मायावती को यकीन था कि वे इतिहास बनाने जा रही हैं. अपनी तरक्की की रफ्तार को देखते हुए वे मानकर चल रही थीं कि वे दिल्ली की गद्दी हासिल कर सकती हैं, पहली दलित प्रधानमंत्री बनकर इतिहास बना सकती हैं. मगर इतिहास को बदलने की जंग में गोलाबारूद के तौर पर यदि घमंड और अशिष्टता जैसी विशेषताओं का इस्तेमाल किया जाए तो इसका असर उल्टा ही होता है.
ऐसा नहीं है कि दलितों का मायावती से मोहभंग हो चुका है. मगर ये नतीजे दिखाते हैं कि उनका धैर्य अब जवाब देने की कगार पर है
2007 में हुए विधानसभा चुनावों में मिली भारी जीत के बाद मायावती को लगने लगा था कि उत्तर प्रदेश तो अब उनका ही है. उन्हें विश्वास था कि प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा को पूरा करने में समूचा सूबा खुद को उनके चरणों में अर्पित कर देगा. चुनाव नतीजे आने से कुछ दिन पहले उनके एक करीबी ने लखनऊ के एक पत्रकार को बताया भी था कि बहनजी को राज्य में 45 से 50 लोकसभा सीटें जीतने की पूरी उम्मीद है. मगर उन्हें मिलीं सिर्फ 20. उम्मीद और हकीकत यानी 50 और 20 के बीच काफी फासला देखने को मिला.
ऐसा नहीं है कि दलितों का मायावती से मोहभंग हो चुका है. मगर ये नतीजे दिखाते हैं कि उनका धैर्य अब जवाब देने की कगार पर हैनतीजे आने के पहले 24 घंटों के भीतर मायावती ने किसी से भी मिलने से इनकार कर दिया. अगले दिन उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई और ऐलान किया कि उनकी हार की वजह कांग्रेस, सपा और भाजपा में बनी गुपचुप सहमति है जो दलित की बेटी को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते. जब पत्रकारों ने उनसे सवाल पूछने की कोशिश की तो वे अचानकर उठ कर वहां से चल दीं. दिलचस्प है कि जिन पर वे अपने खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगा रही थीं उन्हीं को इसके बाद उन्होंने बिना शर्त समर्थन की चिट्ठी भेज दी.
इतिहास वे लोग बनाते हैं जिनमें अपना और दुनिया का सही आकलन करने की क्षमता होती है. आत्ममुग्धता और गलतफहमी हमेशा घातक होती है. अपनी प्रेस कांफ्रेंस के बाद से मायावती ने 150 पार्टी पदाधिकारियों और सरकारी अफसरों से इस्तीफे लिखवा लिए. इनमें मंत्री, नौकरशाह, चेयरमैन, वाइस चेयरमैन और कई सरकारी निकायों के निदेशक शामिल हैं. मीडिया ने इस शुद्धिकरण अभियान पर काफी कुछ लिखा है. मगर किसी ने भी इसके औचित्य पर सवाल खड़े नहीं किए. इनमें से ज्यादातर अधिकारी सरकार के सेवक थे बसपा के नहीं. उन्हें मंत्रियों की तरह ही लाल बत्तियों वाली गाड़ियां और दूसरी सुविधाएं दी गईं थीं. इसके अलावा इन्हें सरकारी खजाने से 25,000 रुपए महीने भी दिये जाते थे. उन्हें राज्य के लिए काम करना था बसपा के लिए नहीं. लगता है कि मायावती, राज्य और खुद में अब कोई फर्क नहीं समझतीं.
हालांकि पिछले कुछ दिनों में उन्होंने कुछ ऐसे काम भी किए हैं जो शुभ संकेत देते हैं. अब वे फिर से बुनियादी चीजों पर काम कर रही हैं. उन्होंने जिलाधिकारियों और पुलिस अफसरों से हर महीने काम की रिपोर्ट देने को कहा है. उन्होंने ऐलान किया है कि वे औचक निरीक्षण कर सरकारी योजनाओं का जायजा ले सकती हैं. उन्होंने पार्टी पदाधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि वे महीने में कम से कम एक बार किसी दलित बस्ती का दौरा करें.
2009 के इस चुनाव में एक बात हर जगह समान रही है. लोगों ने हर जगह घमंड को नीचा दिखायादुर्भाग्य से प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त करने का ये नया जोश पूरी तरह से भेदभाव से भरा लगता है. मायावती इससे तिलमिलाई हुई हैं कि ब्राह्मणों, मुसलमानों और पिछड़े वर्गों ने उन्हें वोट नहीं दिया. इसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने अपनी चर्चित भाईचारा समितियां भंग कर दी हैं जिन्हें दलितों, पिछड़े वर्गों और अगड़ी जातियों को जोड़ने के लिए बनाया गया था. फिलहाल लग रहा है कि मायावती ने सर्वजन समाज का अपना विचार ठंडे बस्ते में डाल दिया है जबकि सच ये है कि नुकसान उन्हें अपनी सोशल इंजीनियरिंग से नहीं बल्कि लचर प्रशासन के चलते हुआ है.
फिर भी जो कदम वे उठा रही हैं वे उनके लिए अच्छे ही साबित होंगे. दरअसल मायावती की उम्मीदों और हकीकत के बीच जो फर्क है उसका सच यह है कि अपनी अपरिपक्व महत्वाकांक्षा के चक्कर में वे भूल गईं कि उनकी असल ताकत किस चीज से बनती है. मायावती इतनी कद्दावर नेता इसलिए बन पाईं कि हजारों साल से शोषित होते रहे लोगों ने उन्हें अपने सशक्तिकरण के प्रतीक के तौर पर देखा, उनकी सफलता को अपनी सफलता माना. ये लोग ही उनकी शक्ति का स्रोत हैं. अगर मायावती को इतिहास बनाना है तो उन्हें इन लोगों की उम्मीदों को पूरा करना होगा. अपनी मूर्तियां लगवाने और अकूत दौलत जमा करने की बजाय उन्हें अपने पूरे समुदाय को अन्याय और गरीबी के फंदे से बाहर निकालना होगा.
ये सही है कि शुरुआत में दलित मायावती की निजी अति देखकर खुश हुए. मायावती ने जितने ज्यादा हीरे पहने, जितने ज्यादा हेलीकॉप्टर खरीदे, जितने ज्यादा ब्लैक कैट कमांडो अपने चारों तरफ लगवाए, दलितों को उतना ही ज्यादा अपनी जीत का अहसास हुआ. दलितों ने अपनी कल्पनाओं को उनमें साकार होते देखा. मगर ये सब आखिर कितने दिन चल सकता था. बहनजी की ताकत पर खुश होने वाले वंचित अपनी जिंदगी बदलने का इंतजार भी कर रहे थे.
शायद वे भूल गईं थी कि समाजवादी पार्टी के राज में जंगलराज को ही मुद्दा बनाकर वे बहुमत से सत्ता में आईं थीं. आपराधिक पृष्ठभूमि के जितने भी उम्मीदवारों को उन्होंने टिकट दिया था वे सब के सब हार गएचुनाव नतीजों से एक हफ्ते पहले तहलका ने उत्तर प्रदेश की यात्रा की. यहां हर वर्ग के लोग असंतुष्ट और नाराज लग रहे थे. मैं जिस कार में घूम रही थी उसके ड्राइवर का कहना था, ‘बहनजी तो अपनी याद में मूर्तियां बनाने में व्यस्त हैं जबकि हमारे पास खाने को तक नहीं है.’ गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के कुल आवासीय बजट का 62 फीसदी हिस्सा लखनऊ के चार वर्ग किलोमीटर के इलाके में खर्च कर दिया गया है. लोगों के घरों में काम करने वाली एक महिला के शब्द थे, ‘बहनजी तो महल में रहती हैं मगर क्या आप मेरी झोपड़ी के बाहर मौजूद नाले की गंध बर्दाश्त कर सकती हैं?’ एक दूसरे सफाईकर्मी का कहना था, ‘मेरे बेटे ने नगर निगम की नौकरी के लिए आवेदन किया था. उन्होंने एक लाख रुपए की रिश्वत मांगी. आप कैसे कह सकती हैं कि ये सरकार दलितों के भले के लिए बनी है?’
ऐसा नहीं है कि दलितों का मायावती से मोहभंग हो चुका है. मगर ये नतीजे दिखाते हैं कि उनका धैर्य अब जवाब देने की कगार पर है. बसपा की झोली में अबकी बार 20 लोकसभा सीटे हैं. यानी पिछली बार से एक ज्यादा. इसके अलावा पार्टी 48 जगहों पर दूसरे स्थान पर रही है. मगर जो सीटें इसका गढ़ हुआ करती थीं उनमें से कुछ इसने खो दी हैं. उन्नाव और बाराबंकी सीट इससे कांग्रेस ने छीनी है तो मोहनलालगंज सपा ने. हाल ही में हुए एक उपचुनाव में इसने भदोही की सीट भी खो दी थी जो आरक्षित थी. मायावती हवा का रूख नहीं भांप सकीं. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बीते दौर के राजाओं की तरह मायावती भी उस समाज से पूरी तरह कट गई हैं जिससे वे आई हैं.
विधानसभा चुनावों में भारी जीत हासिल करने के बाद उत्तर प्रदेश की हालत सुधारने की बजाय मायावती ने तुरंत ही दिल्ली की गद्दी का अभियान छेड़ दिया. बेहतर होता कि वे राज्य में अपनी स्थिति और मजबूत करतीं मगर इसकी बजाय उन्होंने राज्य की कमान अपने ब्राह्मण प्रभुत्व वाले सलाहकार गुट को सौंप दी और खुद आगे की राह पर निकल पड़ीं. पार्टी शुभचिंतक जानते थे कि ऐसा करके वे अपने अभिमान का सबूत दे रही हैं. मगर बहनजी तक कोई कैसे पहुंचता? वे तो अपने ही पार्टी सदस्यों और मंत्रियों से पूरी तरह कटी हुई थीं. इसके अलावा उन्होंने खुद को मीडिया से भी दूर कर लिया था. एक चुनाव रैली में बोलते हुए उन्होंने कहा था, ‘मीडिया आपको बताएगा कि मैं पार्क और मूर्तियां बनाने पर बहुत सारा पैसा खर्च कर रही हूं, उस पर विश्वास मत करिएगा. मीडिया आपको बताएगा कि मैं दलितों को छोड़कर ब्राह्मणों को प्राथमिकता दे रही हूं. उस पर विश्वास मत कीजिएगा. वे आपको बताएंगे कि मेरी सरकार आपके भले के लिए कुछ नहीं कर रही. उस पर विश्वास मत करिएगा..’
खुद को धोखे में रखना मायावती को ले डूबा. नहीं तो उन्हें अहसास हो जाता कि अपराधियों को टिकट देना अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा. शायद वे भूल गईं थी कि समाजवादी पार्टी के राज में जंगलराज को ही मुद्दा बनाकर वे बहुमत से सत्ता में आईं थीं. आपराधिक पृष्ठभूमि के जितने भी उम्मीदवारों को उन्होंने टिकट दिया था वे सब के सब हार गए.
कुछ ऐसा ही गुमान लालू प्रसाद यादव को भी हो गया था. जमीन की राजनीति कर आगे बढ़े लालू भी पिछड़ों की ताकत के प्रतीक बन गए थे जिसके बूते उन्होंने 15 साल तक बिहार में राज किया. मगर फिर जनता ने देखा कि उसका यह प्रतीक निजी स्वार्थ का गुलाम होकर रह गया है तो उसने इसे उखाड़ फेंका. अगर मायावती ने सबक नहीं सीखा तो उनके साथ ऐसा लालू की अपेक्षा कहीं जल्दी हो सकता है.
2009 के इस चुनाव में एक बात हर जगह समान रही है. लोगों ने हर जगह घमंड को नीचा दिखाया. बुद्धिमत्ता और दृष्टि सिर्फ कुलीन वर्ग की जायदाद नहीं है. ये उन लोगों में भी होती है जो जिंदगी की दुश्वारियां झेलते हैं. बुंदेलखंड का किसान जानना चाहता है कि 45 डिग्री की झुलसाती गर्मी में उसके पास पीने का पानी क्यों नहीं है. पूर्वांचल का किसान पूछ रहा है कि क्यों उसकी फसल को हर साल बाढ़ खा रही है और उसके बच्चे कालाजार से मर रहे हैं. आजमगढ़ के बुजुर्ग जानना चाहते हैं कि उनके बच्चे जेलों में क्यों हैं. और नौजवान जानना चाहते हैं कि आगे बढ़ते वक्त के साथ वे पीछे क्यों छूटे जा रहे हैं.
मायावती की कहानी आज के भारत की सबसे अहम और असाधारण कहानियों में से एक है. एक सरकारी क्लर्क की बेटी से इतनी बड़ी नेता बनने तक की उनकी यात्रा संघर्ष और साहस से भरी रही है. इस यात्रा का पहला अध्याय खत्म हो चुका है. 2009 मध्यांतर है. अब उन्हें कल्पना की ऊंचाई से उतरकर जमीनी हकीकत को देखने की जरूरत है. अगर वे ऐसा करती हैं तो वास्तव में इतिहास बना सकती हैं. दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. ये बात भला कांग्रेस से बेहतर कौन जानता होगा.’