श्रीकांत वर्मा की एक कविता है, ‘न्यूयार्क के सबवे में / नीग्रो पिट रहा है / उसे पिटना ही था / वह नीग्रो था / मियामी की रेत पर नीग्रो पिट रहा है / उसे पिटना ही था / उसने ललचाई आंखों से देखा था जेन को /जो गोरी थी / लास वेगास में नीग्रो पिट रहा है / उसे पिटना ही था / वह जुए में जीता था / कैलीफोर्निया में नीग्रो पिट रहा है / उसे पिटना ही था / उसने उत्तर दिया था, मैं नीग्रो हूं.’
ऑस्ट्रेलिया के रंगभेद पर विलाप करते मीडिया को क्या दिल्ली विश्वविद्यालय पर नजर डालने की फुरसत नहीं निकालनी चाहिए?
ऑस्ट्रेलिया में पिट रहे भारतीय छात्रों की खबर देते मीडिया को यह कविता क्यों याद आनी चाहिए? न भारतीय नीग्रो हैं, न ऑस्ट्रेलिया अमेरिका है और न ही आज 40-50 साल पुराना वह वक्त है, जब वर्मा ने यह कविता लिखी होगी. लेकिन याद आती तो रंगभेद और नस्लवाद के इस प्रश्न को वह कुछ भारतीय छात्रों के साथ हुए इकलौते अन्याय की इकहरी और व्याख्याओं तक सीमित करने से बचता और उसे एक ज्यादा व्यापक मानवीय संदर्भ में और ऐतिहासिक रूप से साम्राज्यवादी परिघटना के विस्तार की तरह देख पाता.
क्योंकि तब उन्हें वह महात्मा भी याद आता जिसे करीब एक सौ बीस साल पहले दक्षिण अफ्रीका में एक रात ट्रेन से फेंक दिया गया था. महात्मा गांधी ने तब रंगभेद के विरुद्ध जो ऐतिहासिक संघर्ष किया, अगर उसकी स्मृति बची होती तो ऑस्ट्रेलिया गए भारतीय छात्र खुद को इतना कातर महसूस नहीं करते.
लेकिन क्यों किसी को कोई कवि, कोई महात्मा याद आए. इन सबसे मुक्त होकर ही तो भारतीय छात्र ऑस्ट्रेलिया पढ़ने गए हैं. इक्कीसवीं सदी पर भारतीय या एशियाई मेधा की छाप की आत्ममुग्ध घोषणाएं करते इस मीडिया को भी ऐसे संघर्ष पुराने जमाने की चीज लगते हैं. गांधी को वह संदेह से देखता है और गांधीवादियों को उपहास के साथ. अंबेडकर को वह हिकारत से देखता है और अंबेडकरवादियों को डर और गुस्से में सनी नफरत से.
मुश्किल तब होती है जब यह वर्ग इन सबको पीछे छोड़ अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के नए आसमानों की उड़ान भरता है और पाता है कि यह जमीन उसे बराबरी पर पांव रखने नहीं दे रही. वह उनके साथ खड़ा होना चाहता है तो पिटता है, पढ़ने में उनसे बेहतर साबित होता है तो पिटता है. और जब वह पिटता है तो मीडिया बताता है कि देखो, ऑस्ट्रेलिया में कितना रंगभेद है.
ऑस्ट्रेलिया में रंगभेद है, यह वहां के मंत्री-संतरी भी मान चुके हैं. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री तक यह बात स्वीकार कर चुके हैं. वहां ऐसे शोध और सर्वे चल रहे हैं जिनसे ऑस्ट्रेलियाई बच्चों के मन को ठीक से समझ जा सके. यानी ऑस्ट्रेलिया एक तरह से आत्मनिरीक्षण की कोशिश में है. लेकिन क्या हमें भी आत्मनिरीक्षण की जरूरत नहीं है?
ऑस्ट्रेलिया के रंगभेद पर विलाप करते मीडिया को क्या दिल्ली विश्वविद्यालय पर नजर डालने की फुरसत नहीं निकालनी चाहिए? जो एक लाख बच्चे ऑस्ट्रेलिया पढ़ने गए हैं, उनमें से बहुत सारे दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र रहे होंगे. क्या उन्हें याद है कि वे और उनके साथी दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले पूर्वोत्तर के छात्रों को किन संज्ञाओं और विशेषणों से नवाजते रहे हैं? या घुंघराले बालों और चमकती आंखों वाले नाइजीरियाई और केन्याई छात्रों से किस तरह पेश आते रहे हैं? या रंगभेद को भूल जाएं. जितनी तरह के भेदभावों में भारतीय समाज भरोसा करता है, उन्हें याद करते हुए क्या हमें यह नैतिक अधिकार भी बनता है कि हम ऑस्ट्रेलियाई समाज के रंगभेदी चरित्र पर कोई टिप्पणी कर सकें? दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और स्त्रियों के साथ अपना व्यवहार देखें तो क्या हम किसी दूसरे के व्यवहार पर उंगली उठा सकते हैं? क्षेत्र और भाषा को लेकर जैसे अहंकार और हिंसक रवैये का हम प्रदर्शन करते हैं, क्या उसका कोई जवाब है?
यह आत्मपीड़क प्रश्नाकुलता यह साबित करने के लिए नहीं है कि ऑस्ट्रेलिया में पिट रहे भारतीय छात्र इसी सलूक के हकदार हैं, बस यह याद दिलाने के लिए है कि वहां गोरे रंग के गुमान में इतराती जो हिंसक और क्रूर प्रवृत्ति भारतीय छात्रों के साथ बदतमीजी कर रही है, उसके विरुद्ध असली संघर्ष सिर्फ मेलबर्न और सिडनी की सड़कों पर नहीं, दिल्ली और लखनऊ के चौराहों पर भी करना होगा.
लेकिन यह देखने-समझने के लिए मीडिया को अपनी अतिरंजित और इकहरी टीवी-दृष्टि के पार जाना होगा, पहचानना होगा कि ऑस्ट्रेलिया हो या भारत, नस्लभेद हो या जातिभेद-इन प्रवृत्तियों के विरुद्ध लड़ाई के लिए एक व्यापक संघर्ष की जरूरत है, ऐसे गैरजरूरी और भड़काऊ विलाप की नहीं, जो ऑस्ट्रेलिया गए भारतीय छात्रों को कहीं ज्यादा असुरक्षित, अकेला और वेध्य बनाता है.
लेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं