बचपन से देखा था, ढेरों खाने थे खानों के बाद खाने, बड़े-छोटे, पतले-मोटे अनगिनत और इन्हीं खानों से तय होते थे रिश्ते इन्हीं के आकार के नापे काटे जाते थे संबंध इससे जिम्मेदारी का सरोकार है ‘‘तो फिर यह बेटा हुआ’’ यह जन्म का जिम्मेदार है ‘‘जाहिर है पिता है’’ इसे देखकर बदन चीखता है ‘‘शौहर है और भला कौन’’ इसे देखकर मन भीगता है ‘‘चलो महबूब सही’’ शौहर के खाने में महबूब के नाप की इच्छाएं ‘‘दीवानी हो क्या?’’ भाई में दोस्त का चेहरा ‘‘हटाओ इसे’’ पाला करो सिर्फ उतने ही जज्बात जो इन खानों में आयें और जो उगे बढ़े जरा भी कुछ ज्यादा तो क़तर दो, ये बग़ावत है और बगावतें भले घरों की लड़कियां नही करती सोचती हूं खानों के इस गणित में कहां जाते होंगे वोरिश्ते जिनकी शकल ही पहचान में नहीं आती जो या तो बिना आकार के अमीबा की तरह मन में पलते हैं या गर्म पारे की तरह लहू मांस में घुलते है कब से लिए बैठी हूं तेरा नाम हाथों में कोई खाना मिले तो रखूं. भावना पांडे |
(लेखिका एक टीवी चैनल में कार्यरत हैं)
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