परिवार, दृश्य

बॉलीवुड में मुख्यत: तीन प्रकार की माएं रहीं. पहली, जिनके पति जीवित थे. वे गहनों से लदी खुश मांएं थीं. वे त्योहार मनाती थीं, डिजाइनर बनारसी साड़ियां पहनती थीं और करवाचौथ के व्रत रखती थीं. यदि वे विधवा हो गई तो दूसरी या तीसरी तरह की मांएं बनीं. दूसरी मांएं नायक के बचपन में बीमार रहने वाली मांएं थीं. वे पड़ोसियों के कपड़े सिलकर नायक को पढ़ाती लिखाती थीं और इस वजह से उनकी नजर कमजोर होती जाती थी. फिर वे बिस्तर पर पड़ जाती थीं. उन्हें अक्सर कैंसर होता था और बरसात की किसी रात को जब बच्चा हीरो दवा खरीदने जाता है, वे उसके लौटने से पहले मर जाती थीं. यदि वे नायक के बड़ा होने तक जी जातीं तो तीसरी तरह की मांएं बनती. उस स्थिति में उन्हें कोई बीमारी नहीं होती. बेटा जिस दिन पुलिस इंसपेक्टर बनकर घर लौटता, वे उसे उसके पिता की तस्वीर के सामने ले जाकर भीगे नयनों से भीगी आवाज में कहतीं- आज तेरे पिताजी होते तो कितने खुश होते!

‘मुगल-ए-आजम’ के अकबर से ‘मोहब्बतें’ के अनुशासनप्रिय प्रधानाचार्य तक पिता प्राय: बच्चों के प्यार के बीच में खलनायकों की तरह खड़े रहे. उन्होंने अक्सर अपने बचपन के दोस्तों की औलादों से अपने बेटे-बेटी ब्याहने का वचन देकर मुसीबतें खड़ी की हैं 

ऐसी मांओं का एक बेटा बचपन में बिछुड़ गया होता था, जो क्लाइमेक्स में मिलता था. उससे पहले दोनों बेटे एक दूसरे की जान के दुश्मन हुआ करते थे. सत्तर के दशक की लोकप्रिय मां निरुपा राय ने जाने कितनी बार ऐसे मौकों पर कहा होगा – एक बार मुझे मां कहकर पुकारो बेटा! फिल्म की शुरुआत में किसी विपत्ति के कारण बिखर जाने वाले ऐसे परिवार की कहानी में एक पारिवारिक गीत जरूर होता था, जो परिवार के हर सदस्य को बीस साल तक अक्षरश: याद रहता था. ‘दीवार’, ‘सुहाग’, ‘राम लखन’, ‘करण अर्जुन’ समेत पचासों फिल्मों में तीसरी तरह की मांएं हर दौर की सबसे लोकप्रिय मांएं रहीं. असल में ये सब मांएं महाभारत की कुंती का ही एक अथवा दूसरा रूप थीं. ‘दिलवाले दुल्हनिया.’ की फरीदा जलाल और ‘मैंने प्यार किया’ की रीमा लागू ने नए भारत की नई मां से दशर्कों को परिचित करवाया जो अपने बच्चों की दोस्त भी थीं

‘मुगल-ए-आजम’ के अकबर से ‘मोहब्बतें’ के अनुशासनप्रिय प्रधानाचार्य तक पिता प्राय: बच्चों के प्यार के बीच में खलनायकों की तरह खड़े रहे. उन्होंने अक्सर अपने बचपन के दोस्तों की औलादों से अपने बेटे-बेटी ब्याहने का वचन देकर मुसीबतें खड़ी की हैं या मरते मरते किसी सुरेन्द्र साहनी के हाथ में बेटी का हाथ थमाकर परेशानियां पैदा कर गए हैं. उनकी खानदानी दुश्मनियों ने सैंकड़ों कहानियों की रोचकता बढ़ाई है. ‘कल आज और कल’ के जेनरेशन गैप का पहला शिकार और पहले शिकारी वे ही हैं. डाइनिंग टेबल की बीच वाली कुर्सी पर किसी और का बैठ जाना उनका सबसे बड़ा अपमान रहा है.

ज्यादातर फिल्मी पिता सख्त होते हैं, कम हंसते हैं और काम की बात ही करते हैं. ‘वक्त’ के अमिताभ की तरह बेटे को सुधारने के लिए वे उसे बहुत बार घर से निकालकर बाद में अकेले में रोते भी रहे हैं. मांएं अक्सर बच्चों के सामने यह भेद खोलती रही हैं कि तुम्हारे बाबूजी उतने कठोर नहीं हैं, जितने दिखते हैं, और है भी ऐसा ही. अमरीश पुरी चाहे ‘दिलवाले दुल्हनिया..’ के गुस्सैल पंजाबी हों या ‘गदर’ के कट्टर पाकिस्तानी, बेटियों के जिद्दी प्यार के सामने आखिर में झुकते ही आए हैं. ‘गोलमाल’ के उत्पल दत्त से लेकर ‘मुन्नाभाई’ के बोमन ईरानी तक वे कुछ कम या ज्यादा सनकी भी रहे हैं.

लेकिन इससे निरपेक्ष ‘सारांश’ के अनुपम से लेकर ‘पिता’ के संजय, ‘जागो’ के मनोज और ‘विरुद्ध’ के अमिताभ तक वे मृत बेटों और शोषित बेटियों के लिए व्यवस्था से लड़ने वाले कुछ दृढ़निश्चयी पिता भी हैं. ‘खोसला का घोंसला’ तक आते आते वे युवा पुत्नों की निकटता पाने के लिए उनके साथ बैठकर शराब जरूर पीने लगे हैं. लेकिन यह मेहरबानी बड़े हो चुके समझदार बेटों पर ही है नन्हें ईशान के लिए वे आज भी डांट और तमाचे के पर्याय ही हैं.

कोई लड़की यदि बॉलीवुड के नायक की बहन है  तो तीन बातें हो सकती हैं. या तो वह हीरो के दोस्त या सहनायक से प्यार करती होगी या फिर पहले बीस मिनट के भीतर उसका बलात्कार हो जाएगा. इनमें से दूसरी बात कम से कम मिथुन दा की बी ग्रेड फिल्मों के लिए तो बिल्कुल सटीक है ही. तीसरा विकल्प यह है कि उसका रोल बहुत छोटा हो और वह अपने भाई की प्रेम-कहानी आगे बढ़ाने या राखी बांधने के काम ही आए. बॉलीवुड ने अक्सर तीसरा विकल्प ही चुना है. और हीरो चाहे कितना ही आवारा क्यों न हो,

उसकी बहन मोहल्ले की सबसे सच्चरित्न लड़की होगी, जिसे उसके जैसे लड़के परेशान करते होंगे. यदि परिवार में नायक के बड़े भाई भी हैं तो वे अक्सर पूरी जायदाद हड़पना चाहते हैं. बीच में ‘तेरे नाम’ के सचिन खेड़ेकर जैसे पिता-तुल्य भाइयों को छोड़ दिया जाए तो वे सदा ‘प्यासा’ के महमूद जैसे ही संवेदनहीन रहे हैं. नायिका के बड़े भाई ‘अनाड़ी’ के सुरेश ऑबेरॉय जैसे होते हैं, जो अपनी बहन से बहुत स्नेह करते हैं, लेकिन साथ ही स्वयं को उसका मालिक मानते हैं. जबकि नायक के छोटे भाई हमेशा उसे अपना आदर्श मानने वाले और नायिका के छोटे भाई उससे बहुत प्यार करने वाले रहे हैं. इतना प्यार कि बहन की शादी के बाद ‘बंधन’ के सलमान और ‘हम तुम्हारे हैं सनम’ के अतुल अग्निहोत्नी बहन की ससुराल में ही रहने लगे. ‘जाने तू या जाने ना’ और ‘फिजा’ जैसी कुछ फिल्में ही भाई-बहन के रिश्ते के इससे अलग आयाम दिखाने की दिशा में उल्लेखनीय प्रयास कही जा सकती हैं.

बुजुर्ग अक्सर औलाद की उपेक्षा का शिकार हुए. मेहमानों के सामने कई बार उन्हें घर के नौकरों की तरह पेश किया गया. मगर तीसरी पीढ़ी के बच्चों ने हमेशा उनसे प्यार किया. बच्चे उनके लिए खाना चुराकर लाते रहे और अपने जेबखर्च से उनके चश्मे बनवाते रहे. नब्बे के दशक तक आते आते दादा-दादी ने उनका बदला चुकाना शुरु किया और पोते-पोतियों के प्यार को परवान चढ़ाने में मदद करने लगे.

दृश्य

लड़की हाथ में ढेर सारी किताबें लेकर जा रही होगी और लड़के से टकरा जाएगी. किताबें गिरेंगी, दोनों झुककर उन्हें उठाने लगेंगे और नजरें मिलते ही हो जाएगा पहली नजर का प्यार. कभी कभी यह पहली मुलाकात थोड़ी और करीबी होगी, जब लड़का और लड़की गिरेंगे मगर इधर उधर कभी नहीं, वे हमेशा ऊपर नीचे होंगे.

सुहागरात में गुलाब के फूलों से सजी सेज पर दुल्हन घूंघट काढ़े बैठी होगी, सिरहाने के पास मेज पर दूध का गिलास होगा और टेबल लैम्प जल रहा होगा

फिल्म के क्लाईमेक्स में किसी महत्वपूर्ण किरदार की जान जाने वाली होगी तो नायक, नायिका या उनकी दुखिया मांएं मंदिर में जाकर झोली फैलाएंगी. वह रात का समय होगा, तूफान के साथ बरसात हो रही होगी और तेज हवा से मंदिर की घंटियां अपने आप बजने लगेंगी. आखिर भगवान की मूर्ति से कोई फूल उस फैली हुई झोली में गिरेगा और उसी क्षण मृत्युशैय्या पर पड़ा व्यक्ति आंखें खोल लेगा.

सुहागरात में गुलाब के फूलों से सजी सेज पर दुल्हन घूंघट काढ़े बैठी होगी, सिरहाने के पास मेज पर दूध का गिलास होगा और टेबल लैम्प जल रहा होगा. दूल्हा दुल्हन को बांहों में भरते हुए लेटेगा तो एक हाथ से टेबल लैम्प बुझ देगा. दूध रखा रहेगा, उसे पिया नहीं जाएगा. अंधेरा होने के अगले दृश्य में दो फूल मिलते दिखेंगे या दो पक्षियों की चोंचें. सत्तर-अस्सी के दशक में मुश्किल ही कोई ऐसी फिल्म होगी जिसकी सुहागरात इससे तिनका भर भी हटकर हो.

कुछ दृश्य बॉलीवुड को इतने प्यारे रहे कि फिल्म देखते हुए बार-बार ये भ्रम होता रहा कि दृश्य महीने भर पहले देखी फिल्म के हैं. कॉलेज जाती हुई हीरोइन को छेड़ते शोहदे और उसे हीरो द्वारा बचाना भी ऐसा ही सीक्वेंस है, जिसमें गुंडे कभी असली रहे और कभी लड़की पटाने के लिए हीरो ने ही उन्हें भेजा.

ऐसे ही किसी के लापता होने पर अक्सर पुलिस को उससे मिलते-जुलते हुलिए वाली लाश जरूर मिलती है, जिसका चेहरा पहचानने लायक नहीं होता. यदि चेहरा पहचाना जा सकता है तो मुर्दाघर में शिनाख्त का एक लम्बा दृश्य होता है, मगर अंत में लाश किसी और की निकलती है.

नब्बे के आसपास फिल्म के अंत में रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डे पर हीरो को हमेशा के लिए छोड़कर जाती हीरोइन भी बहुत बार दिखने लगी. हीरो अक्सर फ्लाइट या ट्रेन के निकल जाने पर पहुंचता और दुखी होता. हालांकि यह बात एक-एक दशर्क को पता होती कि आखिरी क्षणों में नायिका का इरादा बदल गया होगा और वह वहीं खाली प्लेटफॉर्म की किसी बेंच पर बैठी होगी.

उन्हीं दिनों कुछ और नए सिद्धांत भी आए. तारे टूटने लगे और पलकें बन्द करके मुरादें मांगी जाने लगीं. किसी को बताने पर उनका पूरा होना संदिग्ध रहता, इसलिए उन्हें गुप्त रखा गया. यह मालूम करना भी बहुत आसान हो गया कि कौन किससे प्यार करता है? बस आंखें बन्द करो और जिसका चेहरा भी नजर आए, वही आपका सच्चा प्रेम है. हां, यह बात और है कि दशर्कों को सब कुछ पहले से पता होता है. मुरादें भी और प्रेमी भी.

कॉमेडी, गीत-संगीत, दर्शक

बॉलीवुड के दस सांचे