समय का चक्र भी अजीब ही होता है. 1999 में जब जयललिता ने वाजपेयी की सरकार गिराई थी तब सोनिया गांधी ने सरकार बनाने का दावा किया था. उस समय मुलायम ने सोनिया का साथ नहीं दिया और सरकार बनते-बनते रह गई. जुलाई 2008 में जब परमाणु समझौते पर वाम दलों ने समर्थन वापस लिया तब कांग्रेसनीत सरकार के तारणहार बने वही मुलायम सिंह, जो उससे पहले तक परमाणु करार के धुर विरोधी भी थे. आज सपा समर्थन देने के लिए मरी जा रही है किंतु कांग्रेस है कि हां भर के नहीं दे रही.
राहुल के कद का कोई व्यक्ति मलाई छोड़ कर धूल-धूप में भटकने जैसे महत्वपूर्ण सांकेतिक कदम उठाता है तो इससे कार्यकर्ताओं का उत्साहित होना लाजमी है
2004 के चुनाव में बिहार में राजद और लोजपा ने कांग्रेस को महज चार सीटें दी थीं और इस बार लालू उसे तीन सीटों से ज्यादा देने को तैयार नहीं थे. मामला जब थोड़ा खिंचा तो लालू और पासवान ने कांग्रेस को छोड़ कर आपस में तालमेल कर लिया. लालू ने मखौल उड़ा कर ये भी जताया कि संगठन खड़ा करने के नाम पर उनकी शर्तें न मान कर कांग्रेस ने अपने पैरों पर तबियत से कुल्हाड़ी मारी है. आज लालू कांग्रेसी नेताओं के बयानों से आहत होकर अपने सम्मान की रक्षा की याचना करते नजर आ रहे हैं.
और तो और मुंबई शेयर बाजार का जो सूचकांक 2004 में चुनावी नतीजे आते ही 500 अंक लुढ़क गया था वो भी इस बार आर्थिक महामंदी के बावजूद दुनिया के सभी बाजारों का अब तक का रिकॉर्ड तोड़ गया.
मगर वक्त के इस कदर बदलने की वजह क्या है? कांग्रेस के वे सयाने जो कुछ भी पूछे जाने पर समीक्षा और सामूहिक निर्णय जैसे जुमले उछालने में सिद्धहस्त हैं, इस बार बिना हिचके इसे राहुल गांधी का करिश्मा मान रहे हैं. उनके मुताबिक, कनिष्ठ गांधी का उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने का साहसी निर्णय बड़ा काम कर गया. मगर यदि ये इतना ही साहसी था तो बीच चुनाव राहुल को वामदलों और नीतिश कुमार की पैरवी करने और चुनाव बाद सोनिया को अपने पुराने सहयोगियों को खुश करने के लिए टेलिफोन खटकाने की कौन सी आवश्यकता आन पड़ी थी?
अगर उत्तर प्रदेश की ही बात की जाए तो वहां कांग्रेस के उत्थान में उसकी खुद की कोशिशों के योगदान के अलावा कल्याण और मुलायम की भाईबंदी, सपा और भाजपा में घाल-मेल का भ्रम, वरुण गांधी का सांप्रदायिक दुराग्रह, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के अगले उम्मीदवार के रूप में मोदी का नाम उछाला जाना और बसपा का अपने नये और पुराने मतदाताओं को हद दर्जे तक निराश करना भी शामिल है.
इसमें शक नहीं कि संगठन किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी धरोहर होता है. ये न केवल जनता की भावनाओं को नेतृत्व तक पहुंचाता है बल्कि उसकी नीतियों और योजनाओं को लेकर जनता में अनुकूल माहौल बनाने का काम भी करता है. अगर नेहरू के समय से ही मृतप्राय रहे कांग्रेस संगठन को मजबूत बनाने की राहुल गांधी ने ठानी है तो ये देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए शुभ संकेत है. यदि राहुल के कद का कोई व्यक्ति मलाई छोड़ कर धूल-धूप में भटकने जैसे महत्वपूर्ण सांकेतिक कदम उठाता है तो इससे कार्यकर्ताओं का उत्साहित होना लाजमी है. मगर ये उत्साह इतना ज्यादा और इसका परिणाम इतनी जल्दी इतना बड़ा हो सकता है, ये सोचना तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता.
संजय दुबे