ऐसा कल किसी को न देखना पड़े

फिल्म कल किसने देखा

निर्देशक  विवेक शर्मा

कलाकार जैकी भगनानी, वैशाली देसाई, जूही चावला, ऋषि कपूर

मैं हक्का-बक्का और हैरान हूं. नहीं नहीं, रियलिस्टिक या बुद्धिजीवी सिनेमा की चकाचौंध में बिल्कुल अन्धा होकर मुझे फंतासियों या कोमल प्रेम कहानियों से कोई परहेज नहीं, लेकिन इसके नाम पर बनाई जाने वाली बेवकूफ और छिछोरी फिल्मों से है. क्या यह दिबाकर, अनुराग और इम्तियाज की फिल्मों के गाल पर बेशर्मी से मारा गया तमाचा नहीं है कि बनाओ, तुम्हें जो बनाना है, हम महंगी लोकेशनों पर शूट करके ऐसी ही सस्ती फिल्में बनाएंगे. क्या जैकी भगनानी प्रतिभाहीन निर्माता-पुत्नों की श्रंखला में एक और कड़ी नहीं है जो इरफान और के के सरीखे सक्षम अभिनेताओं को दस दस साल तक इंतजार करने को मजबूर करता है? ऐसा क्यों है कि बॉलीवुड प्रगति की दिशा में एक कदम आगे बढ़ता है तो अगले ही पल तीन कदम पीछे फिर से नब्बे के दशक की उन कॉलेज वाली प्रेम कहानियों की ओर भागता है, जिनमें प्रेम कहीं नहीं है. स्वीमिंग पूल में नायिका की खुलने को आतुर देह है, उस देह से पहली नजर मिलने के बाद फूट पड़ने वाला तथाकथित प्यार है, अमीर नायिका का घमंड है जो अच्छे स्वभाव वाले नायक की नसों में उसे पाने की लगन भर देता है.

लेकिन जनाब, हक्का-बक्का रह जाने से कुछ नहीं होगा. मन में बनी इन गांठों को खोलने के लिए मैं अपने पास की सीट पर बैठी उन्नीस बीस साल की लड़की की ओर देखता हूं. बेसिर-पैर के गीतों को देखते हुए वो गुनगुना रही है, उसके घुटने थिरक रहे हैं. मोटरसाइकिल रेस का सैंकड़ो बार दोहराया जा चुका एक लम्बा सीक्वेंस देखकर, जिसे सिरे से काट दिया जाना चाहिए था, वह उत्तेजित होकर चिल्लाती है. ओह! तो यह उस ‘यो’ जेनरेशन के लिए है जो तुरत फुरत के प्यार, छोटे कपड़ों, डीजे और भीगी उत्तेजनाओं में पूरी आस्था रखती है. क्या आपने इन फिल्मों के अलावा कहीं और ऐसा देखा है कि अमीर लड़की गरीब (यहां गरीब का अर्थ वे गरीब नहीं, जो उड़ीसा में भूखे मर रहे हैं. गरीब माने दुपट्टा ओढ़ना और हिन्दी के लहजे में हिन्दी बोलना) लड़की का मजाक उड़ाए और उसके चारों और बैठे बीसियों लोग उसका साथ दें, हंसें? समझ नहीं आता कि महाराष्ट्र में ऐसा कौन सा कॉलेज है जिसकी पार्टियों में नाचने के लिए आसानी से पचासों विदेशी लड़कियां मंगवाई जा सकती हैं. बीच में दो चार मिनट के लिए राजपाल यादव और रितेश देशमुख थोड़ा सुकून देते हैं, लेकिन यही वे फिल्में हैं जिनकी कैद से जितना जल्दी हो सके बॉलीवुड को अपनी याददाश्त के रिकॉर्ड से मिटा देना है.

गौरव सोलंकी