अखबार का काम भ्रष्टाचार से लड़ना है. अगर वही भ्रष्टाचार में इस तरह शामिल हो जाएंगे तो लोकतंत्र में प्रेस की उपयोगिता और विश्वसनीयता क्या रह जाएगी? आलेख प्रभाष जोशी
प्रेस परिषद और चुनाव आयोग के पास प्रेस के खिलाफ इतनी और ऐसी शिकायतें पहले कभी नहीं आई थीं जितनी अप्रैल मई में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान और बाद में आईं. ज्यादातर शिकायतें पैसा लेकर उम्मीदवारों के विज्ञापनों को खबरों के रूप में छापने और पाठकों को यह न बताने के बारे में थीं कि वे खबरें नहीं उम्मीदवारों की प्रचार सामग्री है. ऐसा कर के उम्मीदवार काले धन से इतना और ऐसा कवरेज पा गए जैसा प्रेस में उन्हें कभी मिल नहीं सकता था. फिर यह धन चुनाव के उनके खर्च में भी नहीं जुड़ता क्योंकि न तो उम्मीदवारों ने रसीद मांगी न अखबारों ने दी. यह काले धन से हुआ धंधा था जिसका हिसाब-किताब किसी को रखना नहीं था.
वे बड़ी बेशर्मी से कहते हैं कि हम तो व्यवसाय कर रहे हैं और मुनाफा कमाना हमारा सहज व्यावसायिक अधिकार है. हम लोकतंत्र और समाजसेवा के पुनीत कार्य में नहीं हैं
अखबारों ने बाकायदा पैकेज बनाए थे और रेट कार्ड छापे थे. पैकेज में चुनाव कवरेज के सभी क्षेत्र कवर किए गए थे. फोटू से लेकर इंटरव्यू और अपील तक के अलग-अलग साइज के अलग-अलग दाम तय किए थे. जिनने ये पैकेज खरीदे उन्हीं की खबरें छपीं. जिनने नहीं खरीदे वे अखबारों के पेजों से गायब रहे. उनने शिकायत की तो कोई सुनवाई नहीं हुई. उनसे साफ कह दिया गया कि आप पैसे नहीं देंगे तो खबरें नहीं छपेंगी. ज्यादातर उम्मीदवार दूसरे प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार की खबरें देख कर दबाव में आ गए. उनने मतदान नजदीक आते देख कर पैकेज खरीदे और वे अखबारों में अचानक जीतने लगे. कुछ साहसी और दृढ़ निश्चयी उम्मीदवार फिर भी डटे रहे और अखबारों के इस काले धंधे के खिलाफ उनने चुनाव प्रचार में जम कर और खुला अभियान चलाया.
सबसे मजेदार उदाहरण उत्तर प्रदेश में दैनिक जागरण का है. उनके एक मालिक नरेन्द्र मोहन को भारतीय जनता पार्टी ने राज्यसभा में पहुंचाया था. एक और मालिक महेन्द्र मोहन को समाजवादी पार्टी ने राज्यसभा में भेजा. भारतीय जनता पार्टी के लखनऊ के उम्मीदवार लाल जी टंडन के जागरण से पुराने और नजदीकी संबंध थे. लेकिन उनसे भी जागरण ने पैकेज खरीदने की मांग की. भाजपा के नेता और मंत्री रहते हुए लाल जी टंडन ने जागरण की बहुत सेवा की थी और वे सहज ही उम्मीद कर रहे थे कि यह अखबार उनका कवरेज करेगा. लेकिन टंडन जी को भी जब बिना पैसे के कवरेज नहीं मिला तो उनने जागरण के खिलाफ सार्वजनिक स्टेंड लिया. प्रेस कांफ्रेंस कर के कहा कि मैं अखिलेश दास और जागरण दोनों के खिलाफ लड़ रहा हूं. अखबार का काम समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ना है. अगर वही भ्रष्टाचार में इस तरह शामिल हो जाएगा तो लोकतंत्र में प्रेस की उपयोगिता और विश्वसनीयता क्या रह जाएगी? लाल जी टंडन को जागरण हरा नहीं सका और अखिलेश दास को जिता नहीं सका.
समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह देवरिया से चुनाव लड़े. उनसे भी जागरण ने पैकेज खरीदने को कहा. उनने भरी सभाओं में पूछा कि इस अखबार के एक मालिक को हमने राज्यसभा भेजा. वे बताएं कि उन्हें वहां भेजने के हमने कितने रुपए लिए? जब हमने उनसे पैसे नहीं लिए तो हमारी खबरें छापने के पैसे वे क्यों मांग रहे हैं? मोहन सिंह आप जानते हैं कि संघर्षशील समाजवादी नेता हैं. उनने बिना किसी लाग लपेट के जागरण के खिलाफ अभियान चलाया. लेकिन जागरण ने न उनके अभियान की खबरें छापीं न चुनाव की क्योंकि उनने पैकेज नहीं लिया तो नहीं लिया. वे बसपा के उम्मीदवार से हार गए. उनने सब तरफ शिकायतें कीं लेकिन उनको दुख है कि जिन-जिन संवैधानिक संस्थाओं को इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई करनी चाहिए थी उनने नहीं की.
भारत में ही नहीं दुनिया में कहीं भी पाठक विज्ञापन के लिए नहीं खबरों के लिए अखबार खरीदता और पढ़ता है. इसलिए खबर की जगह, अखबार और पाठक के बीच विश्वास की जगह पवित्र जगह मानी जाती है
अब इन दो पार्टियों के इन दो उम्मीदवारों का उदाहरण मैंने इसलिए दिया कि ये मानते थे कि जागरण पर हमारा कुछ अहसान है और यह अखबार ज्यादा नहीं तो हमारा रुटीन कवरेज तो करेगा ही. लेकिन इनको भी जागरण ने बिना पैसे दिए कवरेज नहीं दिया. ऐसा हिंदी इलाके के ही नहीं देश भर के लगभग सभी अखबारों ने किया. लेकिन जागरण का नाम मैं इसलिए ले रहा हूं कि एक ओर उसके विरुद्ध जिम्मेदार नेता सार्वजनिक अभियान चला रहे थे और दूसरी ओर यह अखबार अपनी पत्रकारीय जिम्मेदारी को इस बुरी तरह बेचते हुए मतदाता जन जागरण अभियान चला रहा था. जागरण की भूमिका इसलिए उल्लेखनीय है कि एक तरफ तो आप चुनाव की असली और सच्ची खबरें पैसे लेकर न छापें और दूसरी तरफ जिस मतदाता को खुद आपने ही गुमराह किया है उसके जागरण का अभियान चलाएं. पत्रकारिता के नाम पर इस पाखंड को जागरूक समाज कैसे चलने दे सकता है? सच है कि सब अखबारों ने यह काला धंधा किया है. और उन्हें इस बात की कोई शर्म नहीं है कि चुनाव जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक अनुष्ठान के दौरान उनने अपने पाठक/वोटर को सच्ची जानकारी और सुविचारित राय देने के अपने बुनियादी धर्म और जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया. वे बड़ी बेशर्मी से कहते हैं कि हम तो व्यवसाय कर रहे हैं और मुनाफा कमाना हमारा सहज व्यावसायिक अधिकार है. हम लोकतंत्र और समाजसेवा के पुनीत कार्य में नहीं हैं. हम व्यवसाय में हैं. जब लोकतंत्र के कर्ता हमारे नेता और हमारी पार्टियां चुनाव में धन बल, बाहुबल और सत्ता बल का इस्तेमाल करने में तनिक भी हिचकिचाते नहीं तो हम क्या स्वर्ग से उतरे देवदूत हैं जो चुनाव के समय अपना पत्रकारीय धर्म और जिम्मेदारी निभाएं? चुनाव में धड़ल्ले से काला धन इस्तेमाल करने में अगर हमारे नेताओं और पार्टियों को लोकतंत्र की लाज नहीं आती तो हम तो लोकतंत्र के उनसे छोटे खिलाड़ी और शेयरधारक हैं. जिस काले धन में देश के सब नेताओं और पार्टियों के हाथ हैं उनसे हमें क्यों एतराज होना चाहिए. अगर नेता यह काला धन देकर खबरें छपवाना चाहते हैं तो हम क्यों हरिश्चंद्र के बेटे बनें.
यानी यह साफ है कि अखबार अपने को पत्रकारिता करने वाले लोकहित के रक्षक मानने के बजाए खबरों का व्यापार करने वाले व्यवसायी अधिक मानते हैं. व्यवसाय में लाभ के लिए अगर उन्हें पत्रकारिता से समझौता करना पड़े तो वे मजे में करेंगे क्योंकि जिस समाज में नेता सदाचार और नैतिकता की मिसाल नहीं दे सकते वहां अखबार कैसे आदर्शो के प्रतिमान हो सकते हैं? समाज अगर भ्रष्ट है तो अखबार भी भ्रष्ट होंगे. कोई कानून नहीं है कि जो अखबारों को जिम्मेदार पत्रकारिता करने को मजबूर कर सके. उम्मीदवार कहते हैं कि चुनाव आयोग ने जनता तक पहुंचने के सस्ते साधन और चुनाव प्रचार के आसान तरीकों पर पाबंदियां लगा दी हैं इसलिए उन्हें अखबारों में खबर की जगह खरीदने को मजबूर होना पड़ता है. यानी उम्मीदवार काले पैसे से खबरें छपवाने को मजबूर हैं और अखबार चारों तरफ मची हुई लूट में अपना हिस्सा पाने के लिए खबरों की जगह बेचने में कोई खराबी नहीं समझते.
अब किसी भी तरह से चुनाव जीतने को उतारू उम्मीदवार और पैसा कमाने के लिए पत्रकारिता की फिकर न करने वाले अखबार ही अपने देश के सभ्य लोकतांत्रिक समाज के कारक नहीं हैं. उनकी दलीलें और करतूतें समझी जा सकती हैं लेकिन उन्हें सदाचार के रूप में स्वीकार तो नहीं किया जा सकता, कोई भी सभ्य समाज नहीं करेगा. भारत में ही नहीं दुनिया में कहीं भी पाठक विज्ञापन के लिए नहीं खबरों के लिए अखबार खरीदता और पढ़ता है. इसलिए खबर की जगह, अखबार और पाठक के बीच विश्वास की जगह पवित्र जगह मानी जाती है. यह विश्वास खत्म होगा तो अखबार और पत्रकारिता भी खत्म हो जाएगी.
इसी तरह चुनाव में अगर खर्च की कोई सीमा और आचार संहिता नहीं रहेगी तो चुनाव पैसे का खेल हो जाएगा और उससे चलने वाला लोकतंत्र पूंजीतंत्र हो जाएगा. तब हम कैसे कहेंगे कि लोकतंत्र में वोटर/नागरिक राजा है क्योंकि तब तो जिसके पास जितना ज्यादा धन होगा वह उतने ही ज्यादा वोटों से जीतेगा और लोकतंत्र को धनपति चलाएंगे. यह स्थिति तो किसी भी खुले पूंजीवादी समाज में मान्य नहीं है. चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष और बाहरी असर से मुक्त हों तभी वे सच्चे और अच्छे लोकतंत्र के काम के हैं.
इसलिए भारतीय प्रेस परिषद चुनाव में प्रेस की भूमिका पर बहुत चिंतित है. अध्यक्ष न्यायमूर्ति जीएन रे मानते हैं कि इस चलन को पत्रकारिता और लोकतंत्र दोनों के हित में रोकना पड़ेगा और उपयुक्त कानून नहीं हैं तो बनवाने पड़ेंगे. परिषद ने अपने दो सदस्यों को इस मामले में जानकारी जुटाने को कहा है. इसके बाद जांच समिति बैठाई जाएगी और उसकी रपट के आधार पर सरकार से उचित कानून बनाने को कहा जाएगा. चुनाव आयोग के पास भी शिकायतों का ढेर लगा है. वह भी विचार कर रहा है कि किस तरह पैसा देकर पाए गए कवरेज को उम्मीदवार के खर्च में शामिल किया जाए ताकि इस भ्रष्टाचारी तरीके से लोकतंत्र को बचाया जा सके.