हिंदुत्व की हार, हिंदू धर्म की जीत

16 मई के बाद से भाजपा के भीतर एक के बाद एक पैदा होते संकट और चुनावी हार में हिंदुत्व की भूमिका पर पार्टी में चल रही बहस को पार्टी या हिंदुत्व के बिखर जाने का संकेत मानना समझदारी नहीं होगी पर ये जरूर कहा जा सकता है कि फिलहाल हिंदुत्व के विचार को भारत ने नकार दिया है. हिंदुत्व भाजपा के मूल में रहा है और ये तय था कि इस पर निर्भरता एक दिन पार्टी के लिए बड़ी समस्या बनने वाली है. आंकड़ों पर नजर डालें तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि विचारधारा के आधार पर भाजपा को वोट देने वाले लोगों का प्रतिशत 10 से ऊपर गया हो. हालांकि हिंदुत्व की परियोजना का आधार खड़ा करने के लिए हिंदुओं में डर और खतरे की भावना उपजाई गई थी. उन्हें बताया गया था कि संख्या के हिसाब से बहुमत होने पर भी उन पर अपने ही देश में अल्पसंख्यक होने का खतरा मंडरा रहा है.

एक तरह से देखा जाए तो इन चुनावों में हिंदुत्व की हार पश्चिम की भी हार है क्योंकि हिंदुत्व परियोजना भारतीय मानस को औपनिवेशिक पश्चिम से मिला उपहार थी

वैसे हिंदुत्व को अगर कोई पार्टी अपनी विचारधारा बनाती है तो भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए ये बुरा नहीं है. अगर समाज का एक अच्छा-खासा हिस्सा हिंदुत्व या माओवाद या फिर अनियंत्रित पूंजीवाद में यकीन रखता है तो जरूरी है कि इसका प्रतिनिधित्व राजनीतिक रूप से हो ताकि इनसे सामान्य राजनीति के जरिए ही निपटा जा सके. अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी का जुड़ाव ईसाई कट्टरपंथियों से है. रिपब्लिकन्स चुनावों से पहले ऐसे तत्वों को जम कर लुभाते हैं मगर चुनावों के बाद इन्हें अप्रत्यक्ष रूप से कुछ छोटे-मोटे फायदे तो पहुंचाए जाते हैं मगर ऐसा कभी नहीं होता कि उन्हें अपने ऊपर हावी होने दिया जाए. मगर भाजपा ये बात नहीं समझ पायी कि हिंदुत्ववादियों के साथ वह कैसा व्यवहार करे कि वे उसका महज एक हिस्सा भर ही लगें और चुनाव के दौरान किसी होम्योपैथिक दवा की तरह उनका लाभ उठाया जाए. किसी विविधतापूर्ण समाज में कोई दल एक ही विचारधारा पर अपना अस्तित्व टिकाने का जोखिम कैसे उठा सकता है?

दरअसल भारतीय राजनीति में विरोधाभासों से निपटने की कला ही सबसे बड़ी समझदारी है. ज्यादातर लोगों को पता नहीं होगा कि आजादी की लड़ाई में प्रमुख भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पार्टी में भी कई ऐसे लोग हुआ करते थे जिन्हें हिंदू महासभा या दूसरे हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों की सदस्यता रखने की भी छूट थी. रविंद्रनाथ टैगोर कांग्रेस के भी सदस्य थे और मुस्लिम लीग के भी. कांग्रेस में अलग-अलग तरह की विचारधाराओं को पार्टी के एक हिस्से के रूप में समाहित कर लिया गया मगर भाजपा की दिक्कत ये है कि इसने मान लिया है कि इसका समूचा अस्तित्व ही हिंदुत्व पर टिका हुआ है. अब हारने के बाद उसे यही बोझ लग रहा है जिसे वह उतार फेंकना चाहती है. पर सच ये है कि इससे भाजपा और हिंदुत्व का संबंध और गोपनीय ही होगा. पार्टी के भीतर बहस करने की जो कोशिश हो रही है वह और कुछ नहीं बल्कि विचारधारा से जुड़ी चुनौती की आड़ में हो रहा शक्ति संघर्ष है.

वैसे ये शक्ति संघर्ष भी अपने आप में एक स्वस्थ गतिविधि है. भाजपा के जनता पार्टी की तरह बिखर जाने की तमाम भविष्यवाणियों के उलट ऐसा होना जरूरी नहीं है. जनता पार्टी कई गुटों का गठबंधन थी जबकि भाजपा कई गुटों में बंटी पार्टी बन गई है. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का दौर अब बीत चुका है और सबसे ऊंची कुर्सियां खाली पड़ी हैं. अगर भाजपा चाहती है कि ये बची और ठीकठाक बनी रहे तो इसे कांग्रेस से सबक सीखना होगा. यानी उसे खुद का नेतृत्व करने के लिए कोई नरसिम्हा राव या मनमोहन सिंह ढूंढना होगा. फिलहाल उसके सभी बडे नेता जरूरत से कुछ ज्यादा ही आक्रामक हैं.

परंपरा, अराजकता, विविधता, व्यवस्था के बीच में लगातार चल रहे इस संघर्ष के दौरान भाजपा की चुनावी हार संकेत है कि हिंदुत्व, हिंदू धर्म से हार गया है

हो सकता है कि हार का आकलन मुख्य तौर पर हिंदुत्व के नजरिये से करके भाजपा दूरदर्शिता का परिचय न दे रही हो मगर इसकी हार हिंदुत्व की हार का संकेत तो देती ही है. हिंदुत्व की परियोजना 150 साल पुरानी है और शुरुआत से ही इसका हिंदू संस्कृति से टकराव होता रहा है. ये टकराव 19वीं शताब्दी के मध्य में तब शुरू हुआ था जब हिंदू सुधारवादी आंदोलनों के साथ हिंदुत्व का विचार भी जन्म लेने लगा था. ये आंदोलन आधुनिकता की वकालत करते थे और इन्होंने अपने ज्यादातर तत्व साम्राज्यवादी पश्चिम से ग्रहण किए थे. इनसे जो हिंदुत्व उभरा उसे एक औपनिवेशिक उत्पाद कहा जा सकता है. इसीलिए गांधी मानते थे कि ये सुधारवादी आंदोलन दीर्घावधि में फायदे से ज्यादा हिंदू धर्म का नुकसान ही करेंगे. एक तरह से देखा जाए तो इन चुनावों में हिंदुत्व की हार पश्चिम की भी हार है क्योंकि हिंदुत्व परियोजना भारतीय मानस को औपनिवेशिक पश्चिम से मिला उपहार थी.

हिंदुत्व क्या है इसे लेकर आज हिंदुत्व की आलोचना और बचाव करने वाले दोनों असमंजस में हैं. कइयों को ये कड़वा लग सकता है मगर सच यही है कि हिंदुत्व का विचार पश्चिमी यूरोपीय राज्य व्यवस्था के प्रति सराहना के भाव और अपने यहां इसका देसी स्वरूप लागू करने की कोशिश से उभरा था. जब हिंदुत्व शब्द की रचना करने वाले वीर सावरकर ने ये बात कही कि हिंदुओं को वेद और उपनिषद की बजाय विज्ञान, तकनीक और पश्चिमी राजनैतिक विचारों का अध्ययन करना चाहिए तो उनके दिमाग में यही बात थी. वे ऐसा रास्ता तलाश रहे थे जिसके जरिए विविधता से भरे हुए इस अराजक और अव्यवस्थित समाज को पश्चिमी तौर-तरीकों वाला एक रोबदार देश बनाया जा सके, कुछ-कुछ बिस्मार्क के जर्मनी जैसा.

इसके लिए भारतीयों का अपनी भारतीयता और हिंदुओं का अपनी मूलभूत विशेषता छोड़ना जरूरी था. यहां ये जानना दिलचस्प है कि पश्चिमी संदर्भ में देखा जाए तो कट्टर हिंदुत्व की बात करने वाले सावरकर निजी जिंदगी में नास्तिक थे. उनकी इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से न हो. उन्होंने अपनी पत्नी का अंतिम संस्कार भी हिंदू रीति से नहीं किया था.

गांधी समझते थे कि भारत में आधुनिक राष्ट्र का अपना अलग संस्करण रचने की क्षमता है और इसे राष्ट्र की यूरोपीय अवधारणा के पीछे भागने की कोई जरूरत नहीं है

सावरकर गांधी के आलोचक थे. उनका कहना था कि गांधी अवैज्ञानिक और आधुनिक राजनीति के मामले में अनजान हैं. वे गलत थे. गांधी को राजनीति की गहरी समझ थी और उन्होंने भारतीय समाज ही नहीं बल्कि तमाम विरोध के बावजूद पश्चिमी संस्कृति से भी काफी तत्व ग्रहण किए थे. गांधी आधुनिक राष्ट्र या राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद की पारंपरिक धारणाओं में यकीन नहीं रखते थे. उन्होंने कहा भी था कि सशस्त्र राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद से अलग नहीं है. इतिहास के उस दौर में उन्हें रूमानी सोच रखने वाला समझ गया मगर सच ये है कि वे अपने वक्त से काफी आगे चल रहे थे. गांधी समझते थे कि भारत में आधुनिक राष्ट्र का अपना अलग संस्करण रचने की क्षमता है और इसे राष्ट्र की यूरोपीय अवधारणा के पीछे भागने की कोई जरूरत नहीं है. विंडंबना देखिए कि आज कई पश्चिमी देश उस पुराने मॉडल से दूर जा रहे हैं. यूरोप के 14 देश अब कोई सेना नहीं रखते और यूरोपीय संघ बनाने के लिए सबने अपनी सीमाएं खोल दी हैं. मगर चीन और भारत राष्ट्र की 19वीं सदी की अवधारणा के विशुद्ध प्रतीक बन चुके हैं.

हिंदुत्व परियोजना यही थी यानी हिंदू धर्म में पश्चिमी राजनीतिक अवधारणा का मेल. शुरुआत में सावरकर का यकीन एक एकीकृत धर्मनिरेपक्ष राष्ट्र में था. इस मायने में सावरकर के हिंदुत्व जैसी बात पहले बंगाल के स्वतंत्रता संगाम सेनानी भूदेव मुखोपाध्याय और उससे भी पहले टैगोर के मित्र ब्रह्मोबांधव उपाध्याय कर चुके थे. उपाध्याय एक ईसाई थे जो खुद को हिंदू ईसाई कहा करते थे. विवेकानंद ने भी कहा था कि एक आदर्श भारतीय वह है जिसके पास एक हिंदू मस्तिष्क और मुस्लिम शरीर हो. मगर फिर सावरकर को लगा कि केवल भौगौलिक आधार ही राष्ट्रवाद की मजबूत भावना के लिए काफी नहीं है और उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद के बारे में सोचना शुरू किया. मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों के लिए नफरत सावरकर के ही दिमाग की उपज थी जो हिंदुत्व के पहले के संस्करणों में लगभग न के बराबर थी.

इस चुनाव में हार के बाद भाजपा को लगता है कि इसका आधार मध्यवर्ग इससे इसलिए दूर हो गया क्योंकि उसका हिंदुत्व से मोहभंग हो चुका था. शायद ये पूरी तरह से सही नहीं है. भारतीय मध्य वर्ग का हिंदुत्व के कम कठोर पहलुओं से स्वाभाविक जुड़ाव रहा है. दरअसल हिंदू सुधारवादी आंदोलन हिंदू धर्म का एक ऐसा नया स्वरूप उभारने की कोशिश कर रहे थे जो राष्ट्र की यूरोपीय अवधारणा के बिल्कुल अनुरूप था. कई मायनों में सभी भारतीय धर्म सुधारक धर्म के एक ऐसे पहलू को विकसित करने की कोशिश कर रहे थे जिससे जुड़ना पूरे भारत के लिए सहज हो. ये सब मध्यवर्ग को आसानी से समझ में आता है जो एक आधुनिक देश में भी रहना चाहता है और साथ ही अपने हिंदू धर्म को भी सुरक्षित रखना चाहता है. अपने उपन्यास कालापानी में सावरकर भविष्य के उस भारत के बारे में लिखते हैं जो पूरी तरह से एक जैसा समाज होगा. जहां जाति, संप्रदाय और भाषा से ऊपर उठकर कोई भी किसी से विवाह कर सकेगा. जहां लोगों का वेश भी एक जैसा होगा और भाषा भी. जहां संगीत, सिनेमा, कपड़ों के मामले में सब एक जैसा व्यवहार करेंगे.

हमारा समाज समझौतों की इस कला से ही जीवित रह सकता है. जिस पल हम किसी चीज के लिए लचीलापन छोड़कर कठोर हो जाएंगे, ये व्यवस्था ढहने लगेगी

ये देश की वैसी ही परिकल्पना है जिसके दर्शन आज भारत के महानगरों में होते हैं. इस नजर से देखा जाए तो सावरकर भविष्यदृष्टा लगते हैं. क्योंकि उन्होंने तब जो बातें कहीं थी वही आज के शहरी मध्य वर्ग में दिखती हैं. एक ऐसा वर्ग जिसकी वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था तक पहुंच है, जो अंग्रेजी में बात करता है और एक जैसे मीडिया के संपर्क में आकर अपना स्वरूप ग्रहण करता है. अगर आप शहरों में पले-बढ़े किसी तमिल, मलयाली या बंगाली बच्चे के नजरिये से देखें तो उसके लिए हिंदू धर्म थोड़ा ओणम है, थोड़ा दीवाली और थोड़ा दुर्गापूजा. ये हिंदू धर्म का नया स्वरूप है जिसे धारण करना आसान है. हिंदुत्व कभी भी भारतीय चेतना के केंद्र में नहीं आ सकता क्योंकि इसे 4000 साल पुराने हिंदू धर्म से अपने आप ही चुनौती मिलती रहती है.

परंपरा, अराजकता, विविधता, व्यवस्था के बीच में लगातार चल रहे इस संघर्ष के दौरान भाजपा की चुनावी हार संकेत है कि हिंदुत्व, हिंदू धर्म से हार गया है. हिंदुत्व, भारतीयों से राष्ट्र की यूरोपीय अवधारणा के मुताबिक रहने की उम्मीद करता है. मगर हम भारतीय हैं-जिद्दी और न सुधरने वाले. हम सदियों से विरोधाभासों के बीच जी रहे हैं और हमने ये कला सीख ली है. हमने अराजकता और गलत परिभाषित विचारों के साथ जीना भी सीख लिया है. हम दूसरी पीढ़ी के लिए विकल्प भी खुले रखना चाहते हैं. इन्हीं खासियतों की वजह से हमारी हस्ती कायम रह पाई है जबकि कई सभ्यताएं मिट गईं. यही वे खासियतें हैं जिन्हें भाजपा को अपनी सोच में शामिल करना होगा और इनके प्रति जवाबदेह बनना होगा.

एक बार मैंने महात्मा गांधी की हत्या में शामिल मदनलाल पाहवा का इंटरव्यू लिया था. तब उसकी उम्र काफी ज्यादा हो चुकी थी. इस कट्टर हिंदू की सबसे यादगार स्मृतियां पाकिस्तान में बिताए गए अपने बचपन के दिनों की थीं जहां बाबा फरीद की मजार थी, जहां एक धार्मिक मेला लगता था और कव्वालियां गाईं जाती थीं. यह बताता है कि हम भारतीय कई तरह से जीने के आदी हैं. इस आदमी की जबान कट्टर हिंदुत्व वाली थी मगर उसकी स्मृतियां अलग तरह की थीं.

इन बातों का मतलब ये नहीं है कि हिंदुत्व खत्म हो जाएगा. असल में जब तक यह खुद को बदलता नहीं तब तक ये वह ताकत हासिल नहीं कर सकता जो इसके पास बीते दशक में रही. इसकी प्रवृत्ति आम भारतीय को असहज करती है और इसलिए इसे भारतीयता और पारंपरिक हिंदू धर्म के हाथों हार का सामना करना पड़ा है. औपनिवेशिक काल से बाहर निकल कर उभरी पीढ़ी के दिल में पश्चिमी चीजों के प्रति आकर्षण और आदर था. मगर आज की पीढ़ी के लिए स्थितियां कुछ अलग हैं. भारतीय अब अपनी ताल में वापस आ चुके हैं इसलिए मध्यवर्ग में भी ज्यादातर के लिए मनमोहन का ‘पश्चिम’-इस विचार के साथ कि कोई भी टाटा या अंबानी हो सकता है-सावरकर के ‘पश्चिम’ से ज्यादा आकर्षक है. एक वैश्विक भौतिक पहचान की महत्वाकांक्षा ने सांस्कृतिक पहचान की महत्वाकांक्षा को पीछे छोड़ दिया है. अब जब कि हिंदुत्व की चुनावी हार हो चुकी है, ये देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा किस रास्ते पर आगे बढ़ती है.

कई मायनों में आडवाणी एक त्रासद व्यक्तित्व हैं. वाजपेयी के उलट वे एक ऐसी जगह पले-बढ़े जहां हिंदू अल्पसंख्यक थे. ईसाई मिशनरी स्कूल में पढ़े इस शख्स के लिए मुसलमान अनजान नहीं थे और शायद वे उनसे वह असहजता महसूस नहीं करते थे जो किसी मराठी ब्राह्मण को महसूस होती थी. मगर इस बात की भी मजबूत संभावना है कि संघ का हिस्सा रहे आडवाणी ने कुछ मायनों में ये भी मान लिया था कि हिंदुत्व सबकी भागीदारी वाली विचारधारा के बजाय एक राजनैतिक हथियार है. राम जन्मभूमि आंदोलन उन्होंने ही खड़ा किया था और इस संबंध में उन्हें कई सवालों के जवाब भी देने हैं मगर जिन्ना पर बयान के बाद उनकी पार्टी की प्रतिक्रिया उनकी त्रासदी को बयां करती है. जिन्ना के बारे में उन्होंने जो कहा उसमें कुछ भी नया नहीं था. ऐसा लगता है कि किसी ने भी इस बात को नहीं समझ. यह बताता है कि हमारी राजनीतिक संस्कृति कहां पहुंच गई है. ये भी काफी अजीब है कि व्यक्तित्व में अपार अंतर के बावजूद जिन्ना भी ऐसे व्यक्ति थे जो सावरकर की तरह पश्चिमी सोच से काफी प्रभावित थे. विचारधारा के मामले में दोनों एक जैसे थे. आडवाणी ने जब जिन्ना को सेकुलर कहा तो वे सिर्फ इस बात को ही स्वीकार कर रहे थे. पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री एक हिंदू थे और इसका पहला राष्ट्रीय गान जिन्ना के अनुरोध पर एक हिंदू ने ही लिखा था.

आडवाणी ने खुद को वाजपेयी जैसा दिखाने की कोशिश की मगर वे अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पाए. साथ ही वे खुद को एक ऐसे विचारक के रूप में पेश नहीं कर पाए जिसे एक हीरो के सांचे में ढाला जा सके. इससे भाजपा के सामने खड़ी गुत्थी और भी जटिल हो जाती है. काफी हद तक लगता है कि नरेंद्र मोदी भी अपना शिखर छू चुके हों. इस चुनाव से पता चलता है कि उनकी लोकप्रियता अब ढलान पर है. समस्या ये है कि उन्होंने अपने बचने के लिए कोई रास्ते नहीं छोड़े. उन्होंने गुजरात में 2002 में हुए दंगों पर न तो ऊपरी तौर पर ही सही पर माफी मांगी और न ही कोई खेद प्रकट किया. संभावना है कि ये प्रकरण उनके पूरे राजनीतिक जीवन पर काला साया बनकर मंडराता रहेगा. इसलिए सही नेता की खोज भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है. एक ऐसा नेता जो सबको आपस में जोड़ सके और उस गर्मागर्मी को कम कर सके जिसे पार्टी के साथ जोड़कर देखा जाने लगा है. सवाल ये भी है कि अगर भाजपा हिंदुत्व को छोड़ती है तो इसकी दक्षिणपंथी राजनीति का स्वरूप कैसा होगा? भारत के ज्यादातर लोग अब भी अभावों में जी रहे हैं और भले ही चुनावी फायदे के लिए ही सही पर नीतियां तय करते हुए उनके बारे में सोचा जाना भी जरूरी है.

भाजपा एक अलग तरह की विचारधारा के रास्ते पर चल सकती है. एक ऐसी विचारधारा जिसमें हिंदुत्व की भी एक भूमिका होगी मगर इससे होड़ लेती कुछ दूसरी अवधारणाएं भी होंगी. हिंदुत्व के सहिष्णु न होने की कोई वजह नहीं है. उदाहरण के लिए टैगोर ने अपने उपन्यास गोरा में हिंदुत्व के पक्ष में मजबूत तर्क दिए हैं. वाजपेयी हिंदुत्व को एक अस्पष्ट से ढांचे की तरह मानते थे. इसमें कोई समस्या नहीं थी. बल्कि भारतीय संदर्भ में ये शायद जरूरी भी था. नवाज शरीफ ने एक बार वाजपेयी से कहा भी था कि मुस्लिम लीग और भाजपा का हिस्सा होने के नाते वे भारत-पाक संबंधों में एक नई शुरुआत करने के लिए सबसे मुफीद हैं क्योंकि तब कोई उन पर कमजोर उदारवादी होने का आरोप नहीं लगा सकता.

सबसे बड़ी बात ये है कि हिंदू दक्षिणपंथी विचारधारा को राजनैतिक धारा में समाहित किया जाना जरूरी है. उन्हें न खत्म किया जा सकता है और न दूर भगाया जा सकता है. चारू मजूमदार और उनके संगठन का प. बंगाल में पुलिसिया दमन कर दिया गया था. मगर 30 साल में ही नक्सल समस्या पलट कर और भी शक्ति के साथ वापस आ गई है. इसलिए हल ये नहीं है कि उन्हें खारिज कर दिया जाए. उन्हें राजनीतिक रूप से उनकी जगह देकर उन पर काबू करना होगा.

भाजपा धारा 370 हटाने और समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग करती रही है. यूरोपीय शैली के एक आधुनिक राष्ट्र में ये वैध मांगें हैं. पर हमें इस रास्ते पर ही क्यों जाना चाहिए? क्यों न धारा 370 को और भी ज्यादा असरदार तरीके से इस्तेमाल करें. आखिर सिक्किम का विलय करने की बजाय हमने इसे धारा 370 क्यों नहीं दी. हमने नागालैंड और मणिपुर में ये धारा क्यों नहीं लगाई जहां 30 साल की हिंसा ने एक पूरी पीढ़ी के मन में कड़वाहट भर दी है. अगर चिंता ये है कि ये एक सीमावर्ती राज्य है तो हम इसमें संशोधन कर धारा 370ए बना सकते थे. जिसमें कम या ज्यादा अधिकार और फिर से बातचीत के लिए प्रावधान होते. इससे भारत कई मसलों को आसानी से हल कर सकता.

जैसा कि गांधी ने कहा था कि हम एक राज्य की अवधारणा का अपना संस्करण गढ़ने में सक्षम हैं. अब देखिए अपने आप ही हमने कुछ नई चीजें उपजा ली हैं. इसका एक उदाहरण है भारतीय धर्मनिरपेक्षता. धर्मनिरपेक्षतावादी और संप्रदायवादी दोनों ही इस मामले में समझौता किए जाने की शिकायत करते हैं. मगर हमारा समाज समझौतों की इस कला से ही जीवित रह सकता है. जिस पल हम किसी चीज के लिए लचीलापन छोड़कर कठोर हो जाएंगे, ये व्यवस्था ढहने लगेगी.

वर्तमान उठापटक भाजपा और संघ दोनों के लिए एक रचनात्मक पल साबित हो सकती है. अपने पूर्ववर्तियों के उलट मोहनराव भागवत बड़े विचारक नहीं हैं. उनसे किसी को कोई उम्मीद नहीं इसलिए उनके पास ये सही मायने में कुछ रचनात्मक करके खुद को साबित करने का अवसर है.