जनादेश या धनादेश?

हरे-भरे पेड़ों और नेताओं के भव्य बंगलों की कतार वाली फीरोजशाह रोड को देखकर कोई नहीं कह सकता कि यहां किसी तरह की निगरानी की जरूरत है. मगर पिछले दिनों खुफिया अधिकारी यहां स्थित एक इमारत की तीसरी मंजिल पर बने एक फ्लैट पर निगाह रखे हुए थे. 34, फीरोजशाह रोड पर स्थित इस फ्लैट के बारे में विश्वसनीय सूचना मिली थी कि इसमें रहने वाले हवाला के जरिए दक्षिण-पूर्व एशिया की किसी जगह से 380 करोड़ रुपये की रकम जुटा रहे हैं. अधिकारियों के मुताबिक ये पैसा आम चुनाव में खर्च करने के लिए आ रहा था और खुफिया सूत्रों की मानें तो इसमें शामिल लोगों में कोलकाता का एक कारोबारी और अवैध शराब के धंधे में सक्रिय उसका एक सहयोगी शामिल था.

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस)द्वारा देश भर में किए गए सर्वे के दौरान 20 फीसदी मतदाताओं ने कहा कि बीते दशक में नेता या पार्टियां उन्हें वोट के बदले नोट की पेशकश करती रही हैं

पर्व का दूसरा नाम होता है खर्च. और फिर ये तो लोकतंत्र का महापर्व है इसलिए आमचुनाव के इस महासमर में उतरा हर योद्धा अपनी पूरी ताकत झोंक देना चाहता है. इस ताकत का ज्यादातर हिस्सा काले धन से मिलकर बनता है. दरअसल चुनाव जीतने की कवायद में किया जा रहा खर्च समुद्र में तैरते किसी विशाल हिमखंड की तरह है जिसका वह दसवां हिस्सा ही नजर आता है जो पानी से ऊपर होता है.

चाहे वह उम्मीदवार हो या पार्टी, ऊपरी तौर पर तो हर कोई यही दिखा रहा है कि वह चुनावी खर्च के लिए चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित 25 लाख रुपए प्रति उम्मीदवार की सीमा के भीतर ही बंधा हुआ है मगर देखा जाए तो हकीकत इसके बिल्कुल उलट है. उधर, आयोग भी जानता है कि अवैध तरीके से खर्च किए जा रहे पैसे के मामले में उसके हाथ बंधे हुए हैं. मसलन जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 कहती है कि शुभचिंतकों की तरफ से किसी उम्मीदवार पर खर्च की जाने वाली रकम उसके चुनाव खर्च में शामिल नहीं की जाएगी. यही वह वजह है जिसके चलते उम्मीदवार खर्च की तय सीमा के परे जाकर बिना चिंता किए पैसा पानी की तरह बहा सकता है. शायद इसीलिए चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने पिछले दिनों एक टीवी चैनल से बातचीत में कहा कि चुनाव के दौरान अनाधिकारिक तरीके से खर्च किए जा रहे पैसे का वे कुछ नहीं कर सकते. उनके ऐसा कहने के कुछ ही दिन बाद खबर आई कि बिहार के बेतिया से लोक जनशक्ति पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे फिल्मकार प्रकाश झा के दफ्तर की दराजों से 10 लाख रुपये बरामद हुए. बेतिया के एसपी के एस अनुपम पत्रकारों को बता रहे थे, ‘ये पैसा वोटरों में बांटने के लिए था.’ अब देखना है कि ये आरोप साबित हो पाता है कि नहीं. सबूत तो कोई है नहीं और चुनाव में पैसा कितनी अहमियत रखता है ये सबको पता है. पूर्व वित्त सचिव एस नारायण तहलका से कहते हैं, ‘मैं आजकल चेन्नई में हूं और मोटा-मोटा अनुमान भी लगाया जाए तो मेरे हिसाब से अकेले मदुरै के तीन निर्वाचन क्षेत्रों में ही 700 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं. चुनावों के दौरान दक्षिण भारत में हमेशा उत्तर भारत से ज्यादा पैसा खर्च किया जाता है.’ कई और जानकार भी ये बात कहते हैं जिनके मुताबिक जहां जितनी ज्यादा समृद्धि होगी वहां उतना ज्यादा खर्च भी होगा.

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस)द्वारा देश भर में किए गए सर्वे के दौरान 20 फीसदी मतदाताओं ने कहा कि बीते दशक में नेता या पार्टियां उन्हें वोट के बदले नोट की पेशकश करती रही हैं. कर्नाटक, त्रिपुरा, प. बंगाल, केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जसे राज्यों में तो करीब 50 फीसदी मतदाताओं ने ऐसा कहा था. यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी करीब एक चौथाई मतदाताओं ने ये माना कि उन्होंने कभी न कभी अपना वोट देने के लिए पैसा लिया है.

जानकारी रखने वाले सूत्र तहलका को बताते हैं कि वोटों को ‘खरीदने’ के लिए पार्टियों ने कुल मिलाकर करीब 10 से 15 हजार करोड़ रुपए का इंतजाम किया है

सीएमएस का अनुमान है कि चुनाव बजट का एक चौथाई हिस्सा इस तरह की अवैध गतिविधियों में खर्च होता है.  इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के एक पूर्व प्रोफेसर जगदीप छोक्कर कहते हैं, ‘भारत में राजनीतिक पार्टियों का मुख्य मकसद होता है किसी भी कीमत पर जीतना.’

चर्चित पुस्तक डर्टी मनी एंड हाउ टु रिन्यू फ्री मार्केट के लेखक रेमंड बेकर लिखते हैं कि 1970 से लेकर आज तक गरीब देशों से कम से कम 10 खरब डॉलर की राशि पश्चिमी देशों की बैंकिंग व्यवस्था में पहुंच चुकी है. पैसे की अवैध आवाजाही पर निगाह रखने वाले अमेरिका स्थित संगठन ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी ने उन 160 विकासशील देशों की कतार में भारत को पांचवें स्थान पर रखा है जहां से भारी मात्रा में अवैध तरीके से पूंजी बाहर चली जाती है. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 2002 से 2006 के दौरान भारत से हर साल 22 से 27 अरब डॉलर की पूंजी बाहर गई. लेकिन चुनाव के समय इस पैसे का एक हिस्सा वापस भारत आ जाता है. कहने की जरूरत नहीं कि जैसे ये जाता है उसी तरह इसके वापस आने की प्रक्रिया भी अवैध ही होती है और इसे मुख्य तौर पर हवाला के जरिए अंजाम दिया जाता है. पैसे के स्थानांतरण की इस प्रक्रिया की एक खास बात ये भी है कि ये इस तरह की सरकारी प्रक्रियाओं से कहीं बेहतर तरीके से संचालित होती है.

जानकारी रखने वाले सूत्र तहलका को बताते हैं कि वोटों को ‘खरीदने’ के लिए पार्टियों ने कुल मिलाकर करीब 10 से 15 हजार करोड़ रुपए का इंतजाम किया है. इसके अलावा दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में ज्यादा से ज्यादा वोट अपने पक्ष में करने के लिए नेता हवाई यात्राओं के जरिए करोड़ों रुपये खर्च कर देश के करीब तीस लाख वर्ग किलोमीटर इलाके की खाक छान रहे हैं. हर चुनाव में प्रचार की लागत दोगुनी हो रही है और विश्लेषकों को लगता है कि इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर मतदाता की समझ की बजाय पैसे की ताकत हावी हो रही है. ऐसा अक्सर अमेरिकी चुनावों में देखने को मिलता है. इससे भी बुरी बात ये है कि अमेरिका की तरह ही ये पैसा कहां से आता है और कहां जाता है इसका हिसाब-किताब पूछने वाला कोई नहीं. ऐसे में चुनाव आयोग की चिंता स्वाभाविक ही है.

हाल ही में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को कलर टीवी बांटने और वोटर्स के लिए एक स्पेशल कैश स्कीम का एलान करने के लिए चुनाव आयोग की झिड़की खानी पड़ी. मगर रैलियों में नोट या सोने की चेन बांटना या फिर नायडू जैसे मामले तो चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के उन चंद उदाहरणों में से कुछ हैं जो पकड़ में आ जाते हैं. इस तरह के ज्यादातर काम तो आचार संहिता लागू होने से पहले ही हो जाते हैं.

नतीजतन दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में आजकल कई किस्से दौड़ लगा रहे हैं. जैसे कि फलां-फलां टीवी चैनल को पार्टी के प्रचार से संबंधित खबरें चलाने के लिए 200 करोड़ रुपए दिए गए हैं. या फिर एक बड़ी कंपनी के सीईओ माकपा के दिल्ली स्थित दफ्तर आए और उन्हें बड़ा राजनीतिक चंदा देने की पेशकश की बशर्ते कि प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाली एक बड़ी नेता किसी भी तरह इस पद पर बैठने न पाए. ये भी कहा जा रहा कि तंबाकू उत्पाद बनाने वाली एक कंपनी के मालिक, जो उत्तर प्रदेश में रहते हैं, अपनी अकूत संपत्ति के कारण एक पार्टी की राज्य इकाइयों में पैसा भेजने का जरिया बने हुए हैं. कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि मुंबई स्थित पड़ी कंपनियां अब उन राज्यों में चुनाव प्रचार पर अपना पैसा लगा रही हैं जहां उनके व्यावसायिक हित हैं.

2004 से 2008 के दौरान महज 21 दलों ने अपने चंदे का ब्यौरा आयोग को सौंपा जबकि इस देश में 6 राष्ट्रीय और 36 क्षेत्रीय दलों सहित 1000 से भी ज्यादा पार्टियां हैंपूर्व वित्त सचिव एस नारायण कहते हैं, ‘इस बार पूरे भारत में पैसे की जितनी ताकत दिखेगी वैसी शायद पहले कभी नहीं देखी गई होगी. सिर्फ शहरी और ऊंचे पढ़े-लिखे लोगों से (अगर युवा वर्ग वोट देने को निकला तो उससे भी) चुनाव में पारदर्शी वोटिंग और सही मायने में लोकतांत्रिक चुनाव की उम्मीद की जा सकती है.

सूत्र बताते हैं कि पिछले दो महीने से लेन-देन संबंधी गतिविधियां रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गई हैं. बिचौलिये सौदों में कमीशन की पेशकश कर रहे हैं और पैसा राज्यों में सत्ता में बैठीं राजनीतिक पार्टियों की झोलियों में पहुंच रहा है. कॉरपोरेट जगत के एक भीतरी सूत्र के शब्दों में ‘आपको पेपर पर कुछ नहीं मिलेगा मगर ये सच है कि हजारों करोड़ रुपए के सरकारी टेंडरों का कुछ हिस्सा नियमित रूप से सत्तासीन पार्टी की तिजोरी में पहुंचता रहता है.’ सूत्र आगे जोड़ता है कि जैसे ही चुनाव का ऐलान होता है राज्यों में पैसा जुटाने की जुगत शुरू हो जाती है. अनौपचारिक रूप से इसे मुख्यमंत्री कोष कहा जाता है और वैसे तो ये राज्य में होने वाले खर्च के लिए होता है किंतु अगर जरूरी हुआ तो पैसे को पार्टी की केंद्रीय वित्त इकाई को भेजा जाता है. यहां से इस पैसे को उन राज्यों में इस्तेमाल के लिए भेजा जाता है जहां पार्टी सत्ता में नहीं है. जैसा कि एक सूत्र कहता है, ‘दिल्ली के अलावा कुछ और ऐसे पॉकेट्स हैं जो दूसरे क्षेत्रों का ख्याल रखते हैं. ये ऐसा है जैसे पार्टी की महाराष्ट्र इकाई, गुजरात और आंध्र प्रदेश इकाई, कर्नाटक को फंड कर रही हो.’

उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में रूरल रोड डिवेलपमेंट एजेंसी में काम कर रहे जनरल मैनेजरों का मामला ही लीजिए जिन्हें एक मंत्री के दफ्तर से फोन आया जिसमें उनसे पांच लाख रुपए की मांग की गई थी. बार-बार की जा रही कॉलों से परेशान होकर उन्होंने कुछ दिन पहले चुनाव आयोग से इसकी शिकायत कर दी. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि आयोग इस पर क्या प्रतिक्रिया देता है. वैसे जानकार बताते हैं कि इस तरह की मांगें हर राज्य में आम बात है. समाजवादी पार्टी ने तो चुनाव प्रचार के तहत बसपा सुप्रीमो मायावती की चार सीडी बनाई थीं जिनमें उन्हें राज्य के नौकरशाहों से पैसे की मांग करते दिखाया गया था. सपा ने ये सीडी चुनाव आयोग को भी सौंपीं मगर आयोग ने उन्हें खारिज कर दिया. मगर सीडी में जो कुछ भी था शायद ही कोई उसकी सच्चाई से इत्तेफाक न रखता हो क्योंकि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के बारे में इस तरह की बातें सुर्खियां बनती ही रहती हैं.

उगाही की गाज अकेले सरकारी कंपनियों पर नहीं गिरती. देश के कॉरपोरेट जगत के कई मुखिया भी कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियों की तरफ से पैसे का दबाव बहुत ज्यादा रहता है. कॉरपोरेट्स चाहते हैं कि इस व्यवस्था में फौरन बदलाव कर इसे बेहतर बनाया जाए ताकि राजनीतिक फंडिंग की प्रक्रिया में पारदर्शिता आ सके. सीआईआई की हालिया सालाना बैठक में भी ये मसला उछला था जहां टाटा कम्युकेशंस के चेयरमैन सुबोध भार्गव और बजाज ऑटो के मुखिया राहुल बजाज ने चुनाव में बह रही काले धन की नदी पर चिंता व्यक्त की थी. बजाज का कहना था, ‘स्वच्छ धन से फर्क पड़ता है. आज तो 60 फीसदी कंपनियां राजनीतिक पार्टियों को काले धन की मार्फत फंडिंग कर रही हैं.’

बिरला और टाटा जैसे व्यापारिक समूहों ने चुनाव के लिए अलग से एक इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाया हुआ है जिसके जरिए वे राजनीतिक दलों को चंदा देते हैं. टाटा इलेक्टोरल ट्रस्ट किसी उम्मीदवार को नहीं बल्कि पंजीकृत पार्टियों को चंदा देता है

जन प्रतिनिधित्व कानून(1951) में 2003 में एक संशोधन कर एक नियम बनाया गया था कि राजनीतिक दल हर वित्तीय वर्ष के दौरान मिलने वाले चंदे और उसके स्रोत की जानकारी चुनाव आयोग को देंगे.  ये नियम बीस हजार रुपये से अधिक की रकम के लिए लागू होता है. मगर 2004 से 2008 के दौरान महज 21 दलों ने अपने चंदे का ब्यौरा आयोग को सौंपा जबकि इस देश में 6 राष्ट्रीय और 36 क्षेत्रीय दलों सहित 1000 से भी ज्यादा पार्टियां हैं. सूचना के अधिकार को अपनी अहम उपलब्धियों में से एक बताने वाले राष्ट्रीय जनता दल, लोकजनशक्ति पार्टी और डीएमके जैसे यूपीए के घटक दल अपने चंदे का ब्यौरा देने की जरूरत नहीं समझते. विडंबना देखिए कि जिन्होंने ये जानकारी दी भी है उनके चंदे और खर्च को देखकर आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया वाली कहावत याद आती है. मसलन समाजवादी पार्टी को 2007-08 के दौरान सिर्फ 11 लाख रुपये का चंदा मिला.

जानकारों के मुताबिक कॉरपोरेट कंपनियां राजनीतिक दलों को फंडिंग के रूप में जो चंदा देती हैं उसका 60 फीसदी काला धन होता है. औसतन देखा जाए तो एक उम्मीदवार अपने चुनावी क्षेत्र में तीन से 15 करोड़ रुपए तक खर्च करता है.  फिक्की के महासचिव अमित मित्रा कहते हैं कि समस्या नेता या उद्योगपति नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘चुनावों में चंदा तो देना ही होगा मगर ये तय होना चाहिए कि एक व्यक्ति अधिकतम कितना पैसा दे सकता है. भारत या तो अमेरिका के रास्ते पर चल सकता है जहां कंपनियां चुनाव में जमकर चंदा देती हैं या फिर यूरोप के जहां चुनाव का सारा खर्च सरकार उठाती है.’

बिरला और टाटा जैसे व्यापारिक समूहों ने चुनाव के लिए अलग से एक इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाया हुआ है जिसके जरिए वे राजनीतिक दलों को चंदा देते हैं. टाटा इलेक्टोरल ट्रस्ट किसी उम्मीदवार को नहीं बल्कि पंजीकृत पार्टियों को चंदा देता है जिसका आधार लोकसभा में उन पार्टियों के सदस्यों की संख्या होती है. स्विस बैंकों में जमा भारतीय रकम का मुद्दा उठा रहे भाकपा के उप महासचिव सुधाकर रेड्डी फंडिंग के लिए साफ तौर पर कायदे-कानून बनाए जाने की जरूरत बताते हैं. वे कहते हैं, ‘साफ है कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वाली कंपनियां सोचती हैं कि पार्टी के सत्ता में आने पर उन्हें इसका फायदा मिलेगा.’

निवेश पर फायदे की यही सोच चुनाव के दौरान कॉरपोरेट फंडिंग को प्रोत्साहन देती है. चुनाव दर चुनाव प्रचार का खर्च बढ़ता जा रहा है और पार्टियों के लिए भी ज्यादा से ज्यादा चंदा जुटाना जरूरी हो गया है. चुनाव प्रचार में किए जा रहे खर्च की निगरानी के लिए कई गैर सरकारी संगठनों से मिलकर बनी एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स से जुड़े अनिल बेरवाल कहते हैं, ‘राजनीति वास्तव में पैसे का बड़ा खेल है. जो लोग जमकर खर्च कर रहे हैं उनके लिए ये सिर्फ निवेश है जिसके एवज में वे दस गुना फायदे की उम्मीद करते हैं.’ बेरवाल के मुताबिक अतीत में उम्मीदवार और पार्टियां सामूहिक विवाह जैसे आयोजन करती थीं और वहां पर वोट के बदले नोट बांटा करती थीं मगर राजनीतिक परिदृश्य में चलन लगातार बदल रहा है. वे कहते हैं, ‘एक दशक पहले एक वोट की कीमत जहां 100 रुपए होती थी वहीं आज ये 1500 से 2000 रुपये तक पहुंच गई है.’

ऐसा नहीं कि चुनाव आयोग को पैसे के इस अंधाधुंध इस्तेमाल की जानकारी नहीं. हाल ही में रिटायर हुए मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी के शब्दों में ‘हमारा जोर चुनाव के दौरान पैसे की ताकत पर अंकुश रखने पर होगा.’ गोपालस्वामी का ये भी कहना था कि चुनाव से जुड़े खर्च पर खास तौर से निगाह रखने के लिए चुनाव आयोग ने 2000 पर्यवेक्षक तैनात किए हैं जिनमें से कई सीनियर टैक्स रेवेन्यू अधिकारी हैं.

मगर उम्मीदवारों की संख्या और उनके द्वारा खर्च किए जा रही रकम के आंकड़ों को देखते हुए ये काफी दुरुह काम नजर आता है. अनुमानों के मुताबिक कांग्रेस पार्टी आधिकारिक रूप से इस चुनाव में 1500 करोड़ रुपए खर्च करने जा रही है. भाजपा का बजट 1000 करोड़ रुपए का है जिसमें से 200 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च करने के लिए रखे गए हैं. बसपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का बजट 700 करोड़ और डीएमके का 400 करोड़ रुपए का है जिसका श्रेय केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा की हालिया चंदा कवायदों को भी जाता है. एआईएडीएमके का बजट करीब 300 करोड़ रुपए का है जबकि माकपा और उसके सहयोगियों के लिए ये आंकड़ा 250 करोड़ रुपए है.

वैसे हर खर्च अवैध नहीं होता. कई खर्चे वैध तरीके से भी होते हैं हालांकि तब भी सवाल फिजूलखर्ची पर तो उठाया ही जा सकता है. मिसाल के तौर पर हैलीकॉप्टर और प्राइवेट जेट्स के इस्तेमाल पर होने वाला खर्च जो  2004 में हुए चुनावों की तुलना में इस बार दोगुना हो गया है. वर्तमान में राजनीतिक पार्टियों ने 45 से 50 हैलीकॉप्टर और 22 छोटे हवाई जहाज किराए पर ले रखे हैं. एयर चार्टर्स इंडिया के मुखिया आर पुरी कहते हैं, ‘मांग बहुत ज्यादा है और राजनीतिक दल पैसे के मामले में कोई संकोच नहीं करते.’ उनकी कंपनी ने अपने सभी हैलीकॉप्टर्स और जेट्स किराए पर दे दिए हैं और ये किराया पचहत्तर हजार से डेढ़ लाख रुपए प्रति घंटा तक है. भारत की सबसे पुरानी एयर चार्टर फर्म हाई फ्लाइंग एविएशन की आर्डर बुक भी पूरी तरह भर चुकी है. सरकारी स्वामित्व वाले पवनहंस के पास विशाल बेड़ा तो है मगर उसे अपने विमान राजनीतिक पार्टियों को देने की इजाजत नहीं है. हालांकि राजनीतिक दल उन हैलीकॉप्टर्स को किराए पर ले सकते हैं जिन्हें कॉरपोरेशंस को लीज पर दिया गया हो. इसके अलावा अपना निजी हैलीकॉप्टर रखने वाले कई धनकुबेर भी हैं जो अपने करीबी नेताओं को बिना शुल्क इनकी सेवाएं देने के लिए तैयार रहते हैं. हालांकि ये बात अलग है कि इसका शुल्क वे बाद में वसूलने की अपेक्षा रखते हैं. साथ ही राज्य सरकारों के अधीन 17 हेलीकॉप्टर्स भी हैं जिन्हें चुनाव आयोग के नियमों के मुताबिक चुनाव प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.

ऊंची उड़ान भरने के लिए पैसा चाहिए और लगता है कि भारत के नेताओं को ये आसानी से और इफरात में मिल रहा है.

(विकास बहुगुणा के योगदान के साथ)