गठबंधन शाश्वत हैं

हर चुनाव नतीजा अंधों का हाथी होता है. और हर अंधा उसके विशाल शरीर का एक अंग पकड़ कर बताता है कि हाथी कैसा है. जैसा कि कहानी में होता है कोई अंधा बता नहीं पाता कि समूचा हाथी वास्तव में है कैसा. चुनाव नतीजे का मतलब बताने वाले पंडित भी दरअसल हाथी के अंधे हैं. वे कोशिश कर के और सब मिल कर समूचे हाथी को जब तक बता पाते हैं तब तक दूसरा चुनाव और दूसरा नतीजा आ जाता है. इसलिए हर नतीजा अंधों के हाथी की तरह अधूरा ही व्याख्यायित हो पाता है और वैसा ही होने के लिए अभिशप्त है.

आप किसी भी कसौटी पर घिसें यह चुनाव कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के पुनरोदय और क्षेत्रीय पार्टियों के पराभव का चुनाव था

यही हाल जनादेश का अर्थ समझने और समझाने का है. लोग महीनों लगे रहते हैं जनादेश का अर्थ बताने में. तब तक सरकार और उसके मंत्री सत्ता की अपनी जरूरतों के मुताबिक और अपने दबावों के अनुसार जो करना होता है करते चले जाते हैं. लोग भूल ही जाते हैं कि जनादेश जब मिला था तब उसका क्या अर्थ बताया गया था. जनादेश पाने या उसके पाने का दावा करने वालों ने भी सत्ता संभालते समय उसका जो अर्थ समझकर उसके मुताबिक अजंडा बनाया था वह देखते ही देखते गायब हो जाता हे. होता वही है जो परिस्थितियां उनसे करवाती हैं या जो वे किसी को बताए बिना करना चाहते हैं. कार्यकाल समाप्त होने पर झूठी रिपोर्ट दी जाती है. आप पाएंगे कि स्पष्ट से स्पष्ट जनादेश भी अच्छी से अच्छी यानी माकूल परिस्थितियों में भी आठ-दस प्रतिशत से ज्यादा अमल में नहीं लाया जाता.

इसलिए जैसा कि यक्ष के पूछने पर युधिष्ठिर ने बताया था कि सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि हर लोकतंत्र के चुनाव में नतीजे का मतलब समझाया जाता है और जनादेश का अर्थ बताया जाता है. यह कैसी ही और कितनी ही फालतू कवायद हो पर हर लोकतंत्र में लगातार चलती रहती है. वैसे करने वाले मानते हैं कि इस उट्ठक-बैठक से लोकतंत्र का हाजमा ठीक रहता हैं. इस बार अभी तक चुनाव के एक निष्कर्ष पर लगभग सभी सहमत हैं कि वोट देने वाले छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों की बंदरबांट से तंग आ गए थे और वे सत्ता किसी राष्ट्रीय पार्टी को सौंपना चाहते थे. उनके सामने कांग्रेस और भाजपा थे जिनमें से लोगों ने कांग्रेस को ज्यादा समर्थन दिया.

किसी सर्वे, एग्जिट पोल बल्कि खुद कांग्रेस ने भी कहा नहीं था कि उसे 206 सीटें मिल जाएंगी. यूपीए की बाकी की आठ पार्टियों को कुल 55 सीटें मिलीं. इसी तरह भाजपा को 116 तो उसकी एनडीए की सहयोगी पार्टियों को सिर्फ 43 सीटें मिलीं. मुलायम, लालू और पासवान ने अपनी अलग ताकत दिखाने और केंद्र को अपने इशारों पर चलाने के लिए अपना चौथा मोर्चा बना लिया था. इसमें पासवान तो साफ हो गए और लालू को सिर्फ चार सीटें मिलीं. मुलायम कांग्रेस और भाजपा के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी ले कर आए लेकिन उनकी भी समाजवादी पार्टी को कुल 23 सीटें मिलीं. तीसरे मोर्चे की बात तो और भी बेमानी हो गई क्योंकि उसमें तो छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियां ही आई थीं जिनमें वाम मोर्चे को 24 और मायावती की बसपा को 21 सीटें मिलीं. यानी किसी पार्टी को तीस से भी ज्यादा सीटें नहीं मिलीं. कांग्रेस और भाजपा की 322 के बाद बची 229 सीटें 35 पार्टियों और 9 निर्दलीय उम्मीवारों को मिलीं.

जब राजीव गांधी की कांग्रेस को 415 सीटें मिली थीं तब भी उनकी पार्टी गठबंधन ही थी. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की कांग्रेस भी कई दलों और गुटों और हितों का गठबंधन थी

फिर भी आप कहें कि यह क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों का खात्मा और राष्ट्रीय पार्टियों का पुनरोदय है तो आंकड़ेबाज कहते हैं कि गलत. वे कांग्रेस और भाजपा के वोट प्रतिशत को मिला कर बताते हैं कि 2004 के चुनाव में इन दो पार्टियों को जितने वोट मिले थे लगभग उतने ही इस बार मिले हैं. पिछली बार 48.7 प्रतिशत थे इस बार 48.9 प्रतिशत. अब मजा अपनी चुनाव पद्धति का यह है कि 0.02 प्रतिशत ज्यादा वोट मिलने से 39 सीटें इन दोनों पार्टियों को मिल गईं. अपने चुनाव में वोट प्रतिशत सीटों की गिनती को बहुत प्रभावित नहीं करता. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट बसपा को मिले. पर सीट मिलने के मामले में वह तीसरे नंबर पर रह गई. वोट प्रतिशत सीटों की गिनती और उनके राजनैतिक असर पर ज्यादा हावी नहीं होता. इसलिए वोट प्रतिशत पार्टियों के उभरने और गिरने का सही पैमाना नहीं हो सकता.

अगर और कोई पार्टी 25 सीटें भी नहीं ले पाई तो 116 सीटें पाने वाली भाजपा और 206 सीटें जीतने वाली कांग्रेस उनसे निश्चित ही कई गुना बड़ी हैं. फिर कांग्रेस और भाजपा की सीटें निकाल दो तो सभी पार्टियां और निर्दलीय भी मिल कर 272 का आंकड़ा नहीं छूते और इसलिए सरकार नहीं बना सकते. कांग्रेस और भाजपा की सीटों से मजे का बहुमत बनता है और वे सरकार चला सकती है. यानी आप किसी भी कसौटी पर घिसें यह चुनाव कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के पुनरोदय और क्षेत्रीय पार्टियों के पराभव का चुनाव था. सही है कि भाजपा ने पिछले चुनाव की तुलना में 22 सीटें गंवाई हैं और कांग्रेस ने 61 सीटें ज्यादा पाई हैं. मगर कांग्रेस की बढ़त सिर्फ भाजपा के कारण तो हुई नहीं है. क्षेत्रीय पार्टियों से भी तो उसने 39 सीटें छीनी हैं. इसलिए कहना तो यही ठीक होगा कि पुनरोदय कांग्रेस का हुआ है. लेकिन तीसरी पार्टी – समाजवादी से भाजपा की 93 सीटें ज्यादा हैं. यह आंकड़ा भी क्षेत्रीय पार्टियों की तुलना में राष्ट्रीय पार्टी के उदय का उदाहरण देता है.

फिर भी भाई लोग बिहार में जनता दल (एकी) ओडीशा में बीजू जनता दल, तमिलनाडु में डीएमके और महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस की साटें दिखा कर कहते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियां खत्म नहीं हो रही हैं. बीजू जनता दल ने लोकसभा की 14 सीटें ही नहीं जीतीं विधानसभा में भी 147 में से 103 सीटें जीत कर उसने राज्य में भी सरकार बनाई है. बिहार में नीतिश कुमार की सरकार पहले से है फिर भी लोकसभा में उन्हें 12 सीटें और मिल गईं. डीएमके की भी तमिलनाडु में सरकार है और वह भी पहले की तुलना में दो सीटें ज्यादा पा गई है. शिवसेना ने सिर्फ एक सीट गंवाई है और राष्ट्रवादी कांग्रेस को महाराष्ट्र में फिर 9 सीटें मिल गईं. अगर ये क्षेत्रीय पार्टियां जमी हुई हैं तो इस चुनाव को क्षेत्रीय पार्टियों का पराभव कैसे माना जा सकता है?

इसलिए माना जाना चाहिए क्योंकि इन में एक भी पार्टी अपनी सहयोगी राष्ट्रीय पार्टी की केंद्र में सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका नहीं खेल सकती. जद (एकी) एनडीए की सरकार नहीं बनवा सकती. बीजू जनता दल तीसरे मोर्चे को खड़ा नहीं कर सकता. और राष्ट्रवादी कांग्रेस केंद्र की यूपीए सरकार में बहुत छोटी सी हैसियत में है. उसके आने-जाने से काग्रेस की सरकार बनती-बिगड़ती नहीं. क्षेत्रीय पार्टियों की सरकार बनाने की क्षमता ऐसी घटी है कि सपा, राजद आदि बिना मांगे ही मनमोहन सरकार को समर्थन दे रही हैं. वे बाहर और विपक्ष में रह कर बेकार नहीं होना चाहतीं. प्रासंगिक बने रहने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों को जब ऐसे काम करने पड़ें तो मान लेना चाहिए कि वे केंद्र में निर्णायक नहीं रह गई हैं. भारत जितनी विविधताओं और स्थानीयताओं का देश है उसमें क्षेत्रीय पार्टियां तो रहेंगी ही. स्थानीय अभिव्यक्ति और लोकतंत्र की मजबूती के लिए वे अनिवार्य भी हैं. लेकिन वे केंद्र में मिल कर उसे मजबूत तो करती हैं उसे बना या बिगाड़ नहीं सकतीं. यही भारतीय परिस्थिति में उनके होने का औचित्य है. हुआ यह था कि बीस साल से जो गठबंधन राजनीति दिल्ली में चल रही थी उसमें एक ही पार्टी सरकार गिरा सकती थी. विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार भाजपा ने गिराई, चंद्रशेखर की कांग्रेस ने बनवाई और गिराई.

नरसिंह राव की अल्पमत सरकार झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद खरीद कर चलाई गई. देवेगोडा और गुजराल की सरकारें भी कांग्रेस ने बनाईं गिराईं. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिरी और जयललिता ने अपनी ताकत बताई. फिर चंद्रबाबू की टीडीपी को लगातार रिश्वत दे कर अटल जी की दूसरी सरकार प्रमोद महाजन ने चलवाई. वाम मोर्चे ने मनमोहन की सरकार से ताताथैया करवाया और अमेरिका से अणु करार के मामले में गच्चा दिया तो समाजवादी पार्टी और बहुमत की खरीदी ने उसे बचाया. बीस साल से गठबंधन की यह अस्थिरता करने वाली राजनीति, मोल भाव से चल रही थी. इस बार के चुनाव में इसका अंत हुआ. कांग्रेस अपने बहुमत से अब भी 66 कम है और यूपीए की पार्टियों को उसने साथ लिया ही है. फिर भी व्यावहारिक अर्थ में यह एक पार्टी का राज है.

गठबंधन की राजनीति गई लेकिन गठबंधन तो भारत में अनिवार्य है. जब राजीव गांधी की कांग्रेस को 415 सीटें मिली थीं तब भी उनकी पार्टी गठबंधन ही थी. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की कांग्रेस भी कई दलों और गुटों और हितों का गठबंधन थी. भाजपा ऐसा गठबंधन नहीं बन पाती इसलिए सत्ता में नहीं आती. वाम पार्टियां तो गठबंधन हो ही नहीं सकतीं. एक ढीला-ढाला सर्वग्राही गठबंधन ही भारत की सहज स्वाभाविक सत्तारूढ़ पार्टी हो सकती है.

यह मुझ अंधे का हाथी है. मायावती का बहुजन समाज नहीं.