ईलम के स्वप्न का उत्थान और पतन

मुझे आज भी वह लम्हा अच्छी तरह से याद है जब मैंने पहली बार उससे हाथ मिलाया था. उसका हाथ मुलायम था और पकड़ नाजुक जिसमें कुछ हिचकिचाहट भी झलक रही थी. ये मुलाकात मद्रास में हुई थी. इस मुलाकात में उसने जाफना के तमिल मेयर और बाद में 13 श्रीलंकाई सैनिकों की हत्या की उस घटना की जिम्मेदारी ली थी जिसके बाद 1983 में पूरे श्रीलंका में तमिलविरोधी दंगे भड़क उठे थे.ये शख्स था वेल्लुपिल्लई प्रभाकरन जिसका हाथ मिलाने का नाजुक अंदाज उसकी आवाज की कोमलता से बखूबी मेल खाता था.

प्रभाकरन ने शुरुआत से ही एक दोहरी रणनीति अपनाई. इसके तहत एक तरफ उसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने पक्ष में एक राजनीतिक अभियान चलाया और दूसरी ओर आतंकी कार्रवाइयों द्वारा अर्थव्यवस्था और राज्य सत्ता को कमजोर किया

प्रभाकरन से जुड़ी एक और स्मृति तब की है जब मैंने ईलम पर दिए गए उसके एक लंबे भाषण के खत्म होने के बाद उसे पिता बनने की बधाई दी थी. उसके चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभर आए और कुछ क्षणों के लिए उसने चुप्पी साध ली. थोड़ी ही देर में ऐसा लग रहा था मानो ईलम यानी एक अलग देश के अपने सपने की अंतहीन सी यात्रा में उसकी अब कोई दिलचस्पी ही नही रह गई है. उसमें पहले से कम उत्साह नजर आने लगा और लग रहा था जैसे वह अपने में ही खो सा गया हो. फिर वह अचानक ही कमरे से बाहर चला गया और उसका खास सिपहसालार एंटन बालसिंघम सतर्कता से मुझसे पूछताछ करने लगा कि प्रभाकरन के परिवार में आए नए मेहमान के बारे में मुझे कहां से पता चला और इस बारे में मुझे और क्या-क्या जानकारी है.

हालांकि श्रीलंका में 25 सालों के दौरान मेरे तरह-तरह के अनुभव रहे और इनके अलावा भी प्रभाकरन से मेरी कुछ और मुलाकातें हुईं मगर ये दो वाकये लिट्टे के उस मुखिया के व्यक्तित्व को सबसे बढ़िया तरीके से दर्शाते हैं जो एक अलग तमिल देश के अपने सपने को साकार करने के काफी नजदीक पहुंच गया था. प्रभाकरन से जुड़ी ये दोनों यादें उसके व्यक्तित्व की दो खासियतों को बताती हैं. पहली ये कि सब के मन में अपनी असल क्षमताओं के उलट धारणाएं बनाओ – गौरतलब है कि छल प्रभाकरन की हर रणनीति के केंद्र में रहा है. दूसरी ये कि अपनी परछाई पर भी भरोसा मत करो. प्रभाकरन के व्यवहार में उसकी वहमी सोच की झलक मिलती है. इन खासियतों ने प्रभाकरन को शिखर पर पहुंचाया और यही दुनिया के सबसे क्रूर आतंकवादी संगठन के नेता के पतन और मौत का कारण भी बनीं.

1987 में जब मैं भारतीय शांतिरक्षक बल (आईपीकेएफ) या शांति सेना के खिलाफ लिट्टे की लड़ाई की रिपोर्टिग कर रहा था, उस दौरान एक बार लिट्टे लड़ाकों ने शांति सैनिकों पर घात लगाकर हमला किया. इस घटना की तस्वीरें लेने की कोशिश में मेरी नजर एक ऐसे सैनिक पर पड़ी जिसके सिर में गोली लगी थी. उसके निर्जीव शरीर से बहता खून जाफना की मिट्टी में मिल रहा था. इस दृश्य को देखकर मैं जड़ हो गया. मेरे मन में प्रभाकरन से हुई मेरी पहली मुलाकात के पल कौंध गये.

प्रभाकरन ने शुरुआत से ही एक दोहरी रणनीति अपनाई. इसके तहत एक तरफ उसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने पक्ष में एक राजनीतिक अभियान चलाया और दूसरी ओर आतंकी कार्रवाइयों द्वारा अर्थव्यवस्था और राज्य सत्ता को कमजोर किया. अपनी चालाकी और नेतृत्व के बूते वह इस संघर्ष को 25 साल तक खींचने में सफल रहा.

प्रचार का हथियार

अगर प्रचार से लड़ाइयां जीती जा सकती हैं तो श्रीलंका को दूसरा लेबनान बनने से बचाने वाली भारतीय शांति सेना प्रभाकरन के इसी घातक प्रचाररूपी हथियार का शिकार बन गई. मीडिया की असल ताकत का अहसास दुनिया को पिछले कुछ समय से हो रहा है मगर प्रभाकरन को दो दशक पहले ही इसका बखूबी अहसास था और वह बिना शक अपने हिसाब से मीडिया को साधने की कला में पारंगत था. उसकी गुरिल्ला रणनीति के केंद्र में एक भरोसेमंद और शक्तिशाली संचार नेटवर्क और उससे सहानुभूति रखने वाला मीडिया था. 1980 के दशक के दौरान मद्रास में भारत सरकार के मेहमान के तौर पर वह अपनी मनमर्जी से चुनिंदा प्रकाशनों को एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देता था और शुरुआत से ही उसके लिए मीडिया का समर्थन जीतना कोई मुश्किल काम नहीं था, खासकर पश्चिमी मीडिया का. उसने बहुत ही चालाकी से शोषित समुदाय का कार्ड खेला और इस काम में उसे अपने सलाहकार एंटन बालसिंघम, ऑस्ट्रेलियाई मूल की उसकी पत्नी एडेल बालसिंघम और लंदन स्थित लिट्टे के मीडिया मुख्यालय से जबर्दस्त मदद मिली.

एक हफ्ते बाद कोलंबो पहुंचकर मैंने जब इस खास खबर को अपने अखबार तक पहुंचाने के लिए फोन लगाया तो ये जानकर मुझे निराशा और हैरत हुई कि मीडिया में ये घटना पहले ही सुर्खियां बन चुकी थीनवंबर 1986 में बेंगलौर में सार्क सम्मेलन हुआ. इसकी पूर्वसंध्या पर पुलिस ने तमिलनाडु से अपनी गतिविधियां संचालित कर रहे ईलम गुटों पर छापा मारा और अत्याधुनिक हथियार और संचार उपकरण जब्त कर लिए. ऐसा मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन के निर्देश पर किया गया था. प्रभाकरन मद्रास में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसने कहा कि वह महात्मा गांधी की तरह शांतिपूर्ण विरोध जताते हुए अपने उपकरणों को वापस करने की मांग कर रहा है. दिलचस्प बात ये है कि उसने रॉकेट लांचर, मिसाइल या एके 47 नहीं बल्कि उसके दो वायरलेस सेटों को फौरन वापस लौटाने की मांग की थी जो दुनिया से उसके संपर्क का जरिया थे. इस समय तक मीडिया उसके हिसाब से चलने लगा था और प्रभाकरन का महिमामंडन कर उसे भगवान बनाने की प्रक्रिया चल रही थी. आखिर में उसे उसकी हर चीज जूस से भरे एक गिलास के साथ लौटा दी गई जिसे पीकर उसने अपनी जीत की घोषणा की थी.

इसके तकरीबन एक साल बाद जाफना प्रायद्वीप में मेरे हाथ एक बड़ी खबर लगी. शांति सेना के एमआई-24 हेलीकॉप्टर्स ने लिट्टे के गढ़ छवाकच्छेरी पर हमला बोला था. मेरे चारों तरफ लोग मर रहे थे जिनमें से ज्यादातर निर्दोष आम नागरिक थे. मैं इस दौरान इस इलाके में मौजूद अकेला रिपोर्टर था. एक हफ्ते बाद कोलंबो पहुंचकर मैंने जब इस खास खबर को अपने अखबार तक पहुंचाने के लिए फोन लगाया तो ये जानकर मुझे निराशा और हैरत हुई कि मीडिया में ये घटना पहले ही सुर्खियां बन चुकी थी. प्रभाकरन इस मामले में मुझसे ज्यादा तेज साबित हुआ था. जंगल में स्थित उसके शिविरों में बिजली तक नहीं थी और अभी शवों की गिनती का काम भी पूरा नहीं हुआ था मगर इसके बावजूद उसके सिपहसालारों ने इस बमबारी की खबर लंदन स्थित अपने मीडिया मुख्यालय तक रेडियो के जरिए पहुंचा दी थी. वहां से हर बड़े अंतर्राष्ट्रीय अखबार को इस घटना पर एक टेलेक्स भेजा गया था. चूंकि असल तस्वीरें तो थी नहीं इसलिए यहां पर छल से काम लिया गया था. लिट्टे ने श्रीलंकाई सेना द्वारा छवाकच्छेरी हमले के सबूत के तौर पर एक दूसरी जगह वदामराई पर किए गए हमले के पुराने फोटो भेजे थे.

लिट्टे का ताकतवर संचार तंत्र हालात की रिपोर्ट रोज ही जाफना से लंदन के मीडिया मुख्यालय भेजता था जहां से इसे प्रेस विज्ञप्ति के तौर पर टेलेक्स और बाद में फैक्स और इंटरनेट के जरिए पश्चिमी देशों की सरकारों और वहां के अखबारों को भेज दिया जाता था. 1990 के दशक की शुरुआत तक लिट्टे का प्रचार मुख्य रूप से प्रकाशित सामग्री के द्वारा होता था. इस दौरान इस संगठन ने कई भाषाओं में रंगीन पुस्तिकाएं और पर्चे प्रकाशित करने पर काफी पैसा खर्च किया. ये सामग्री स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया व चुनिंदा सरकारी संगठनों को भेजी जाती थी.

संचार की आधुनिकतम तकनीकें सीखने के मामले में लिट्टे का कोई जवाब नहीं था और इसी वजह से ये संगठन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतनी सुर्खियां बटोर सका. बावजूद इसके कि इसका ताल्लुक एक छोटे से दक्षिण एशियाई देश से था जिसका महत्व पश्चिमी जगत में  न के बराबर था और इसकी हिंसक गतिविधियां श्रीलंका और यदा-कदा भारत तक ही सीमित थीं.

अगर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद आतंकवाद से लड़ने वाले रणनीतिकारों का ध्यान श्रीलंका की तरफ भी गया तो इसकी एक वजह प्रभाकरन का विश्वव्यापी असर भी था. देखा जाता है कि आतंकी संगठन एक दूसरे की रणनीतियों से सीख लेते हुए उन्हें अपनाते रहते हैं. दुनिया भर के आतंकी संगठनों ने बंधक बनाने से लेकर आत्मघाती हमलों तक नए तरीकों की तेजी से नकल कर उन्हें अपनाया है. तालिबान का ही उदाहरण लीजिए जिसने बुनेर जिले में पाकिस्तानी सेना के हमले के खिलाफ आम नागरिकों को ढाल की तरह इस्तेमाल किया.

सालों पहले जब किसी ने ओसामा का नाम भी नहीं सुना था प्रभाकरन गुरिल्ला लड़ाई के नये-नये तरीके विकसित कर रहा था. आत्मघाती हमला, आईईडी का इस्तेमाल, बच्चों के हाथों में बंदूकें पकड़ाना और मीडिया के मामले में अत्याधुनिक तकनीक से लैस होना आदि लिट्टे द्वारा अपनाए गए ऐसे तरीके थे जिनका बाद में दूसरे आतंकी संगठनों ने भी इस्तेमाल किया.

गिरगिट सा गुण

हालात को भांपते हुए प्रभाकरन वक्त के साथ बदलता रहा. उसकी यही खासियत इस संगठन को न सिर्फ जिंदा रखे रही बल्कि उसका लगातार विस्तार भी करती रही. उसकी जिंदगी में एक ही चीज स्थायी रही है और वह है इस द्वीप को दो भागों में बांटने की उसकी तीव्र महत्वाकांक्षा. तीस साल तक इस महत्वाकांक्षा को जिंदा रखने के लिए लगातार कुछ नया करना और तमिल समाज पर एक मजबूत पकड़ जरूरी थी और ऐसा करने के लिए प्रभाकरन ने अपनी सुविधानुसार हर तरह के तरीके अपनाए. इनमें से कुछ का संबंध धर्म से होता था तो कुछ का राजनीति से. उदाहरण के तौर पर 1980 के दशक में प्रभाकरन की पसंद मार्क्स हुआ करते थे. मगर बार-बार अपने सपनों के ईलम में एकदलीय समाजवादी सरकार बनाने की उसकी बात से जब लोग थोड़ा सशंकित होने लगे तो उसके ठिकाने पर लगा लेनिन का पोट्रेट तुरंत हटा लिया गया. इसके बाद उसकी बातचीत में मार्क्स का जिक्र तक नहीं होता था. अब प्रभाकरन ने दूसरों की विचारधारा को छोड़ दिया और अपने ही व्यक्तित्व के इर्दगिर्द एक आभामंडल रचना शुरू कर दिया. उसके प्रशंसक मीडिया ने उसके अनुयायियों जितने उत्साह से ही इस प्रक्रिया में उसका साथ दिया. प्रभाकरन किसी पौराणिक चरित्र के स्वरूप में परिवर्तित होने लगा था और उसकी बुद्धिमत्ता और वीरता की कहानियां तेजी से फैलने लगीं थी. जल्द ही कैडरों के लिए उसके नाम पर शपथ लेना, उसका जन्मदिन मनाना और उसके पोस्टर हर जगह लगाना जरूरी हो गया. एडेल ने नारीवाद के नाम पर संगठन में लड़कियों को भर्ती करने की परंपरा शुरू की. उसके शब्दों में – ‘दुनिया में कहीं भी महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह को पूरी तरह से नहीं मिटाया जा सका है और तमिल समाज में भी ये मौजूद है. इसके बावजूद हमारे पुरुष कैडर, महिला कैडरों की उपलब्धियों के प्रति बेहद सम्मान और गर्व की भावना रखते हैं.’

प्रभाकरन बेहद चतुर था. उस पता था कि चारों तरफ फैली घबराहट और नाउम्मीदी के माहौल के चलते लड़कों और लड़कियों को आसानी से नफरत और मशीनगन का पाठ पढ़ाया जा सकता है

शहीद हुए अपने लड़ाकों की याद में स्मारक बनाकर उन्हें पूज्य बनाने की परंपरा प्रभाकरन ने हिंदू धर्म से सीखी. इन स्थलों पर किसी पवित्र या विशेष दिन लोग प्रार्थना करते और तरह-तरह की वस्तुएं अर्पित करते. पश्चिम की सैन्य परंपराओं से उसने सेना के निर्माण का मॉडल अपनाया. हॉलीवुड की एक्शन फिल्मों का इस्तेमाल उसने अपने लड़ाकों में जोश भरने के लिए तो किया ही साथ ही उनसे ये भी सीखा कि ऐसे बढ़िया आडियो-वीडियो प्रेजेंटेशन किस तरह बनाए जाते हैं जिनसे फायदा और सहानुभूति दोनों कमाए जा सकें.

मैं ही मैं

प्रभाकरन को प्रचार और अपनी छवि में छिपी ताकत का अंदाजा था और वह जानता था कि ये उसके जखीरे के सबसे घातक हथियार हैं. उसने ये सुनिश्चित किया कि संगठन में सबको पता हो कि इस हथियार का सबसे बढ़िया इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है. उसके कैडर किसी बाहरी आदमी के साथ बात नहीं कर सकते थे और लिट्टे के नियंत्रण वाले क्षेत्र में लोग अपने घरों में सिर्फ एक ही तस्वीर लगा सकते थे जो कि प्रभाकरन की होती थी. गलियों में लगे लाउडस्पीकरों में या तो उसके भाषण बजते रहते थे या फिर ईलम से जुड़े गाने. जब भी मुझे बालसिंघम के साथ उसकी वातानुकूलित जीप में जाफना प्रायद्वीप के भ्रमण का प्रस्ताव मिलता तो इसका एक मतलब ये भी होता था कि ड्राइविंग सीट संभाल रही एडेल यात्रा के दौरान म्यूजिक प्लेयर में प्रभाकरन के भाषण का कैसेट लगा देंगी और मुझे वह सुनना ही होगा.

अलकायदा से सालों पहले प्रभाकरन ने कैलेंडर्स, पोस्टर्स, सीडी, डीवीडी, अखबार, मैगजीन, रेडियो और टीवी स्टेशन के जरिए प्रचार की कला में कुशलता हासिल कर ली थी. दिलचस्प ये भी है कि 1993 में जब इस उपमहाद्वीप के ज्यादातर लोगों को वेब शब्द के जिक्र से मकड़ी के जाले का ध्यान आता होगा तब लिट्टे अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी के सर्वर पर अपनी वेबसाइट चला रहा था. ये वह दौर था जब राजीव गांधी की हत्या के बाद ज्यादातर मीडिया लिट्टे के खिलाफ हो गया था इसलिए संगठन के लिए ये नया माध्यम बहुत उपयोगी साबित हुआ. अप्रवासियों द्वारा वान्नी इलाके में चलाई जा रही एक कंप्यूटर अकेडमी ने ये सुनिश्चित किया कि लिट्टे नई-नई तकनीकों से हमेशा आगे रहे.

कम ही लोगों को मालूम होगा कि इंटरनेट ब्लैक टाइगर्स जिसे दुनिया के पहले साइबर हमले के लिए जिम्मेदार माना जाता है, लिट्टे की ही एक इकाई है. 1997 में हुए इस हमले की वजह से 15 दिनों तक दुनिया भर में श्रीलंकाई दूतावासों का नेटवर्क डाउन हो गया था. इसी साल इसने ब्रिटेन की एक यूनिवर्सिटी की वेबसाइट में सेंध लगाई. कुछ दिन पहले ही खुद को कालई अम्मान इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर यूनिट बताने वाले  एक समूह ने श्रीलंकाई सेना की वेबसाइट पर हमला बोला और इसके मुखपृष्ठ की शक्ल बिगाड़ दी. सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भी लिट्टे ने खूब इस्तेमाल किया है और यूट्यूब पर अगर सर्च किया जाए तो संगठन के सैकड़ों वीडियो देखने को मिल जाएंगे.

प्रभाकरन ने अपनी मीडिया यूनिट तैयार करने में जरा भी देर नहीं लगाई. इसमें फोटोग्राफर और वीडियोग्राफर शामिल थे और इन्होंने संगठन द्वारा लड़ी गई हर लड़ाई और हर हत्या को अपने कैमरों में कैद किया

1980 के दशक की शुरुआत में जब मैं प्रभाकरन की तस्वीरें (फोटो सेशंस) लेता था तो उसके व्यवहार में असहजता साफ नजर आती थी. उसे समझ में नहीं आता था कि उससे किस तरह की फोटो की अपेक्षा की जा रही है. उन दिनों वह फोटो खींचने वाले के निर्देश मान लेता था. एक बार जब उसे ये सुझाव दिया गया कि वह युद्ध के दौरान पहनी जाने वाली पोशाक पहन ले तो वह इससे भी एक कदम आगे चला गया और अपनी पिस्टल पूरी तरह से लोड करके कैमरे के सामने खड़ा हो गया. पृष्ठभूमि में लेनिन और बाघ की तस्वीर थी और अपने अंगरक्षकों से घिरा हुआ लिट्टे मुखिया फोटो खिंचवाने के लिए तैयार था. तब फोटो सेशंस को लेकर उसे इतनी उत्सुकता रहती थी कि एक घंटे बाद ही वह ये देखना चाहता कि फोटो कैसी आई हैं.

मगर बाद में वह इस सब का अभ्यस्त हो गया. जाफना में भारतीय शांति सेना के खिलाफ लड़ाई के दौरान हुए सभी फोटो सेशंस में वह एक्टर भी खुद ही होता था और डायरेक्टर भी और उसे इसमें बड़ा आनंद भी आता था. प्रभाकरन को अब पता था कि कैमरे के सामने कैसा चेहरा और मुद्रा बनानी है. उसकी आवाज में गरज होती, सवालों के जवाब पूरी तैयारी से दिए गए होते और बातचीत में बनावट का आभास होता. वह लोगों को अच्छी लगने वाली बातें कहता, अंग्रेजी के इस्तेमाल से बचता, कोई कहावत कहने से पहले थोड़ा सोचता और ऐसी मुद्रा में फोटो खिंचवाता जो उस मौके के लिए उसे सबसे अनुकूल लगती. मुझे याद है कि शांति सेना के अभियान के दौरान जब मैं उसके एक ठिकाने पर उसका इंटरव्यू ले रहा था तभी उसने एक आवाज लगाई और चीते का एक बच्चा कमरे में आ गया जो उसका पालतू था. फिर अपने दोस्त और संगठन में दूसरा स्थान रखने वाले योगरत्नम योगी के साथ हंसी-मजाक करते हुए उसने चीते की पीठ सहलाते हुए फोटो खिंचवाई जिसमें वह शिकार से लौटे किसी अमीर जमींदार की तरह लग रहा था.मगर उन दिनों भी हाथ मिलाने के दौरान उसकी पकड़ की कोमलता अपनी जगह बरकरार थी.

प्रभाकरन की रणनीति के लिए ये बहुत जरूरी था कि वह ये संदेश बाहर भेजे कि उसके पास प्रतिबद्ध अनुयायी हैं और इनमें पुरुष, महिलाएं और बच्चे तक शामिल हैं. सायनायड की गोली इस प्रतिबद्धता का एक प्रतीक थी. उसने बड़ी उदारता से मुझे इन गोलियों की फोटो लेने की इजाजत दी जिसे उसके लड़ाके अपनी गर्दन में पहने रहते थे. ये बात अलग है कि लड़ाइयों में तमिल टाइगर्स द्वारा सायनायड की गोली गटकने की घटनाएं तो सुर्खियां बनती थीं मगर उन घटनाओं का कोई जिक्र तक नहीं होता था जब वे डर के मारे इन गोलियों को फेंक देते थे.

प्रभाकरन को अपने चीतों के साथ फोटो खिंचवाना बहुत अच्छा लगता था मगर खाना खाते हुए फोटो खिंचवाना उसे जरा भी पसंद नहीं था. इसके अलावा महिला कैडरों और मृत लड़ाकों की तस्वीरें लेने पर भी पाबंदी थी. राजीव गांधी की हत्या के बाद मीडिया को खुश करने के लिए ये पाबंदियां हटा ली गईं.

प्रभाकरन ने अपनी मीडिया यूनिट तैयार करने में जरा भी देर नहीं लगाई. इसमें फोटोग्राफर और वीडियोग्राफर शामिल थे और इन्होंने संगठन द्वारा लड़ी गई हर लड़ाई और हर हत्या को अपने कैमरों में कैद किया. इससे दो मकसद हल हुए. एक तो इससे नए लड़ाकों को प्रशिक्षण देने में मदद मिली क्योंकि अब लड़ाई के मैदान में होने वाली चीजों को नए रंगरूटों को दिखाया जा सकता था. इसके अलावा ईलम के अलग राष्ट्र बनने के बाद ये रिकॉर्ड इतिहास तैयार करने में मददगार साबित होता. मगर इस तरह के रिकॉर्ड के लिए प्रभाकरन की सनक ही उसके लिए विनाशकारी साबित हुई क्योंकि इसकी ही वजह से राजीव गांधी की हत्या के जांचकर्ता लिट्टे तक पहुंच पाए.

राजीव गांधी की हत्या के बाद जब मेरा प्रायद्वीप में चल रहे लिट्टे के प्रशिक्षण शिविरों में जाना हुआ तो मैंने एक खास बात नोट की. अब इनमें बच्चों को भी प्रशिक्षण दिया जा रहा था. उनकी ट्रेनिंग अपने नेता के नाम पर शपथ लेने से शुरू होती थी जो इस तरह थी – ‘तमिल ईलम को पाने के लिए मैं अपनी जिंदगी और आत्मा समर्पित करता हूं. हम अपने बड़े भाई और अपने क्रांतिकारी संगठन के नेता प्रभाकरन के प्रति आस्थावान और उसके विश्वासपात्र रहेंगे. अब मैं अपने प्रशिक्षण की शुरुआत कर रहा हूं. टाइगर्स की भूख तमिल ईलम है.’ दिन के अंत में भी यही शपथ दोहराई जाती थी जब झंडे को आधा झुका दिया जाता था.

इस दौरान कभी-कभी मुझे न्यूयॉर्क की सड़कों पर या लंदन की किसी शादी में या फिर पेरिस के किसी रेस्टॉरेंट में बढ़िया कपड़े पहने हुए कोई अजनबी मिलता और बताता कि लिट्टे से फलां मुलाकात के समय वो मेरे साथ था

रंगरूटों के लिए इतिहास के सबक दुश्मन से नफरत पैदा कराने वाले होते थे जिनमें दुश्मन बलात्कारी, हत्यारा और नस्लवादी होता था. ये सबक प्राचीन तमिल साम्राज्यों और राजाओं को महिमामंडित करते थे. क्लासरूम में दिए जाने वाले निर्देश रणनीतिक योजनाओं के बारे में होते थे. कक्षाओं में एक ब्लैकबोर्ड, युद्ध पर आधारित फिल्में और पुरानी लड़ाइयों की केस स्टडीज होती थीं जिन्हें वीडियो और तस्वीरों की मदद से तैयार किया जाता था. और आखिर में एक फिल्म दिखाई जाती थी जो हॉलीवुड की बी ग्रेड एक्शन फिल्मों के भंडार में से एक होती थी. इनमें भी रैंबो सबकी पसंद होती थी.

प्रभाकरन बेहद चतुर था. उस पता था कि चारों तरफ फैली घबराहट और नाउम्मीदी के माहौल के चलते लड़कों और लड़कियों को आसानी से नफरत और मशीनगन का पाठ पढ़ाया जा सकता है. दुश्मन से नफरत, एक मकसद, कुछ बड़ा कर अमर होने की भावना और एक्शन फिल्मों की खुराक पर पले-बढ़े किसी किशोर के हाथ में यदि बंदूक थमा दी जाए तो इसका नशा जन्नत में 72 हूरों के वादे से कहीं ज्यादा गहरा होना ही था.

रैंबो बनने की हसरत पाले किसी 12 साल के किशोर के लिए खतरे का रोमांच एक सम्मोहित कर देने वाला अनुभव होता है. हाथ में बंदूक उसे एक ऐसी ताकत से भर देती है जिसके बारे में वह कभी सोच भी नहीं सकता. एक बार मुझे भी एक क्लाश्निकोव परखने का निर्देश दिया गया. मैंने समुद्र में दूर नजर आते क्षितिज की तरफ गोलीबारी की. कुछ राउंड गोलियां चलाने के बाद जब हम वापस आ रहे थे तो अचानक मुझे ध्यान आया कि मेरी चाल में एक विशेष अकड़ आ गई थी और मैं अजेय महसूस कर रहा था. मुझे ये भी अहसास हुआ कि भले ही राइफल के झटके की वजह से मुझे कंधों में अकड़न महसूस हो रही थी मगर मेरी चाल बिल्कुल रैंबो नाम की फिल्म के उसी नाम वाले नायक जैसी हो गई थी. गौर कीजिए कि मैं 30 साल से ऊपर की उम्र का आदमी था जिसने दुनिया देख रखी थी. जब मैं इस तरह का व्यवहार करने लगा था तो 12 साल के उस बच्चों की क्या बिसात जिसने प्रभाकरन के ट्रेनिंग कैंप के परे दुनिया ही न देखी हो. लिट्टे में भर्ती होने का एक और आकर्षण ये भी था कि बंदूक लहराते हुए कैडर जिस भी गांव में जाता था उसके लिए सोने और रहने की व्यवस्था प्राथमिकता के तौर पर की जाती थी. और इससे भी बड़ी प्रेरणा का काम करता था अमरत्व का आकर्षण. जो लोग मकसद के लिए अपनी जान देते थे उन्हें कविताओं और स्मृतिस्थलों के जरिए हमेशा याद किया जाता था.

परदे के पीछे

श्रीलंका में लिट्टे को नजदीक से देखने की कोशिश के दौरान संगठन के लड़ाकों से बातचीत और मेल-जोल एक अनिवार्य गतिविधि होती थी. फटे-पुराने कपड़े पहने, कुछ-कुछ जंगली से दिखते और अक्सर नंगे पैर रहने वाले ये लड़ाके सीमावर्ती और युद्धग्रस्त इलाकों में आपके साथी, मार्गदर्शक और साथ ही अभिभावक भी बन जाते थे. लगातार उनके साथ रहते और युद्धग्रस्त इलाकों में इनके साथ खाते और सोते मुझे इनसे एक जुड़ाव सा महसूस होने लगता था लेकिन ऐसा कभी नहीं होता था कि अगली यात्रा के दौरान भी आपकी उन्हीं लड़ाकों से मुलाकात हो. तब तक या तो वे संघर्ष के दौरान मारे जा चुके होते या फिर उन्हें किसी दूसरी जगह पर तैनात कर दिया जाता था. हर नई यात्रा में नए लड़ाके मिलते जिनसे पुरानों के बारे में कुछ भी पता लगा पाना बेहद मुश्किल होता क्योंकि उनमें से हर एक छद्म नाम के साथ लड़ रहा होता था. शहीदों के पोस्टरों और कटआउट्स से भरे पड़े प्रायद्वीप में मैं किसी परिचित चेहरे की तलाश करता. अपनी यात्राओं के दौरान मैंने पाया कि वहां शहीदों के सम्मान में बने स्मृतिस्थलों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही थी. लोग उन पर अगरबत्ती, फूल चढ़ाते और प्रार्थना करते.

इस दौरान कभी-कभी मुझे न्यूयॉर्क की सड़कों पर या लंदन की किसी शादी में या फिर पेरिस के किसी रेस्टॉरेंट में बढ़िया कपड़े पहने हुए कोई अजनबी मिलता और बताता कि लिट्टे से फलां मुलाकात के समय वो मेरे साथ था. ऐसे लोग आपको तंजावुर-मंदिरों के गलियारों में भी मिल जाया करते थे. कभी-कभी उनकी फोटो किसी अखबार में भी नजर आती जो इस खबर के साथ छपी होती थी कि जिस देश ने उन्हें नागरिकता दी वे उसी देश में कोई गैरकानूनी काम कर रहे थे.

लड़कियों की भर्ती

लिट्टे में शामिल लड़कियों को फ्रीडम बर्ड्स कहा जाता था. ये प्रभाकरन की तुरुप का इक्का थीं. भारतीय शांति सेना लगातार इस संगठन को विभिन्न स्तरों पर बड़ा नुकसान पहुंचाती जा रही थी. प्रभाकरन को लड़ाकों की संख्या बढ़ानी थी और इसके लिए उसे और भी ज्यादा लड़कियों और बच्चों की भर्ती करनी पड़ी. लिट्टे में लड़कियों को शामिल करने की जिम्मेदारी ‘आंटी’ यानी एडेल बालसिंघम को सौंपी गई. इस समय तक लड़कियां लिट्टे की छात्र शाखा जिसे सोल्ट (स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन ऑफ लिबरेशन टाइगर्स) के नाम से जाना जाता है, के तहत काम करती थीं. वे आयोजनों के लिए भीड़ जुटातीं, पर्चे बांटती और प्रभाकरन या हाल ही में अपनी जान गंवाने वाले किसी आत्मघाती हमलावर की वीरता के गीत गातीं थीं. समाज में जातिगत भेदभाव और शांति सेना की तथाकथित ज्यादतियों ने एडेल का काम आसान बना दिया था. वे लड़कियों को परंपरागत तमिल महिला की छवि से मुक्त करने आश्वासन देती थीं. इस नई भूमिका में लड़कियां, लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ने वाली थीं. राजीव गांधी की हत्या के कुछ ही महीनों बाद जाफना में बातचीत के दौरान एडेल ने कहा था कि जाफना की महिलाओं में आया आत्मविश्वास पिछले कुछ सालों की सबसे बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि है. एडेल के पति एंटन बालसिंघम को लिट्टे का स्वयंभू विचारक, प्रभाकरन का राजनैतिक सलाहकार और लिट्टे का मुख्य वार्ताकार माना जाता था. 2007 में कैंसर से एंटन की मृत्यु के बाद एडेल लिट्टे के लंदन स्थित मुख्यालय चली गईं और वहीं से अपने नेता के काम को आगे बढ़ाना जारी रखा.

मुख्य सिपहसालार

प्रभाकरन का बेहद करीबी और महाथया के छद्म नाम से पहचाने जाने वाला गोपालस्वामी महेंद्रराजा लिट्टे के कैडरों के बीच खासा लोकप्रिय था. जिन लोगों ने प्रभाकरन को सिर्फ तस्वीरों में देखा है यदि उनके सामने महाथया आ जाता तो वे उसे आसानी से प्रभाकरन समझने की भूल कर सकते थे. क्योंकि उनका डीलडौल काफी मिलता था. यहां तक कि दोनों की मूंछें भी एक जैसी थीं. प्रभाकरन की उपस्थिति में महाथया बिल्कुल चुप रहता था, जब तक कि उससे कुछ बोलने को न कहा जाए. हालांकि लड़ाई के मोर्चे पर उसका कायापलट देखने लायक होता था जहां वो एक बेहतरीन कमांडर होता था.

राजीव गांधी हत्याकांड की वजह से दुनिया भर में लिट्टे के खिलाफ मत बनने से उसकी छवि आतंकी संगठन की बनने लगी थीचुप रहने वाले महाथया के उलट योगी था जो अक्सर तेज आवाज में बात करता था. योगी को प्रभाकरन के उन चुनिंदा करीबियों में माना जाता है जिनसे वह सहज होकर बात किया करता था. इस बातचीत में हंसी-मजाक भी शामिल होता था. एक साथ खाना खाते समय वे दोनों दोस्तों की तरह लगते थे. कान्वेंट स्कूल में पढ़ा योगी अक्सर बातचीत से लोगों को प्रभावित करने की कोशिश करता था. लेकिन इसके उलट महाथया प्रभाकरन की उपस्थिति में संकोच और शालीनता से पेश आता था. मगर सेना के खिलाफ लड़ाकों की अगुवाई करने वाले महाथया को युद्ध के मोर्चे पर देखना एक अलग ही अनुभव होता था. वह एक लोकप्रिय और कर्तव्यनिष्ठ आर्मी कमांडर था जबकि योगी मंझा हुआ राजनीतिज्ञ.

मार्च 1990 में शांति सेना के  आखिरी जत्थे की श्रीलंका से वापसी हो रही थी. इस मौके पर महाथया अपने लड़ाकों की सेना के मुखिया के तौर पर योगी के साथ त्रिंकोमाली कस्बे में आया था. उन दोनों ने यहां स्थित स्टेडियम में जमा भारी भीड़ और मीडिया का आभार व्यक्त किया था. योगी ने इस दौरान हम मीडियाकर्मियों में से भी कुछ का उनके नाम लेकर आभार व्यक्त किया. योगी ने कहा कि इन मीडियाकर्मियों ने भी उनके संघर्ष में उन जितनी ही लड़ाई लड़ी है.

इसके एक साल के भीतर ही राजीव गांधी की हत्या कर दी गई. जांच के नतीजों से साफ था कि इसमें लिट्टे का हाथ है. इस घटना के बाद जब जाफना में मेरी योगी से मुलाकात हुई तो उसके मन में मेरे लिए बेहद कड़वाहट नजर आ रही थी. अपनी पहली प्रतिक्रिया में मेरी ओर थूकते हुए उसने कहा ‘येलो जर्नलिस्ट’. इस समय एंटन और एडेल एक डरावनी सी चुप्पी साधे हुए थे. राजीव गांधी हत्याकांड की वजह से दुनिया भर में लिट्टे के खिलाफ मत बनने से उसकी छवि आतंकी संगठन की बनने लगी थी.

प्रभाकरन ने राजीव हत्या कांड में अपना हाथ होने से इनकार किया और साथ में ये सिद्ध करने की कोशिश भी की कि धनु (राजीव गांधी की हत्या की मुख्य आरोपी) का लिट्टे से कोई संबंध नहीं था. ये साबित करने के लिए मेरी धनु के ‘अभिभावकों’, पड़ोसियों और ‘दोस्तों’ से मुलाकातें करवाई गईं. इस दौरान एक बार जाफना में लिट्टे के घासफूस से बने छप्पर वाले मुख्यालय में लिट्टे सदस्यों के साथ मेरी एक बैठक हो रही थी. गर्म वड़ा खाते हुए मैं बार-बार उनके इस दावे पर शंका प्रकट कर रहा था. अचानक बालसिंघम और योगी ने  बैठक खत्म होने की घोषणा कर दी. इसके बाद उन्होंने जो कहा उससे मैं चौंक गया. उनके शब्द थे, ‘आपने अभी जो वड़ा खाया है उसके पैसे चुका दें.’ अगली सुबह मेरी साइकिल गायब हो चुकी थी जो प्रायद्वीप की यात्रा के लिए मेरा एकमात्र साधन थी.

इस समय तक लिट्टे का जनसंपर्क तंत्र कमजोर होने लगा था. संगठन में भीतर ही भीतर उथल-पुथल चल रही थी जिससे दुनिया अनजान थी. मगर ऐसा लंबे वक्त तक नहीं रहा और एक साल बाद प्रभाकरन ने महाथया के पर कतर डाले जबकि शांतिसेना के खिलाफ लड़ाई के दौरान उसे संगठन में दूसरे नंबर के नेता का दर्जा दिया गया था. महाथया पर गद्दार और भारतीय लोगों के साथ मिलकर अपने खिलाफ षड्यंत्र रचने का आरोप लगाते हुए प्रभाकरन ने उसे हिरासत में ले लिया. महाथया के लड़ाकों में से ज्यादातर को मार कर प्रभाकरन ने भविष्य में अपने नेतृत्व को चुनौती देनेवाली ताकत को हमेशा के लिए खत्म कर दिया था. लंबे समय तक हिरासत में रखने और लगातार शारीरिक यातना देने के बाद दिसंबर 1994 में महाथया की हत्या कर दी गई.

बाद में लिट्टे के एक और बड़े नेता योगी की वफादारी भी शक के घेरे में आई. योगी का हश्र भी कुछ-कुछ महाथया जैसा हुआ. उसे कई सालों तक गुमनामी के अंधेरे में रहना पड़ा. सालों बाद 2006 में वो लिट्टे के इतिहास से संबंध रखने वाली इकाई ब्लैक टाइगर्स डे के मुखिया के तौर पर दोबारा प्रकट हुआ. इसी समय एक आयोजन में उसने कहा था, ‘क्या बम, धमाका करने और लोगों को मारने के लिए नहीं बनाए जाते? तो लोग इंसानों के बम बनने पर इतना शोर क्यों मचा रहे हैं?’

हालांकि योगी को धीरे-धीरे अपने पहले की स्थिति में लाने की कोशिश की गई, उसे वान्नी में लिट्टे-सेना का सलाहकार बना दिया गया. लिट्टे के इन दो खास लोगों के विपरीत एंटन और एडेल का कद संगठन में लगातार बढ़ता रहा. एंटन बालसिंघम-जिससे प्रभाकरन को कोई खतरा नहीं था, पश्चिमी दुनिया में लिट्टे का चेहरा और मुख्य वार्ताकार बन गया.

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ईलम के स्वप्न का उत्थान और पतन-2