीवुड की मुख्यधारा के हीरो नहीं थे लेकिन वे समाज की धारा के सबसे निकट थे. उस दुबले-पतले या मोटे हीरो की वापसी के लिए बॉलीवुड को लगभग दो ढाई दशक तक इरफान खान, राहुल बोस, रणवीर शौरी और अभय देओल की पीढ़ी का इंतजार करना पड़ा. इनका संघर्ष बीस साल पुराने उस रोमांटिक प्रेम, राहुल, रोहित या राज से है, जिसे ‘लवस्टोरी’ के कुमार गौरव और ‘मैंने प्यार किया’ के सलमान ने जन्म दिया. वे अमीर परिवारों के क्लीनशेव्ड लड़के हैं जो निठल्ले रहते हैं, सूट पहनते हैं, गिटार बजाते हैं, बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं, पार्टियां देते हैं, प्यार करते हैं और कभी कभी हकलाते भी हैं. उनकी प्रेमिकाएँ इतनी अमीर हैं कि उन्हें छोड़कर जाती हैं तो लंदन, पेरिस या न्यूयॉर्क ही जाती हैं. उन नायकों के जीवन की असली परीक्षा जाम में फंसी हुई गाड़ी को फ्लाइट छूटने से पहले किसी तरह हवाई अड्डे तक पहुंचाने से अधिक नहीं होती. गरीब भारत से उनका जुड़ाव नौकर की मां के बीमार होने पर उसे पैसे और छुट्टी देकर गांव भेजने तक ही सीमित है. हां, परफ्यूम, काले चश्मों और विदेशी गाड़ियों के बावजूद उसका आत्मविश्वास पिछले कुछ वर्षो में थोड़ा कम तो हुआ है या यह कहा जा सकता है कि वह सर्वगुणसंपन्न देवता के नकली कवच से बाहर निकलने की प्रक्रिया में है. ‘लक्ष्य’ में वह करियर को लेकर कनफ्यूज्ड है और ‘सोचा न था’ में प्यार को लेकर. अब उसे ‘स्वदेस’ की कुछ-कुछ याद आने लगी है और ‘दिल्ली 6’ में वह लौटकर आया है तो सुपरहीरो नहीं है. वह सवाल उठाने वाला आम भारतीय है, जिसे पुलिस भी मारती है और भीड़ भी. और हां, देवदास भी अब कभी-कभी पारो के प्यार में मौत को गले लगाने की बजाय चंदा को चुनने लगा है.

नायिका

‘कुछ कुछ होता है’ में जब रानी मुखर्जी माइक्रो मिनी स्कर्ट पहनकर कॉलेज में आती हैं तो हल्ला सा मच जाता है. रानी की नग्न टांगों के साथ आगे बढ़ते इस लम्बे सीक्वेंस से उत्पन्न उत्तेजना ‘बॉबी’ में डिम्पल के बिकिनी वाले दृश्यों से या ‘आवारा’ में स्विमसूट पहने हुई नरगिस को देखकर पैदा होने वाली उत्तेजना से ज्यादा अलग नहीं है. यह ग़ौर करने लायक बात है कि ऐसे अधिकांश दृश्यों के तुरंत बाद नायिका को अपने सच्चरित्न होने का सुबूत देना पड़ा.

समाज इतना अडिग है कि तैंतीस साल बाद ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ में परिवार की सहमति से दूसरा विवाह करने वाली विधवा को उसके पति समेत बिरादरी वाले पेड़ पर लटका देते हैं. जबकि ‘हम आपके हैं कौन’ में एक विधुर का दूसरा विवाह दर्शक बेहिचक गले उतार लेते हैं

‘कुछ कुछ होता है’ में रानी को अपने पदार्पण के ठीक अगले दृश्य में आरती गानी पड़ती है और ‘आवारा’ में नरिगस ऐसा कुछ नहीं करतीं तो राजू के हाथों पिटती है. नरगिस के राजकपूर के पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाने के बाद दृश्य खत्म होता है. सीता की अग्निपरीक्षा अलग अलग रूपों में बॉलीवुड में बार बार दोहराई जाती रही है.

कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बॉलीवुड की नायिकाएं कभी वास्तविक स्त्रियों जैसी नहीं रही. देवदास के व्याकरण में कहें तो उनके पास दो ही विकल्प छाड़े गए – या तो पारो बनकर रोती रहें या पतित होकर चन्द्रमुखी बन जाएं. बहुत जगह एक ही नायिका से दोनों काम लिए गए, लेकिन यह विशेष ध्यान रखा गया कि यदि पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहनकर, शराब पीकर या तेज गति से गाड़ी चलाकर वह अपना चरित्न खोती है तो नायक की जिम्मेदारी है कि वह उसे सुधारे और पूर्ण भारतीय नारी (जिसे कभी परिभाषित नहीं किया गया) बनाकर ही दम ले. गोविन्दा की बीसियों फिल्मों में नायक-नायिका का परिचय ही अमीरी के ग़ुरूर में डूबी नायिका द्वारा कार से एक्सीडेंट कर देने वाले सीन से होता है, जिसके बाद गोविन्दा हीरोइन को डांटते हैं, अपमानित करते हैं और उसे सही राह पर लाने की ठान लेते हैं.

‘पूरब और पश्चिम’ में सायरा बानो पर यही उपकार मनोज कुमार करते हैं, लाडला में श्रीदेवी के लिए यही काम अनिल कपूर करते हैं और यह परम्परा तब अपनी हद पर पहुँच जाती है, जब ‘रब ने बना दी जोड़ी’ में अनुष्का को सही राह दिखाने का काम स्वयं ईश्वर करते हैं.

बॉलीवुड में वेशभूषा व्यक्ति के चरित्न पर इतनी हावी रही कि सत्तर के दशक की अनेक फिल्मों में लड़की को चुस्त जींस या स्कर्ट में दिखाकर ही उसे चरित्नहीन मनवा दिया गया. इसके उलट आदर्श नायिका सलवार सूट या साड़ी पहनती थी, नजरें झुका कर चलती थी, कम बोलती थी, अपने कौमार्य को अपने जीवन से भी अधिक मूल्यवान समझती थी, सजना के लिए सजती थी और सजना के चले जाने के बाद ‘शोले’ की जया की तरह सफेद साड़ी में अभिशप्त जीवन जीती थी. उसने कभी समाज या देश के लिए कोई बुरा काम नहीं किया. किया तो हद से हद विजातीय या विधर्मीय प्रेम कर लिया. उस प्रेम को विवाह तक पहुंचाने का काम भी अक्सर नायक ने ही किया. उसका हौसला बनाए रखने के लिए नायिका ने पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचकर चार-छ: गीत गा दिए या दो-चार व्रत भर रख लिए. उसने इससे आगे दहलीज लांघी तो सामने कष्टों का पहाड़ था.

’अछूत कन्या’ में हरिजन युवती बनी देविका रानी को ब्राह्मण युवक अशोक कुमार से प्यार करने का नतीजा अंत में ट्रेन से कटकर भुगतना पड़ा और ‘बंदिनी’ में प्रेम के लिए नूतन को जेल जाना पड़ा. ‘शोले’ आरम्भ में विधवा विवाह की संभावना दिखाती है लेकिन फिल्म सब दशर्कों को पसन्द आए, इस मोह में अमिताभ को मारकर पूरा मुद्दा ही खत्म कर दिया जाता है. समाज इतना अडिग है कि तैंतीस साल बाद ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ में परिवार की सहमति से दूसरा विवाह करने वाली विधवा को उसके पति समेत बिरादरी वाले पेड़ पर लटका देते हैं. जबकि ‘हम आपके हैं कौन’ में एक विधुर का दूसरा विवाह दर्शक बेहिचक गले उतार लेते हैं क्योंकि यह तथाकथित भारतीय संस्कृति को कहीं से भी चोट नहीं पहुँचाता.

ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी फिल्मों की नायिका का यही एक रूप रहा. पचास के दशक और साठ के दशक के  आरंभिक वर्षो की कई नायिकाएं प्लास्टिक की गुड़ियों जैसी नहीं थीं. 1957 में आई ‘मदर इंडिया’ बॉलीवुड के इतिहास में नींव का पत्थर है. हालांकि यह बहस का विषय है कि नरगिस का अपने बेटे को मारना दृढ़ चारित्निक बल ही था अथवा वही त्याग और बलिदान, जिसकी केवल स्त्नी से ही अपेक्षा की जाती रही है. ‘मुग़ल-ए-आजम’ की मधुबाला भी अपने प्रेम को गर्व से स्वीकार करती है, हालांकि यह क्लासिक भी अपनी विद्रोही नायिका के प्राण लिए बिना समाप्त नहीं होती. पति के दूसरी औरत से प्रेम से उपजी पीड़ा को ‘निशांत’ में स्मिता पाटिल ने और ‘अर्थ’ में शबाना आजमी ने भी अपने अलग-अलग अंदाज में सक्षमता से निभाया है. ‘अर्थ’ बॉलीवुड के इतिहास में अपनी तरह की इकलौती फिल्म है क्योंकि ‘अर्थ’ की नायिका को पुरुष के कन्धे की जरूरत नहीं है.

पिछले कुछ वर्षों में प्रयोगवादी सिनेमा और मल्टीप्लेक्स संस्कृति के विकास ने उन नायिकाओं को जन्म दिया है, जिनमें आधुनिक भारतीय नारी अपनी छवि देख सकती है. ‘वाया दार्जीलिंग’ में पुरुष दोस्तों के साथ बैठकर शराब पीती संध्या मृदुल बुरी लड़की की तरह पेश नहीं की जाती और न ही तरक्की के लिए ‘लाइफ इन ए मेट्रो’ में बॉस के साथ सोने वाली कंगना को अंत में जान देकर अपने पापों का प्रायश्चित करना पड़ता है. ये दोनों किरदार महानगरों की आम कामकाजी लड़कियां हैं जो अपना भला-बुरा खुद समझती हैं और अपनी जरूरतों के हिसाब से अपनी प्राथमिकतां तय करती हैं. वे अपनी

शारीरिक, सामाजिक और भावनात्मक इच्छाओं को खुलकर कहने लगी हैं. ‘जिस्म’ की बिपाशा सदाचार के सब लबादे उतार फेंकती है और उसे यह स्वीकार करने में कोई परहेज नहीं है कि वह सिर्फ अपने आप से प्यार करती है और यह अचानक नहीं होता कि ‘ऐतराज’ में प्रियंका अक्षय से कहती हैं- शो मी यू आर एन एनिमल. बात पहले भी कही जाती रही है, लेकिन इस बार इसे कहने वाले होंठ किसी वेश्या या खलनायिका के नहीं, नायिका के हैं.

‘चीनी कम’ की सॉफ्टवेयर इंजीनियर तब्बू स्वयं से तीस साल बडें आदमी को जीवनसाथी चुनती है और ‘ख्वाहिश’ की मल्लिका शेरावत मेडिकल स्टोर पर जाकर कॉन्डम खरीदती है. और ‘एक हसीना थी’ की उर्मिला भी हैं जो अपनी जिंदगी तबाह कर देने वाले धोखेबाज प्रेमी से बदला लेती हैं. डॉन को जो जंगली बिल्लियां पसन्द थीं, वे अब दोस्त, पत्नी और प्रेमिका बनकर घरों में आ गई हैं. लेकिन डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ऑफिस जाने से पहले वे आज भी अपने हिस्से का दूध आपको पिलाना नहीं भूलती.

जाति व धर्म

‘मकबूल’, ‘सरदारी बेगम’, ‘जुबैदा’ तथा ‘मिशन कश्मीर’ जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो पिछले कई दशकों में न तो बॉलीवुड में कभी मुस्लिम नायक रहे हैं और न ही पृष्ठभूमि में मुस्लिम परिवेश. ‘सिंह इज किंग’ के हैप्पी सिंह से पहले कोई पगड़ी वाला सरदार भी हीरो की भूमिका में दिखा हो, याद नहीं आता. हां, पंजाबी और सिख बैकग्राउंड हमेशा से हिन्दी सिनेमा पर हावी रहा है. ईसाई नायकों की तलाश करें तो ‘जोश’ के शाहरुख, गुस्सा करते अल्बर्ट पिंटो और एंथनी गॉंजाल्वेज ही याद आते हैं. ‘बीईंग साइरस’ और ‘परजानिया’ से पहले पारसी भी हिन्दी फिल्मों से पूरी तरह गायब रहे हैं. बस पुराने मॉडल की कोई कार चला रहा ऐनक वाला अधेड़ पारसी और जवान हीरो की ओर आकर्षित होती उसकी मोटी पत्नी साल में एकाध बार दस बीस सेकंड के लिए दिखते रहे हैं. और बौद्ध तो कहीं हैं ही नहीं.

कुछ फिल्में सामाजिक सद्भाव बताती हुई कुछ ऊपर भी चली गईं. ‘शोले’ कहीं भी वीरू, जय या बसंती की जाति का जिक्र नहीं करती और वीरू-बसंती के विवाह पर मौसी को हजार आपत्तियां हैं, लेकिन जाति को लेकर कोई सवाल या शिकायत नहीं

यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्न के सबसे बड़े सिनेमा का लोकतांत्निक स्वरूप है. यदि आप बॉलीवुड की फिल्में देखकर भारत का समाजशास्त्न जानना चाहें तो इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि यहाँ के 99 फीसदी लोग हिन्दू हैं.

मुस्लिम घर-बार और संस्कृति तो साठ के दशक की ‘मेरे महबूब’ जैसी फिल्मों के बाद से तवायफों के कोठों तक ही सिमटकर रह गई है. किसी सामान्य कहानी में वह सादगी से ईमानदार और निरपेक्ष पृष्ठभूमि की तरह नहीं खड़ी हैं. ‘पाकीजा’ और ‘उमराव जान’ के अलावा या तो ‘जुबैदा’, ‘मम्मो’ और ‘सरदारी बेगम’ जैसी ऑफबीट फिल्में हैं या ‘फिजा’, ‘सरफरोश’ और ‘मिशन कश्मीर’ जैसी आतंकवाद पर आधारित फिल्में. नब्बे के बाद का फिल्मी मुसलमान या तो धर्मान्ध आतंकवादी है या दिन रात अपनी देशभक्ति को सिद्ध करने में लगा जाबांज पुलिस अफसर. वह ‘चक दे इंडिया’ में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी खेलता हो या ‘रंग दे बसंती’ में कॉलेज जाने वाला सामान्य लड़का हो, राष्ट्र के प्रति उसकी आस्था पर प्रश्नचिह्न लगाना एक नियम रहा है. कोई सलीम खान कभी ‘गजनी’ के संजय सिंघानिया या ‘कुछ कुछ होता है’ के राहुल खन्ना की जगह नहीं ले पाया. अपने देशभक्त मुस्लिम पुलिस वाले के बावजूद ‘सरफरोश’ आखिरी में यही सबक देती है कि अगर जिन्दगी को मौत बनने से बचाना है तो वे किसी भी रूप में हों, उन पर शक किया जाना चाहिए. विचित्न समानता यह है कि ‘फिजा’ और ‘मिशन कश्मीर’ की मुस्लिम नायिकाएं अपने भटके हुए भाइयों और प्रेमियों को सही राह पर लाने की कोशिश में लगी रहती हैं. अपने धर्मान्ध भाइयों के उलट वे समझदार और पढ़ी लिखी भी हैं. ‘जख्म’, ‘गदर’, ‘अनवर’ और ‘आवारापन’ तक हिन्दू लड़कों से प्रेम और विवाह करके उन्होंने अपने आधुनिक होने का परिचय भी दिया है. यह बात और है कि हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के की प्रेम-कहानी वाली फिल्म याद करने के लिए दिमाग पर काफी जोर डालना पड़ता है.

ईसाई या तो कॉंन्वेंट स्कूल के प्रधानाचार्य के पद की शोभा बढ़ाते हैं या ‘माई सन’ और ‘लॉर्ड तुमको शान्ति दे’ जैसी बातें कहने वाले पादरी होते हैं, जिनके पास शैतानी शक्तियों से सुरक्षा करने वाला लॉकेट होता है, जिसे वे हीरो को दे देते हैं और खुद असुरक्षित हो जाते हैं. तीसरी तरह के ईसाई पियक्कड़ होते हैं. जो पुलिस की मुखबिरी भी करते हैं. वे उधार मांगते रहते हैं और एंथनी की तरह लगातार बकबक करते रहते हैं. ‘मजबूर’ के प्राण इसके आदर्श उदाहरण हैं, जो कहते हैं कि ‘फिर ना कहना कि माइकल दारू पीके दंगा करता है’. इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि ईसाई अंग्रेंजों के लहजे में हिन्दी बोलें, जैसे ‘तुम’ को ‘टुम’ और ‘आएगी’ को ‘आएगा’ और ‘मैन’ शब्द का अत्यधिक प्रयोग करें. ‘सोचा न था’ और ‘सिन्स’ तक वे कमोबेश ऐसे ही हैं.

सरदार सदा मस्तमौला रहे हैं और चूंकि वे देश और विदेश में हिन्दी फिल्मों का एक बड़ा दर्शक-वर्ग बनाते हैं, इसलिए भारतीय समाज में वे चुटकुलों का स्थाई विषय होने के बावजूद फिल्मों में ऐसे नहीं हैं. वे अक्सर कनाडा या लंदन गए हीरो को टैक्सी ड्राइवर के रूप में मिलते हैं और बाद में मददगार दोस्त साबित होते हैं. वे बिला-शक़ वफादार हैं.धर्मों की तरह जातियां भी सांचों में ढली हुई हैं. फिल्म के मुख्य पात्न अधिकांशत: सवर्ण जातियों के होते हैं. उनमें भी ब्राह्मण, बनिया या पंजाबी. पुलिस या सेना का जवान निश्चित रूप से जाट या राजपूत होगा. बड़े उद्योगपति जिन्दल या सिंघानिया होंगे और चालाक सेठ होगा, लगातार ‘वड़ी सांई’ कहता रहने वाला सिन्धी या हर उंगली में सोने की अंगूठी पहने हुए मारवाड़ी.

चौकीदार के पद पर ‘सलाम शाब’ कहने वाले नेपाली गोरखे ही रहे. और इसी तरह ‘चक दे इंडिया’ भी क्षेत्नीय स्टीरियोटाइप्स से चिपकी रही. वह हर क्षेत्न की लड़कियों को ठीक उसी रूप में दिखाती है, जैसी छवि आपके दिमाग में वर्षो से बनी हुई है.

सबकी चहेती बनने की चाह में कुछ फिल्में सामाजिक सद्भाव बताती हुई कुछ ऊपर भी चली गईं. ‘शोले’ कहीं भी वीरू, जय या बसंती की जाति का जिक्र नहीं करती और वीरू-बसंती के विवाह पर मौसी को हजार आपत्तियां हैं, लेकिन जाति को लेकर कोई सवाल या शिकायत नहीं. इसी तरह ‘सागर’ में अमीर हिन्दू नायक और गरीब ईसाई नायिका के विवाह में धन की ही अड़चनें हैं, धर्म की नहीं. असल भारत में आज इतने सालों बाद भी यह असंभव सा है.

खलनायक, कामकाजी

बॉलीवुड के दस सांचे