राजनीति का हम्माम और नंगे हुक्काम

तीनों राज्यों में जहां वामपंथियों की सरकारें हैं इनका कांग्रेस से सांप-छछूंदर वाला बैर है. मगर इसके बाद भी केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार अगर बनी और बन के पिछले चार सालों से चल रही है तो इसके पीछे वामदलों का इसको दिया हुआ जीवनदायी सहारा है. विचारधारा की कोई समानता नहीं, कोई स्थाई हित नहीं और साथ ही साथ होकर भी जनता को समय-समय पर दूरी का एहसास कराने की मजबूरी भी है. मगर कहा गया कि ऐसा सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बाहर रखने की वजह से किया नहीं जा रहा बल्कि करना पड़ रहा है. सारे देश को वामपंथियों का एहसानमंद होना चाहिए कि उन्होंने देश को कट्टरवादिता औऱ सांप्रदायिकता के राक्षसों का ग्रास होने से बचा लिया!

गठबंधन के पक्ष में एक तर्क ये भी था कि अगर कांग्रेस नीत गठबंधन पर वामपंथियों की लगाम रहेगी तो सरकार की नीतियां ज़्यादा जनोन्मुखी होंगीं और देश उदारवाद के नाम पर पूंजीवाद के चंगुल में फंसने से भी बचा रहेगा.

सवाल ये उठता है कि क्या पांधे का ऐसा कहना उस समाजवादी पार्टी को सांप्रदायिकता का जामा पहनाना नहीं हो गया जिसकी गलबहियों से वामदलों को कभी कोई गुरेज नहीं रहा और जिन्हें हमेशा वे धर्मनिरपेक्षता की मिसाल बताते रहे हैं?

मगर पिछले कुछ महीनों से वामपंथियों की जनहित के प्रति प्रतिबद्धता सिंगूर और नंदीग्राम जैसी जगहों की वजह से खुल कर लोगों के सामने आ रही है. चलिए हो सकता है वामपंथियों की निगाह में जनहित वही हो जो वो वहां पर कर रहे हैं या करना चाह रहे थे या चाह रहे हैं. मगर सांप्रदायिकता के नाम पर सत्ता से दूर रहते हुए भी उसके सभी लाभों का मज़ा लेने वाले वामपंथी खुद कितने धर्मनिरपेक्ष हैं पिछले कुछ दिनों में इसका भी पता चल चुका है. पहले तो तस्लीमा नसरीन के मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार का रुख जैसा था उसने राज्य सरकार की धर्मनिरपेक्षता के डंके बजाए. नंदीग्राम की घटना से बौखलाए मुसलमानों को मनाने के लिए सीपीएम ने तस्लीमा को बलि का बकरा बना दिया. अब सीपीएम पोलित ब्यूरो के सम्मानित सदस्य और इसके मज़दूर संगठन सीटू के महासचिव एम के पांधे के बयान ने रही सही कसर भी पूरी कर दी है.

पांधे ने अपने बयान में समाजवादी पार्टी को चेतावनी देते हुए कहा था कि उन्हें भारत-अमेरिकी परमाणु करार के मसले पर कांग्रेस का साथ देने से पहले अपने मुस्लिम वोट बैंक को ध्यान में रखना चाहिए. उनका कहना था कि समाजवादी पार्टी का ज़्यादातर प्रभाव मुसलमानों में है इसलिए परमाणु करार उसके लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकता है क्योंकि अधिकतर मुसलमान अमेरिका की वजह से इसके पक्ष में नहीं हैं.

सवाल ये उठता है कि क्या पांधे का ऐसा कहना उस समाजवादी पार्टी को सांप्रदायिकता का जामा पहनाना नहीं हो गया जिसकी गलबहियों से वामदलों को कभी कोई गुरेज नहीं रहा और जिन्हें हमेशा वे धर्मनिरपेक्षता की मिसाल बताते रहे हैं? क्या पांधे ये कहना चाहते थे कि भारतीय मुसलमान राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर कोई निर्णय लेते वक्त देश हित की बजाय किसी और ही बात पर ध्यान देते हैं?

देश के हित या अहित से जुड़े सवाल पर सवाल उठाना, उसके हानि-लाभ पर विचार कर उसका समर्थन या विरोध करना लोकतंत्र की एक बड़ी विशेषता ही नहीं बल्कि व्यवस्था भी है. मगर उसके पक्ष-विपक्ष में माहौल तैयार करने के लिए इस हद तक कुतर्क का सहारा लेना वामदलों के दोहरे चरित्र को ही उजागर करता है. एक देशहित से जुड़े मसले पर इसकी अच्छाई-बुराई के आधार पर समर्थन जुटाने के बजाय इसे हिंदू मुसलमान का मसला बनाना इस बात का द्योतक है कि राजनीति के हमाम में आज सभी नंगे हैं. न कोई धर्मनिरपेक्ष, न कोई सांप्रदायिक, न कोई वामपंथी न कोई दक्षिणपंथी, न कोई समाजवादी और न ही कोई पूंजीवादी…सत्ता का चरित्र अब किसी विचारधारा का गुलाम नहीं…देश की आज़ादी के साथ ही अब ये भी आज़ादखयाल बन चुका है.

संजय दुबे

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