न आवाज के मायने न वोट के

चुनाव का दौर है और हर तरह के वोटरों को लुभाने की हर मुमकिन कोशिशें हो रही हैं. मगर एक तबका ऐसा भी है जिसकी परवाह किसी राजनीतिक दल को नहीं. शायद ऐसा इसलिए क्योंकि वोटरों का ये तबका बहुत छोटा है और इस पर ध्यान देना नेताओं को समय की बर्बादी लगता है. ये हैं देश के 12 लाख किन्नर या आमभाषा में कहें तो हिजड़े जिनमें लोकतंत्र का ये महापर्व कोई उम्मीद नहीं जगाता. 1994 में वोट का अधिकार मिलने के पंद्रह साल और पांच आम चुनावों के बाद भी वे भेदभाव का व्यवहार झेलने को मजबूर हैं.

अपनी पहचान स्थापित करने की जी-तोड़ कोशिशों के तहत इस साल 20 जनवरी को किन्नर अपने शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा जैसे मुद्दे लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे 

पुरानी दिल्ली के राजेंद्र मार्केट में रहने वाली किन्नर बिजली बताती हैं, ‘चुनाव अधिकारी दुविधा में थे, वे हमारा असली नाम पूछ रहे थे.दरअसल बिजली के वोटर आईडी कार्ड के मुताबिक वे पुरुष हैं और उनका नाम महेश है. लोकसभा चुनावों में वे वोट नहीं डालेंगी क्योंकि उनके ही शब्दों में इसका कोई फायदा नहीं.

अपनी पहचान स्थापित करने की जी-तोड़ कोशिशों के तहत इस साल 20 जनवरी को किन्नर अपने शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा जैसे मुद्दे लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे. अजमेर की किन्नर सोनम सिंह ने एक याचिका दायर करके केंद्र सरकार से दलित, अल्पसंख्यक और महिला आयोग की तर्ज पर एक राष्ट्रीय किन्नर आयोग स्थापित करने की मांग की थी. लेकिन फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने सिंह की याचिका निरस्त करते हुए उन्हें गृहमंत्रालय से संपर्क करने की सलाह दी.

मंत्रालय में ये मामला अभी भी विचाराधीन है. इससे किन्नरों में बेहद निराशा का माहौल है. कठोर सामाजिक रूढ़ियों के चलते ये राजनीति की मुख्य धारा में भी शामिल नहीं हो सकते. 40 वर्षीय प्रेमा का ही उदाहरण लीजिए. उत्तर प्रदेश के हापुड़ में जन्मी और 12वीं तक पढ़ाई कर चुकी प्रेमा का नाम कभी प्रेम हुआ करता था. वे पिछले 25 सालों से दिल्ली में रह रही हैं लेकिन आज तक उसके पास स्थाई नौकरी नहीं है. प्रेमा बताती हैं,‘मेरी पहली नौकरी एक होटल में बैरे की थी. कुछ ही हफ्तों में मैनेजर को पता चल गया कि मैं किन्नर हूं और उसने मुझे नौकरी से निकाल दिया. उसने कहा कि ग्राहकों को बैरे के किन्नर होने पर एतराज है.तब से आज तक प्रेमा को कई नौकरियों से इसी वजह से निकाला जाता रहा है. उनका व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं है. वे कहती हैं, ‘मेरे वोट डालने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.

प्रेमा की तरह ही कुछ किन्नरों ने व्यवस्था का हिस्सा बनने की कोशिश की थी. वे चुनावों में खड़े भी हुए. मगर हालात जस के तस रहे. अब तक तीन किन्नर जनप्रतिनिधि बन चुके हैं जिनमें शबनम मौसी भी शामिल हैं जिन्होंने 2000 में मध्य प्रदेश की सोहागपुर विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की थी. हालांकि अगले ही चुनाव में शबनम मौसी को हार का मुंह देखना पड़ा. 7 सितंबर 2002 को मध्य प्रदेश में कटनी की मेयर बनी किन्नर कमला जान को राज्य हाईकोर्ट ने तीन साल तक पद पर रहने के बाद हटा दिया. कोर्ट ने उनके चुनाव को ही अवैध ठहरा दिया क्योंकि उन्होंने जो सीट जीती थी वह महिलाओं के लिए आरक्षित थी जबकि उन्होंने खुद को एक पुरुष के रूप में रजिस्टर्ड करवा रखा था. इसी तरह मई 2003 में गोरखपुर की महापौर किन्नर आशा देवी को भी स्थानीय कोर्ट ने इसी आधार पर पद से हटा दिया. उनका नामांकन अमरनाथ के नाम से था.

वर्तमान चुनावी घमासान में कोई भी किन्नर प्रत्याशी मैदान में नहीं है. किसी तरह के सहयोग या सलाह के अभाव में किन्नर पूरी तरह से दुविधा में फंसे हुए हैं. वे अलग-थलग नहीं पड़ना चाहते, उन्हें जबर्दस्ती पुरुष या महिला का तमगा दिए जाने से भी नफरत है. पर उन्हें उम्मीद की कोई रोशनी नजर नहीं आ रही. किन्नरों के लिए काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन से जुड़ी मालती कहती हैं, ‘मुझसे मिलने वाले बहुत से किन्नर पुरुषों द्वारा बार-बार बलात्कार का शिकार होने की बात कबूल करते हैं पर उनका नाम बताने में झिझकते हैं.कुल मिलाकर यही लगता है कि नेताओं के लिए न तो किन्नरों की आवाज का कोई महत्व है और न ही उनके वोट के कोई मायने.