फिल्म न्यूयॉर्क
निर्देशक कबीर खान
कलाकार जॉन अब्राहम, नील नितिन मुकेश, इरफान, कैटरीना कैफ
पहला हिस्सा प्रेमकथा और थ्रिलर का अहसास देता है और दूसरा हिस्सा उस थ्रिलर को परे हटाकर अचानक एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या की बात करने लगता है
कभी कभी एक तीन मिनट के दृश्य में कोई अभिनेता आप पर वह छाप छोड़ जाता है जो अधिकांश स्टार तीन घंटे की तीन फ़िल्मों में भी नहीं कर पाते. नवाज़ुद्दीन का किरदार उन 1200 निर्दोष मुस्लिमों में से है जिन्हें 9/11 के बाद एफबीआई ने बिना किसी दोष के गिरफ़्तार किया था और सालों तक निर्मम यातनाएँ दी थी. फ़िल्म में जब वह अपनी आपबीती सुना रहा है तो सिर्फ़ उसका चेहरा देखकर आप वह सब देख सकते हैं जो मनुष्य की आज़ादी का सबसे बड़ा प्रतीक होने का दावा करने वाले अमेरिका के यातना शिविरों में इंटरवल के तुरंत बाद दिखता है. वही जिसे हम कुछ साल पहले इराक़ की जेलों से बाहर आई तस्वीरों में देख चुके हैं.
कहानी तो वही पुरानी है जो ‘दिलजले’ से लेकर अब तक चल रही है. बस इस बार फ़िल्म ज़्यादा ईमानदार और वास्तविक है. ईमानदार, यदि ‘क्रैश’ से उठाकर चिपका दिए गए एक भावुक सीक्वेंस को और इंडोनेशिया से चुराए गए प्रीतम के मधुर संगीत को माफ़ कर दिया जाए. फ़िल्म जिस तनाव, डर और फ़िक्र की बात करती है, उसे आरंभ से अन्त तक फ़िल्म के वातावरण में बरकरार रखने में कबीर ख़ान सफल रहे हैं. उसमें बड़ा योगदान सिनेमेटोग्राफ़ी का भी है. लेकिन फ़िल्म कम से कम बीस मिनट छोटी की जा सकती थी और अंत को और तेज और नुकीला बनाया जा सकता था. कहानी में कॉलेज है तो कब तक इन घटनाओं पर रील बर्बाद की जाती रहेगी कि वहाँ जितने खेल होते हैं, हीरो ही निर्विवाद चैम्पियन होता है? पहला हिस्सा प्रेमकथा और थ्रिलर का अहसास देता है और दूसरा हिस्सा उस थ्रिलर को परे हटाकर अचानक एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या की बात करने लगता है, जो प्रशंसनीय तो है, लेकिन कुछ जगहों पर उपदेशात्मक हो जाता है. लाख चाहते हुए भी संवेदनशील मुद्दों पर बनाई गई हिन्दी फ़िल्में इससे नहीं बच पाती. दूसरे हिस्से में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं घटता. जो ज़ोर कहानी की गहराई बढ़ाने पर दिया जाना चाहिए था, वह सारा ऊँची इमारतों को दिखाने पर आ जाता है. उन घटनाओं का अफ़गानिस्तान या इराक़ पर जो असर हुआ, वह कहीं नहीं दिखता। यशराज जैसे बड़े बैनर अपने ऊपर फ़िल्म को लार्जर देन लाइफ़ परिदृश्य में भावनात्मक संदेश घोलकर संतुलित बनाने की एक और अतिरिक्त व्यावसायिक ज़िम्मेदारी थोप लेते हैं, जो इन फ़िल्मों को ‘मिशन इम्पोसिबल’ की तरह अतार्किक रूप से भव्य भी नहीं बनने देती और ‘न्यूयॉर्क’ को ‘ख़ुदा के लिए’ से कोसों नीचे भी बिठा देती है.
नील ने अपने किरदार के अनुरूप जो फ्रस्ट्रेशन ओढ़े रखी है, वह काबिले तारीफ़ है. इरफ़ान हमेशा की तरह बेहतरीन हैं, मगर उनसे अब उम्मीदें कुछ ज़्यादा हैं. जॉन ठीक ठाक हैं और सुन्दर कैटरीना के लिए अब ऐसे किरदार गढ़े जाने लगे हैं, जो उनके हिन्दी के लहजे को तर्कसंगत ठहरा सकें. महत्वपूर्ण बात यह है कि सारी कहानी विदेश में होने के बावज़ूद ‘न्यूयॉर्क’ एन आर आई फिल्म नहीं है. यह देसी है और कुछ अच्छे अर्थों में ग्लोबल भी.
गौरव सोलंकी