जो तैरे धारों के विपरीत

वे दलित परिवार में पैदा हुए थे इसलिए कदम-कदम पर सामाजिक तिरस्कार और तमाम दूसरी मुश्किलें उनकी नियति थी. बावजूद इसके उन्होंने हौसला नहीं खोया और कामयाब हुए. निशा सूजन का आलेख, सहयोग संजना

जिस अमेरिका के बारे में आज ये कहा जाता है कि वहां सबके लिए अवसर हैं उसी अमेरिका के नस्लभेदी इतिहास में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जब लंबे समय तक अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के लोग खुद को अश्वेतों से अलग जताने की कोशिश करते रहे ताकि वे अवसरों और अधिकारों से वंचित न रह जाएं. न्यूयॉर्क टाइम्स  के प्रसिद्ध साहित्य समालोचक एनातोली ब्रोयार्ड इनमें सबसे चर्चित नाम हैं जो आखिरी समय तक अपनी अश्वेत पारिवारिक पृष्ठभूमि से इनकार करते रहे. उनका ये व्यवहार कई किताबों, लेखों, फिलीप रॉथ के उपन्यास द ह्यूमन स्टेंस, जिस पर 2003 में इसी नाम की फिल्म भी आई, की प्रेरणा बना. 1979 में एक लेख में ब्रोयार्ड ने अपने दोहरे जीवन के पीछे छिपी पीड़ा को बयां करते हुए लिखा, ‘मुझे लगता था कि लोग हमें घूरते हैं. मेरा चेहरा लाल हो जाता था.

तीन दशक बाद दुनिया के एक दूसरे हिस्से भारत की राजधानी दिल्ली में रहने वाले 34 वर्षीय वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सुमित बौद्ध अपने एक लेख में लिखते हैं कि किस तरह उन्होंने नेशनल लॉ स्कूल में अपनी दलित पहचान को छिपाने से इनकार कर दिया. उनके शब्द हैं, ‘मेरे मां-बाप ने कभी मुझे ये बात नहीं बताई थी. दलित होने की वजह से हुए कड़े अनुभवों और अपमान के चलते उन्हें शायद लगा कि मुझे ये नहीं बताना बेहतर होगा. उन्होंने एक नकली जाति निंबेकर रख ली ताकि मैं ऊंची जाति का हिंदू लगूं. यहां तक कि उन्होंने कभी मेरे लिए अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र बनवाने की भी कोशिश नहीं की जिससे शिक्षा और रोजगार में काफी मदद मिलती है. इसलिए स्कूल और कॉलेज के दौरान मैं एक तरह से छिपा हुआ दलित रहा. मैंने अपनी वास्तविक पहचान 18 साल की उम्र में जाहिर की.

सुमित उन अनगितन नौजवानों में से एक हैं जो दलित होने की वजह से रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाली मुश्किलों और अपमानों के बावजूद अपनी पहचान पर डटे हैं. उन्होंने अपने अधिकार लड़कर हासिल किए हैं. चुनावी राजनीति और आरक्षण पर बहस के इतर वे खुशी और ऊर्जा के साथ उस राह पर आगे बढ़ रहे हैं जो दूसरे नौजवान दलितों को भी सफलता की प्रेरणा दे सके. वे उन लोगों में से एक हैं जो दलित पहचान के लिए प्रोत्साहन हैं.

ये ऐसे ही कुछ दलितों की कहानियां हैं.

जातिगत भेदभाव सबसे पहले मुंबई के एक कॉरपोरेट ऑफिस में झेलना पड़ा

यवतमाल के खेतों से मुंबई में एक शानदार फ्लैट तक का सफर तय करने वाले आनंद तेलतुंबड़े नौजवान दलितों में आत्मविश्वास की कमी से चिंतित हैं.

आनंद तेलतुंबड़े ने जब खैरलांजी हत्याकांड के बारे में सुना तो उस वक्त वे चीन में थे. जब वे लौटे तो ये देखकर उन्हें बेहद झटका लगा कि मीडिया ने कुछ ही दिन में इस मुद्दे पर खामोशी ओढ़ ली थी. आनंद यवतमाल जिले के एक गांव के रहने वाले थे जो खैरलांजी से ज्यादा दूर नहीं था. अब भले ही वे मुंबई के नेपियन सी रोड जैसे संभ्रांत इलाके में रहते हों मगर सफलता इस विद्रोही बच्चे को जरा भी नहीं बदल पाई है जो जो क्रांतिकारी भगत सिंह के विचार पढ़कर बड़ा हुआ है.

आनंद को एक ऐसे बुद्धिजीवी के तौर पर जाना जाता है जो दलित आंदोलन को लेकर जरा भी झुकने को तैयार नहीं. खैरलांजी : अ स्ट्रेंज एंड बिटर क्रॉप नामक किताब से उनकी निडर सोच लोगों के सामने आई. कठोर स्वर में आनंद कहते हैं, ‘मैंने इसे इसलिए लिखा कि इसने सरकार, मीडिया, समाज और खुद दलित आंदोलन की भूमिका की तहें खोलीं. नहीं तो इसकी क्रूरता के बावजूद खैरलांजी में कुछ भी अनोखा नहीं है. ऐसी घटनाएं रोज होती रहती हैं. ये हमारी व्यवस्था का हिस्सा हैं.

आनंद के माता-पिता अनपढ़ थे. उनकी आय का स्रोत था चूना फैक्टरियों और खेतों में मजदूरी का काम. आठ भाई-बहनों में आनंद सबसे बड़े हैं. शुरुआती पढ़ाई के बाद उन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली, फिर आईआईएम अहमदाबाद गए और इसके बाद मैनेजमेंट में पीएचडी किया. वे कहते हैं, ‘जब मैं बड़ा हो रहा था तो दलित शब्द का मतलब एक तरह की श्रेष्ठता और गर्व की भावना होता था. ये विडंबना है कि पहली बार जातिगत भेदभाव का सामना मुझे मुंबई के एक कॉरपोरेट ऑफिस में करना पड़ा.

आनंद नौजवान दलितों के बारे में काफी चिंतित हैं जो असफलता और आत्मविश्वास की कमी का शिकार हैं. वे कहते हैं, ‘अंबेडकर के नेतृत्व ने दलितों में आत्मस्वाभिमान जगाया. मगर अंबेडकर के बाद क्या हुआ? बिखरते, नोटों के लिए बिकते और आरक्षण को रामबाण की तरह पेश करते हमारे नेता आखिर नौजवानों में गर्व और आत्मस्वाभिमान की भावना कैसे जगा सकते हैं?’

लाचारी से कलाकारी तक

बादल नाजुंड़ास्वामी से जब भी कहा गया कि वे कोई काम नहीं कर सकते तो उन्होंने कहने वाले को गलत साबित किया

30 साल के बादल नांजुड़ास्वामी की जिंदगी में एक चीज की निरंतरता रही है. जब भी किसी ने उन्हें खारिज किया उन्होंने सफलता हासिल कर दिखाई. 20 साल की उम्र में उनसे कहा गया कि वे मैसूर के स्थानीय आर्ट्स कॉलेज में नहीं पढ़ सकते क्योंकि ट्यूशन फीस सहित कई दूसरे खर्चे उनके लिए बहुत महंगे हैं. बादल ने 2000 रुपये में एक बीड़ी की दुकान खरीदी और इसमें साइनबोर्ड पेटिंग का काम खोल लिया. इससे होने वाली आमदनी से उन्होंने कालेज की पढ़ाई का खर्चा चलाया.

25 साल की उम्र में उन्हें बताया गया कि वे कितनी भी कोशिश कर पढ़ाई में गोल्ड मेडल हासिल नहीं कर सकते. कॉलेज के एक लेक्चरर ने इसकी वजह बताते हुए उनसे कहा कि वे ब्राह्मण नहीं हैं और यज्ञोपवीत न पहनने वाले के गोल्ड मेडल जीतने की संभावना न के बराबर होती है. बादल ने इस चुनौती को स्वीकार किया और दो गोल्ड मेडल्स जीते. कॉलेज के 27 साल के इतिहास में ये उपलब्धि हासिल करने वाले वह अकेले दलित थे. दो साल बाद ही ओगिल्वी एंड मैदर ने उन्हें अपने बंगलुरु ऑफिस में विजुअलाइजर के पद की पेशकश की. अपने कॉलेज से इस जानी-मानी एड एजेंसी में नौकरी पाने वाले वे सिर्फ तीसरे छात्र थे.

अपने बचपन के बारे में बात करते हुए बादल बताते हैं, ‘मैं मैसूर के कुकरेहल्ली स्थित एक साधारण सरकारी स्कूल में पढ़ा. वहां लोग आपके इलाके का नाम सुनते ही समझ जाते थे कि आप दलित हैं. ब्राह्मण और ऊंची जातियों के लोग हमसे कुछ फासले पर रहा करते थे. हालांकि अलग-अलग जातियों के मेरे कई दोस्त थे मगर भेदभाव हमेशा दिख जाता था.

मगर जाति व्यवस्था के खिलाफ बादल का विरोध सिर्फ निजी अनुभव से नहीं उपजा. नाराजगी जताते हुए वे कहते हैं, ‘ये सुनकर बहुत पीड़ा होती है कि देश में आज भी दलितों को जिंदा जलाया जा रहा है. उतनी ही पीड़ा ऐसे अमीर दलितों को देखकर भी होती है जो समुदाय से पीठ मोड़े हुए रहते हैं.

बातचीत के दौरान बादल की आवाज में हर जगह सच भी झलकता है और पीड़ा भी. कई मुद्दों पर उनका साफ नजरिया देखकर हैरत होती है. आज भी उनके दोस्तों में अलग-अलग जातियों के लोग हैं और उनकी पत्नी दलित नहीं हैं. उनकी नजर में अंबेडकर एक विचारधारा हैं जिसे रोज जीवन में उतारा जाना चाहिए और उनकी महत्ता सिर्फ विशेष मौकों पर उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण तक सीमित नहीं होनी चाहिए. मायावती उनके लिए सिर्फ इसलिए तारीफ के काबिल हैं कि दलित होने के बावजूद वे इतने बड़े मुकाम तक पहुंचीं. इसके अलावा बादल को उनमें कोई और विशेषता नजर नहीं आती. वे मानते हैं कि भेदभाव से लड़ने का सिर्फ एक ही तरीका है और वह है हर क्षेत्र में घुस कर और डटे रहकर शीर्ष तक पहुंचना.

आखिर में क्या कहना चाहेंगे, इस सवाल के जवाब में बादल कहते हैं, ‘अंबेडकर के बाद हमें एक भी दलित नेता नहीं मिला. हमें ऐसे नेताओं की जरूरत है जो लोगों को आपस में जोड़ने का काम करें. 

मारपीट नहीं मार्गदर्शन है हल

कभी अपनी जाति जाहिर न करने वाले अनूप कुमार आज दलित छात्रों को अपनी पहचान पर गर्व करने के लिए प्रोत्साहन देते हैं

अनूप कुमार ने जिस साल इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया उसी साल मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आईं थीं. पहले ही दिन फिजिक्स के लेक्चरर ने एससी/एसटी कोटे के तहत दाखिला पाने वाले छात्रों को खबरदार कर दिया. उनके शब्द थे, ‘बेहतर होगा कि वे मेहनत कर लें क्योंकि उनकी कॉपियां मैंने जांचनी हैं, मायावती ने नहीं.

तब तक अनूप को थोड़ा-बहुत अंदाजा हो चुका था कि दलित होने का मतलब क्या होता है. धोबी समुदाय से ताल्लुक रखने और लखीमपुर खीरी के रहने वाले उनके पिता अपनी पीढ़ी के पहले ऐसे व्यक्ति जिन्हें हिंदी, संस्कृत और उर्दू में महारत हासिल थी. मगर तमाम गुणों के बावजूद उन्हें 70 के दशक में खंड विकास अधिकारी या बीडीओ के पद से इस्तीफा देना पड़ा. गांववाले उन्हें अछूत मानकर पानी तक पीने को नहीं देते थे और वरिष्ठ अधिकारियों को उनकी विद्रोही और खरी जबान नहीं भाती थी.

हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए जब अनूप लखनऊ के एक स्कूल में भर्ती हुए तो उन्हें पता था कि उन्हें क्या करना है. उन्होंने खुद को राजपूत बताना शुरू किया. मगर नकलीपन ओढ़ते ही उन्हें ये भी अहसास हो गया कि इसकी कोई सीमा नहीं है. अब उन्हें नकली गोत्र जैसी और भी चीजों को याद रखना था.

कानपुर में कॉलेज में दाखिला लेते वक्त तक अनूप को पता चल चुका था कि पढ़ाई में उनके अब तक के शानदार रिकॉर्ड के बावजूद लेक्चरर ये जताने से नहीं चूकने वाले कि वे उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं करते. उनके भीतर का विरोध अब बाहर आने लगा. सेकेंड ईयर में उन्होंने दलित फ्रेशर्स के लिए एक वेलकम पार्टी कॉलेज से सात किलोमीटर दूर आयोजित करवाई क्योंकि वे कॉलेज में जातिगत आधार पर काम करने का आरोप नहीं झेलना चाहते थे. थर्ड ईयर तक आते-आते अनूप का नाम कॉलेज कैंपस में मारपीट के लिए जाना जाने लगा था. उन्होंने ये सुनिश्चित किया कि वे अक्सर बदमाश टाइप लोगों के साथ नजर आएं ताकि कोई दलित छात्रों के साथ रैगिंग के नाम पर बदतमीजी न कर सके. उसी साल उनके एक दोस्त को ऊंची जाति के कुछ छात्रों ने इतना पीटा कि पेट और आंखों में गंभीर चोटों के साथ उसे अस्पताल पहुंचाया गया. हर किसी ने इसके लिए ये कहते हुए अनूप को जिम्मेदार ठहराया कि उन्होंने कैंपस में एक ऐसा माहौल बना दिया है जिसमें दलितों को लगता है कि वे अपनी पहचान पर डटे रह सकते हैं.

इसके कुछ ही हफ्ते बाद अनूप के सामने ही एक प्रोफेसर किसी दलित छात्र की खिंचाई कर रहे थे. सालों का उबलता गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने प्रोफेसर की पिटाई कर दी. कानूनी पचड़ों के डर से कॉलेज ने अनूप को निकाला तो नहीं मगर उन्होंने अपने पिता से कह दिया, ‘अगर आपने मुझसे यहां रुकने को कहा तो या तो मैं किसी को मार दूंगा या कोई मुझे मार देगा.दुखी पिता और तीन भाई, जिन्होंने उनकी पढ़ाई पर काफी पैसा लगाया था उन्हें घर ले आए.

एक दशक बाद 32 साल के अनूप अब पीएचडी करने की सोच रहे हैं. जीवंतता से किसी चीज का वर्णन उनकी खासियत है. वे उनसे नफरत नहीं करते जिन्होंने उन्हें परेशान किया और कहते हैं कि दोष उनका नहीं सामाजिक व्यवस्था का है. दलित छात्रों के लिए पिछले पांच साल से वे इनसाइट यंग वॉयसेज के नाम से एक पत्रिका निकाल रहे हैं जो देश के 50 विश्वविद्यालयों में छोटी ही सही पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है. नेशनल दलित स्टूडेंट्स फोरम बनाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही.

इंजीनियरिंग कालेज के बुरे अनुभव से हिल चुके अनूप ने घर के पास एक आर्ट्स कालेज में दाखिला लिया और बहुत अच्छे अंक हासिल किए. उन्होंने सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा पास की. इसके बाद वे मास्टर डिग्री के लिए दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आ गए. वे कहते हैं, ‘यहां आकर मुझे बड़ी हैरत हुई क्यों कि यहां दलित पहचान को लेकर काफी खुलापन था.अनूप पक्का इरादा करके आए थे कि यहां किसी पचड़े में नहीं पड़ेंगे. मगर सबसे पहले ही जिस व्यक्ति से उनकी मुलाकात हुई वह दलित कार्यकर्ता था. हंसते हुए वे कहते हैं, ‘साला, उसने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी.

कुछ समय तक अनूप जेएनयू के राजनीतिक हलकों में सक्रिय रहे. उन्होंने अंबेडकर और ज्योतिबा फुले की किताबें पढ़ीं और इस दौरान खूब आंसू बहाए. उनकी मुलाकात एक नौजवान दलित छात्रा से हुई जिसका ऊंची जाति से ताल्लुक रखने वाले उसके प्रेमी ने शोषण किया था. उन्हें लगा कि विचारधारा तो ठीक है मगर दलित छात्रों की कुछ और जरूरतें हैं जिन पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है. उन्होंने अपने कमरे को लाइब्रेरी में बदल दिया और अंग्रेजी और कंप्यूटर की कक्षाएं आयोजित करने लगे. सिविल सेवा के सपनों को तिलांजलि दे दी गई. अनूप के घरवाले नाराज हो गए. उनका कहना था कि एक नौजवान दलित अपने समुदाय के लिए एक निवेश की तरह होता है. उसने खूब मेहनत करनी चाहिए और एक दलित लड़की से ही शादी करनी चाहिए. ये बताते हुए अनूप उस असहजता को हल्का करने की कोशिश करते लगते हैं जो उनके समुदाय में उनकी सामाजिक सक्रियता और गैर दलित गर्लफ्रेंड को लेकर है.

अनूप का नजरिया साफ है. वे कहते हैं, ‘उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दलितों के लिए कदम-कदम पर खतरे हैं. वे वहां तक पहुंचने के लिए खूब मेहनत करते हैं मगर वहां पहुंचने के बाद उनका आत्मविश्वास चकनाचूर हो जाता है. डिग्री पाने के बाद वे नहीं चाहते कि उन्हें कभी भी फिर से दलित के रूप में पहचाना जाए.अनूप और उनके दोस्त ऐसे छात्रों को भरोसा दिलाते हैं कि वे दलित होने में गर्व का दावा कर सकते हैं और यह भी कि उनके कंधों पर अपने जैसे दूसरे छात्रों को प्रेरणा देने की भी जिम्मेदारी है.

अनूप के मुताबिक ये बहुत जटिल काम है खासकर ये देखते हुए कि समुदायों में गर्व की भावना इतिहास से जुड़ी होती है. वे कहते हैं, ‘हमारे पास न कोई राजा हैं और न योद्धा. हमारा इतिहास बस शोषण का इतिहास है. हम अपने नौजवानों के लिए प्रेरणास्रोत कहां से लाएं? हमारी मांग कोटा नहीं दलित लेक्चरर हैं. हम चाहते हैं कि कैंपस में कोई ऐसा हो जो नौजवान दलित छात्रों की खुद से उम्मीदों को बढ़ा सके.

एक दशक पहले कैंपस में एक घटना के दौरान गुस्से में उबलते हुए वे चिल्लाए थे कि वे मायावती के पास जाएंगे. आज बसपा के बारे में पूछने पर अनूप कहते हैं, ‘मायावती के पास एक राजनीतिक भविष्य है मगर बसपा का राजनैतिक कार्य पूरा हो चुका है. अब हम बसपा के बाद वाले दौर में हैं. जब मीडिया मुझसे भ्रष्टाचार या प्रतिमाओं पर टिप्पणी के लिए कहता है तो वह ये नहीं समझता कि मायावती को वोट देना मेरे लिए अपना राजनैतिक हक जताना है. मैं उन्हें वोट देता हूं क्योंकि मैं ऐसा कर सकता हूं.

कई वार, पर आत्मविश्वास बरकरार

उनके सांवले रंग को देखकर भले ही मकान मालिक उन्हें मकान किराए पर देने से इनकार कर देते हों मगर सेंथारिल ऐसी घटनाओं से हिम्मत नहीं हारतीं

अपने नाम का अर्थ बताते सेंथारिल मुस्करा देती हैं. इसका मतलब होता है लाल अंकुर. यह एक क्रांतिकारी तमिल नाम है.पेशे से पत्रकार 26 साल की सेंथारिल बंगलुरू में रहती हैं और एक राष्ट्रीय अखबार के लिए काम करती हैं. लोग उनसे कहते थे कि वे इस पेशे के लिहाज से बेहद शर्मीली हैं. ये सुनकर उन्हें गुस्सा आता था और इसीलिए उन्होंने अपना विषय पत्रकारिता चुना. स्कूल और कॉलेज के दौरान सेंथारिल और उनके भाई, दोनों पढ़ाई में तेज छात्र रहे. उनके पिता अपनी पीढ़ी के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने रूढियों की बेड़ियों के आगे झुकने से इनकार करते हुए गांव छोड़ दिया था. दरअसल गांव में ऊंची जाति के लोगों का बोलबाला था जो ये तक नहीं देख सकते थे कि जब वे चल रहे हों तो रास्ते में किसी दलित की परछाई भी पड़ जाए. हालांकि पीएचडी का सपना संजोए चेन्नई आने पर भी सेंथारिल के पिता को तब निराशा का सामना करना पड़ा जब कोई भी प्रोफेसर उनका गाइड बनने के लिए तैयार नहीं हुआ. उन्होंने ठान ली कि उनके बच्चे कभी आरक्षण का फायदा नहीं उठाएंगे. मगर बेहतरीन वकील होने पर भी उनके बेटे को भी एक ऐसा वरिष्ठ वकील नहीं मिला जो उसे मार्गदर्शन दे सके.

सेंथारिल के माता-पिता ने आखिरकार कर्नाटक में बसने का फैसला किया. यहां उनके पिता को लेक्चरर की नौकरी मिल गई. हाल ही में उनके परिवार में ये सुनकर रोमांच का माहौल था कि केंद्र सरकार उस याचिका पर विचार कर रही है जिसमें मांग की गई है कि अंबेडकर जयंती को स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाया जाए. इस याचिका में सेंथारिल के पिता की भी भूमिका थी. बातचीत के दौरान सेंथारिल कुछ समय पहले हुई एक घटना के बारे में बताते हुए हुए कहती हैं, ‘हमारे एक दोस्त ने हमारे लिए एक घर खोजा और मकान मालिक इसे किराए पर देने के लिए राजी हो गए. अगले दिन जब उन्होंने हमें यानी काले रंग के किरायेदारों को देखा तो उन्होंने घर देने से इनकार कर दिया.सेंथारिल कहती हैं कि वे कई दलित लड़कियों को जानती हैं जिनकी जिंदगी हर समय पहचान खुल जाने के डर के बीच गुजरती है. वे कहती हैं, ‘आप किसी के साथ काम करते हैं और सब ठीक चलता है. फिर एक दिन आपको घर पर बुलाया जाता है और आप हर समय ये सोचकर घबराते रहते हैं कि कहीं अगर आपने किचन में किसी चीज को छू लिया तो अगला कहीं नाराज न हो जाए.

सेंथारिल के माता-पिता ने बचपन से उन्हें ये बात सिखाई है कि दूसरे दलित नौजवानों की हरसंभव मदद करना उनका कर्तव्य है. वे कहती हैं, ‘जब आप दूसरों से बात करते हैं तो आपको अहसास होता है कि ये सब झेलने वाले आप अकेले नहीं हैं. इस तरह आप खुद में आत्मविश्वास पैदा करते हैं.

मुक्ति की राह पर

कवियत्री और अनुवादक मीना कंदासामी का लेखन पहचान के प्रति तमाम पूर्वाग्रहों से उनके संघर्ष को दर्शाता है

विषयों का उत्तेजक होना मीना कंदस्वामी की कविताओं की विशेषता है लेकिन जब यह युवा लेखिका अपनी कविताओं का पाठ करती है तब उसके व्यक्तित्व का अनूठापन और अनुभवों की कड़वाहट भी माहौल में एक अलग तरह का आवेश पैदा करती है. मीना का पहला कविता संग्रह टचजब प्रकाशित हुआ था तो वे 23 साल की थीं. अपनी कविताओं के विषय पर वे कहती हैं, ‘प्यार और उसकी राजनीति मेरी कविताओं को समृद्ध करती है. अक्सर जातिगत अत्याचार की जड़ में अतंरजातीय प्रेम संबंध होते हैं.इंटरनेट की लती 25 वर्षीय मीना की पहली कहानी द स्यूसाइड्स इनबॉक्स दो महिलाओं के पारस्परिक संबंधों पर आधारित है.

प्रोफेसर माता-पिता की संतान मीना ने अपनी पढ़ाई प्राइवेट माध्यम से की. वे कहती हैं, ‘मुझे पता था कि यदि मेरी दलित पहचान को लेकर कॉलेज में कोई टिप्पणी की जाएगी तो मैं शांत नहीं बैठूंगी, ये वक्त की बर्बादी ही साबित होता.हर तरह के दमन के खिलाफ अपने बगावती तेवरों को मीना अपनी दलित पहचान से जोड़कर देखती हैं. तमिलनाडु जिसने नंदानार (तमिल संत जिनके बारे में कहा जाता है कि शिव पूजा करने कारण उनकी हत्या कर दी गई थी.) के समय से ही कई बड़े दलित आंदोलन देखे हैंमें रहने के अपने अनुभव पर मीना कहती हैं, ‘ यहां भेदभाव शिष्टाचार की खाल ओढ़े होता है. मैं यह बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह रही लेकिन मैं ब्राह्मण हूं या नहीं ये जानने के लिए दिन में कम से कम एक बार तो मुझसे पूछ ही लिया जाता है कि मैं शाकाहारी हूं या मांसाहारी?’

मीडिया में दलित हस्तियों की खबरों पर बारीक नजर रखने वाली यह कवियत्री कहती हैं, ‘लोग चर्चा करते हैं कि दलितों से दुर्गंध आती है लेकिन जब कोई दलित चुनाव में खड़ा होता है तो कहते हैं कि फलां-फलां दलित बहुत महंगा पफ्र्यूम लगाता है.मीना के पास उदार वाम विचारधारा वाले लोगों सें संबंधित भी कुछ मजेदार बातें हैं वे बताती हैं, ‘ हमारी सेक्सुअल फ्रीडमको लोग बहुत उत्तेजक मानते है, उन्हें लगता है कि हम बंधनमुक्त होते हैं. एक बार जब मैं वाम विचार धारा वाले एक राष्ट्रीय अखबार के संपादक  से मिली तो उन्होंने अपने किसी साथी को यह पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी की क्या मैं असल में दलित हूं? क्योंकि मैं अच्छी अंग्रेजी बोल रही थी.मीना कहती हैं कि अनुवाद के काम के दौरान और पीएचडी लिखते समय उन्हें हर दिन भाषायी पूर्वाग्रहों से जूझना पड़ता है. अपने ब्लॉग पर स्थानीय राजनीति के बारे में लिखने वाली मीना फिलहाल एक उपन्यास लिख रही हैं. यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने अपने लिए इसी तरह की जिंदगी का सपना देखा था, उनका जवाब होता है, ‘मैं अपने लिए कई दूसरी तरह की जिंदगियों के बारे में सोचा करती हूं.’ 

तकनीकी और शहरीकरण से असली बदलाव आएगा

उपन्यासकार अजय नवरिया दलित सशक्तिकरण के लिए सांस्कृतिक क्रांति की भूमिका महत्वपूर्ण मानते हैं

अजय नावरिया जामिया मिलिया इस्लामिया में सहायक प्राध्यापक हैं और शायद देश में पहले दलित शिक्षक होंगे जो किसी विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र पढ़ाते हैं. 37 साल के उभरते हुए चर्चित हिंदी साहित्यकार नावरिया शहरीकरण और तकनीकी को असल मुक्तिदाता मानते हैं और इस विश्वास की छाप उनके साहित्य में भी दिखती है. वे कहते हैं, ‘बचपन में मैं दिल्ली के एक दलित मोहल्ले में रहता था. आज यदि आपके पास एक मोबाइल फोन है, एक मोटरसाइकल है और आप जींस पहनते हैं तो आपको देखकर कोई यह नहीं बता सकता कि आप कौन सी जाति से ताल्लुक रखते हैं.

निम्नवर्गीय परिवार में जन्मे नावरिया बचपन से ही विनम्र विद्रोही थे और चीजों को जांचने परखने में उनकी बेहद रुचि थी. 12 साल की उम्र में जब उन्हें स्कूल में छात्रवृत्ति मिली तो ये उन्हें आहत करने वाला अनुभव था. वे इसकी शिकायत करने सीधे स्कूल के प्रिसिंपल के पास चले गए क्योंकि यह छात्रवृत्ति उनकी बेहतरी के लिए तो थी लेकिन इसकी वजह से उन्हें अपनी कक्षा में खड़ा होना पड़ा और सबके सामने वे दलित छात्र के रूप में पहचाने गए.

नावरिया उन दलित लेखकों में से एक हैं जिनके लेखन में उनके पीछे छूट गए गांव की याद नहीं झलकती. उनकी कोशिश होती है अपने साहित्य में चरित्रों को जातिहीन दिखाया जाए. हालांकि उनके साहित्य में हाशिए पर पड़े वंचित लोगों को जगह देने की भी मजबूत कोशिश होती है और वे मानते हैं कि दलित साहित्य ऐसे ही मुद्दों के बारे में होना चाहिए.

कई गैरदलित स्त्रियों से अपने संबंधों के बारे में बताते हुए नावरिया कहते हैं कि इस दौरान वे हमेशा अपनी पहचान को लेकर सचेत रहते थे. उन्हें कई बार ये भी लगता था कि कहीं ये आकर्षण इसलिए तो नहीं कि सामने वाली महिला ऊंचे समुदाय से ताल्लुक रखती है.

वर्तमान दौर के दलित नेताओं से नावरिया निराश दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘हमें उन चीजों पर ध्यान देने की जरूरत है जो हमारी संस्कृति का केंद्रीय तत्व हैं उदाहरण के लिए लैंगिक आधार पर भेदभाव न होना, हमारे भगवान और पुजारी की जरूरत महसूस किए बिना ईश्वर के प्रति हमारा समर्पण. इसके अलावा मेरा यह भी मानना है दलित संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए एक सांस्कृतिक क्रांति की जरूरत है.नावरिया मानते हैं कि सभ्यता की तरक्की को आवश्यकता नहीं बल्कि सौंदर्यबोध गति देता है.

पहचान का संकट

मोहन कुमार का कहना है कि उनके आसपास के लोग उन्हें कभी भी ये भूलने नहीं देंगे कि वे दलित हैं

पेशे से वकील मोहन कुमार तीन बातों पर यकीन रखते हैं. पहली यह कि जातिगत पहचान मायने रखती है क्योंकि यह वास्तविकता है और इससे हर दिन जूझना पड़ता है. वे कहते हैं, ‘शायद मैं अपनी जाति भूल भी जाऊं लेकिन मेरे आसपास जो लोग हैं वे यह बात कभी नहीं भूलेंगे.

दूसरी बात यह कि भले ही धर्मातरण से जातिगत भेदभाव दूर न होता हो फिर भी दलितों को बौद्ध धर्म अपना लेना चाहिए. मोहन कहते हैं,‘दक्षिणपंथी हिंदुत्व ताकतें बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म में मिलाना चाहती हैं और इससे लड़ने के लिए दलितों का बौद्ध बनना अनिवार्य है.तीसरी और अंतिम बात यह कि बहुजन समाज पार्टी आज वक्त की जरूरत है और वर्तमान दौर में दलितों के पास अपनी बात रखने के लिए इससे अलग कोई विकल्प नहीं है. हालांकि बसपा के प्रति मोहन का ये आग्रह स्वभाविक है क्योंकि वे बहुजन समाज पार्टी की कर्नाटक राज्य इकाई के सदस्य हैं.

डाक विभाग में काम करने वाले मोहन के पिता ने स्कूल और कॉलेज के दिनों में हमेशा उनका उत्साह बढ़ाया. मोहन हमेशा बेहद आत्मविश्वासी, लोकप्रिय और अच्छे अंक लाने वाले विद्यार्थी रहे. लेकिन एमबीए के दौरान साथी छात्रों ने दलित पहचान को लेकर उनका मजाक उड़ाया. उन घटनाओं को याद करते हुए मोहन कुमार कहते हैं, ‘तब अचानक ही मुझे एहसास हुआ कि मैं दलित हूं.

एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहन को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब रोजगार कार्यालय के एक अधिकारी ने उन्हें बताया कि निजी क्षेत्र की ज्यादातर कंपनियां ब्राह्मण या ऊंची जातियों के उम्मीदवारों को तरजीह देती हैं, ‘मैं ये सोचता था कि योग्यता ही मतलब की चीज है न कि जाति इसलिए फॉर्म में मैंने जाति वाला कालम खाली छोड़ दिया. जब मेरी जाति जानने के लिए उस अधिकारी ने मुझे वापस फोन किया तो ये मेरे लिए सबसे बड़ा झटका था.मोहन कुमार बताते हैं.

हालांकि मोहन हिम्मत नहीं हारे. इस घटना के बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई की और आज वे कर्नाटक उच्च न्यायालय में वकील हैं. आज उनके पास पैसा भी है और सम्मान भी. मोहन कहते हैं, ‘अब कॉलेजों में दलित विद्यार्थियों की संख्या अच्छी खासी बढ़ गई है, फिर भी उनके साथ भेदभाव बदस्तूर जारी है. जहां तक मेरी बात है तो मैंने कानून की पढ़ाई इसलिए की है ताकि जातिवादी दमन के खिलाफ लड़ाई के लिए मैं बेहतर तरीके से तैयार रहूं.अपने विचारों के बारे में स्पष्ट रुख रखने वाले मोहन का मानना है कि उनकी लड़ाई में कानून और बसपा की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रहेगी.