दर्द का चितेरा

तैयब मेहता आधुनिक भारतीय कला के बड़े स्तंभ थे. उन्होंने कला को कई नए आयाम दिए. वे हम जैसे कलाकारों की नई पीढ़ी के मार्गदर्शक थे. मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में पढ़ाई के दौरान हमारा उनके पास जाना होता रहता था. वे कम बोलते थे मगर उनके साथ होना ही हमारे लिए अपने आप में बड़ी बात थी. चित्रकारी के दौरान क्या-क्या करना चाहिए इसकी बजाय वे हमें अक्सर यह बताते थे कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए. मेरा मानना है कि ऐसी चीजें रचनात्मकता के पथ पर आगे बढ़ने की दिशा में बेहद अहम होती हैं.

गजगामिनी बनाते वक्त तैयब मेरे थिंक टैंक थे. मैं भारतीय सिनेमा की एक नई भाषा रचना चाहता था. कुछ लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया. मगर तैयब ने ये कहकर मेरा हौसला बनाए रखा कि मैं बड़ा काम कर रहा हूं

एमएफ हुसैन

पहले-पहल उन्होंने जब हमें अपनी पेंटिग्स दिखाईं तो हम चुप रहा करते थे. फिर हमने फैसला किया कि अगली बार से हममें से हर एक उनसे कुछ चुनिंदा सवाल पूछा करेगा. वह मौका भी आया. सवाल सुनने के बाद उन्होंने कहा, ‘तुम लोग भी कैसे बेवकूफी भरे सवाल पूछते हो?’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘मुझे लगता है कि तुम्हारा मतलब शायद ये है. इसके बाद वे अपने बेडरूम में गए और हमारे लिए एक किताब लेकर आए जबकि वे अपनी किताबें कभी किसी को नहीं देते थे. कभी-कभी वे अपनी किसी पेंटिग के बारे में हमसे पूछते थे. जब हम उसमें रंगों के प्रयोग या किसी दूसरी विशेषता के बारे में कुछ कहते तो उनकी आंखों में एक चमक आ आती थी.

उनकी कला में काफी गहराई होती थी. अंग विच्छेद वाली और गिरती आकृतियों का जो प्रयोग उन्होंने 70 के दशक में शुरू किया वह कला की दुनिया को उनका महत्वपूर्ण योगदान है. उनके चित्रों में आपको रिक्शा खींचने वाले, बंधे हुए सांड और चीखते हुए मुंह जैसी चीजों के दर्शन होते हैं जो बताता है कि उनकी चेतना आम जिंदगी से जुड़ी हुई थी. हिंसा, आतंकवाद और समुदायों के बीच आपसी विश्वास की कमी से वे बेहद परेशान थे. उनके लिए तो चीखना या फिर जोर-जोर से बोलना तक हिंसा का एक स्वरूप था. तैयब खुद को दर्द का चितेरा कहते थे.

छात्र जीवन में मैंने उनकी फिल्म कूडल (मिलन के लिए तमिल शब्द) देखी थी. 18 मिनट की ये फिल्म इतनी असरदार थी कि सत्यजित रे ने भी इसकी तारीफ की थी. इसमें एक सांड की हत्या का दृश्य बहुत सजीव तरीके से फिल्माया गया था. शायद इसी घटना से उन्हें अपनी एक मशहूर पेंटिग ट्रस्ड बुलकी प्रेरणा मिली. ये फिल्म सिनेमा की विधा पर तैयब की मजबूत पकड़ का सबूत थी. उनकी पृष्ठभूमि सिनेमा से थी और उनका परिवार मुंबई और पुणे में कई सिनेमाहाल्स चलाता है. उन्होंने करिअर की शुरूआत बतौर फिल्म एडिटर की थी मगर फिर तबियत खराब रहने के कारण इसे छोड़ दिया. वे महाश्वेता देवी के उपन्यास हजार चौरासी की मां पर एक फिल्म बनाना चाहते थे. कई साल के इंतजार के बाद आखिर उन्होंने इस फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम किया और गोविंद निहलानी ने फिल्म निर्देशित की. हालांकि मूल रूप से वे चित्रकार ही थे. वे धीरे-धीरे काम करते थे और छोटी-छोटी चीजों को लेकर भी इतने सतर्क रहते थे कि कई बार किसी कृति को अंतिम रूप देने तक वे तीन-चार कैनवास नष्ट कर चुके होते थे. उनका मानना था कि जिस कला को सार्वजनिक होना है उसमें कोई खोट नहीं रहना चाहिए.

प्रोगेसिव आर्ट ग्रुप की विभूतियों वीएस गायतोंडे, एसएच रजा, अकबर पदमसी और हुसैन साहब को मैं आधुनिक भारतीय कला के उस्तादों में शुमार करता हूं. मेरी पीढ़ी के कलाकार इनका काम देखते हुए बड़े हुए. हालांकि तैयब का मेरी कला पर तो कोई प्रत्यक्ष असर नहीं पड़ा क्योंकि मेरी शैली अलग थी, मगर एक विचारक के तौर पर उन्होंने मेरा काफी मार्गदर्शन किया. उनसे ही मैंने जाना कि कलाकार को किन-किन चीजों के लालच में नहीं पड़ना चाहिए और कहां-कहां पर उसका पैर रपट सकता है. उन्होंने ही मुझे बताया कि जब कोई विषय सफल हो जाता है तो किस तरह कलाकार में उसे बार-बार इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है.

समय बदल गया है और अब भारतीय कला में सारी दुनिया की दिलचस्पी है. इस दिलचस्पी का एक बड़ा श्रेय तैयब को भी जाता है. जब क्रिस्टी जैसी कलादीर्घा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी कृतियों की नीलामी की तो भारतीय कला के लिए ये एक बड़ी बात थी. महिषासुर नाम की उनकी एक पेटिंग जब पंद्रह लाख डॉलर यानी सात करोड़ रुपये से भी ज्यादा कीमत में बिकी तो दुनिया ने दांतों तले उंगली दबा ली थी. हालांकि जब बाजार और मांग जैसी चीजें नहीं थी तब भी तैयब उतना ही रचनात्मक काम करते थे. तब भी उनमें उतना ही सरोकार, समर्पण और जुनून था जिसके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा.