कुछ बातें ऐसी होती हैं जो कई दशक बीतने के बाद भी स्मृतियों में धुंधली नहीं पड़तीं बल्कि शक्तिशाली प्रतीक बन जाती हैं. 1984 में सिख विरोधी दंगों के दौरान राजीव गांधी ने भी कुछ ऐसी ही बात कही थी -जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है.
सवाल उठता है कि जब गवाही इतनी मजबूत थी तो फिर टाइटलर को क्लीन चिट कैसे मिल गई?
पिछले दिनों धरती फिर हिली, मगर अब ये कांग्रेस के कदमों तले हिल रही थी. एक पत्रकार ने गृहमंत्री पी चिदंबरम की तरफ जूता क्या उछाला एक बार फिर से 1984 के सिख विरोधी दंगे सुर्खियों में आ गए. इस बार इस हलचल की वजह ये थी कि जूता फेंकने की ये घटना उस महत्वपूर्ण आम चुनाव के दौरान हुई जिसमें कांग्रेसनीत यूपीए अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए जी-तोड़ कोशिश कऱ रहा है.
हालांकि ये दंगे पहले भी चुनावों का मुद्दा रहे हैं. सोनिया गांधी और राहुल गांधी, दोनों ही अतीत में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर गुरुद्वारे में जाकर सिख समुदाय से माफी मांग चुके हैं. जूता प्रकरण ने एक बार फिर ये ध्यान दिलाया कि ये मुद्दा अभी भी चुनावी समीकरणों को प्रभावित करने का माद्दा रखता है.
इस घटना के सुर्खियों में आते ही कांग्रेसी नेताओं को पार्टी की पंजाब और दिल्ली की राज्य इकाइयों से घबराहट भरे फोन आने लगे. दरअसल पंजाब की सभी 13 लोकसभा सीटों में सिख वोटों की अहम भूमिका है. कांग्रेस हाईकमान उस समुदाय को नाराज करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता था जो राज्य की जनसंख्या का लगभग साठ फीसदी है. 84 के दंगों में अपनी कथित भूमिका के लिए कुख्यात जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को मैदान में उतारने से होने वाले नुकसान की उपेक्षा करना मुमकिन नहीं था. दिल्ली की लोकसभा सीटों के लिए भी जो कुल वोट पड़ने हैं उनका एक चौथाई सिख समुदाय से ही आना है.
जरनैल के जूता फेंकने से पहले हर तरफ सिर्फ जीत की जुगत भिड़ाई जा रही थी, जवाबदेही का ख्याल तक किसी को नहीं था. तब तक कांग्रेस सिख वोट बैंक को अलग तरह से देख रही थी. टाइटलर दिल्ली सदर सीट लगातार चार बार जीत चुके थे. 2004 में उन्होंने भाजपा के विजय गोयल को 16,000 वोट से हराया था और वैसे भी इस सीट पर सिख वोट कुल वोटों का महज 1.20 फीसदी ही थे जो दिल्ली में सबसे कम है. सज्जन कुमार भी जिस सीट से लड़ते हैं वहां पर सिख वोट महज दो फीसदी हैं. ऊपर से उन्होंने पिछली बार बाहरी दिल्ली की इस सीट पर हुए मुकाबले में अपने प्रतिद्वंदी और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत साहिब सिंह वर्मा को दो लाख वोटों के विशाल अंतर से हराया था. इस तरह से देखा जाए तो टाइटलर और कुमार को लेकर कांग्रेस पूरी तरह से निश्चिंत थी.
नानावती कमीशन के सामने दिए गए बयान में सिंह ने माना भी था कि टाइटलर ने 10 नवंबर 1984 को उनसे संपर्क किया था और दो कागजों पर दस्तखत करने को कहा था
मगर जूते ने सारे समीकरण हिला दिए. दिल्ली और पंजाब में सिखों के विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए और टाइटलर के खिलाफ मामला एक बार फिर से चर्चा का केंद्र बन गया. टाइटलर ने एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई और उम्मीदवारी छोड़ने की घोषणा की. मगर जैसी कि उन्होंने घोषणा की थी ऐसा उन्होंने पार्टी को शर्मिंदा होने से बचाने की मंशा से हर्गिज नहीं किया बल्कि इसलिए क्योंकि आधी रात को उनके पास ऐसा करने का फरमान पहुंच गया था. सूत्र बताते हैं कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता ऑस्कर फर्नाडिस ने रात में ही उन्हें बता दिया था कि अगर उन्होंने खुद इसकी घोषणा नहीं की तो मजबूरन ये फैसला पार्टी को लेना होगा और ये उनके लिए और भी शर्मिंदगी की बात हो जाएगी.
टाइटलर के साथ सज्जन कुमार को भी अपनी उम्मीदवारी छोड़नी पड़ी इधर, सीबीआई ने टाइटलर को क्लीनचिट दी उधर 84 का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल आया. पीड़ितों की आवाजें एक बार फिर से अपनी कहानी बयां करते हुए गूंजने लगीं. टाइटलर पर सबसे गंभीर आरोप लगाए थे दिल्ली के आजाद मार्केट के नजदीक स्थित गुरुद्वारा पुल बंगश के मुख्य ग्रंथी सुरिंदर सिंह ने. अपने एक बयान में सिंह का कहना था, ‘एक नवंबर 1984 को सुबह नौ बजे लाठी, सरिया और केरोसीन से लैस एक विशाल भीड़ ने गुरुद्वारे पर हमला किया. भीड़ की अगुवाई हमारे इलाके के सांसद जगदीश टाइटलर कर रहे थे. उन्होंने भीड़ को गुरुद्वारा फूंकने और सिखों को मारने के लिए उकसाया. भीड़ में कुछ लोगों के हाथ में कांग्रेस पार्टी के झंडे थे और वे खून का बदला खून, सिख गद्दार हैं, उन्हें मार डालो, जला डालो जैसे नारे लगा रहे थे. भीड़ के साथ पांच-छह पुलिसवाले भी थे. जगदीश टाइटलर के उकसावे पर भीड़ ने गुरुद्वारे पर हमला कर उसमें आग लगा दी. दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड इंस्पेक्टर और गुरुद्वारा मैनेजिंग कमेटी के कर्मचारी ठाकुर सिंह को भीड़ ने मार डाला. गुरुद्वारे के सेवादार बादल सिंह की गर्दन में जलता टायर डालकर उन्हें जिंदा जला दिया गया. मैं गुरुद्वारे की ऊपरी मंजिल पर असहाय खड़ा इस पूरी घटना को देख रहा था. गुरुद्वारे में आग लग गई थी मगर ये आग ऊपरी तल तक नहीं पहुंची.’
सवाल उठता है कि जब गवाही इतनी मजबूत थी तो फिर टाइटलर को क्लीन चिट कैसे मिल गई? तहलका संवाददाता ने लगातार तीन दिन तक उनसे बात करने की कोशिश की मगर उन्होंने बस इतना ही कहा, ‘आपने मेरे खिलाफ झूठ छापा है. मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दूंगा.’
जिस ‘झूठ’ या कहें कि असहज कर देने वाले सच की तरफ टाइटलर इशारा कर रहे हैं वह तहलका द्वारा 2005 में की गई एक महीने लंबी तहकीकात है. इस दौरान हमने सच पर पड़े झूठ के पर्दे को हटा दिया था. इस तहकीकात से ये सच्चाई निकलकर सामने आई थी कि किस तरह टाइटलर, सज्जन कुमार और एचकेएल भगत ने इस मामले में इंसाफ नहीं होने दिया.
तहलका ने साबित किया था कि इस मामले में गवाहों को अपनी तरफ करने के लिए डर और लालच दोनों चीजों का इस्तेमाल किया गया. उन्हें बिचौलियों के एक नेटवर्क द्वारा डराया और धमकाया गया. इन बिचौलियों ने गवाहों के साथ सौदेबाजी की, सच्चाई को तार-तार कर इंसाफ की गाड़ी को पटरी से उतार दिया. तहलका की तहकीकात से पता चला कि लगभग सभी मामलों में गवाहों के साथ सौदेबाजी की गई. भगत के मामले में एक गवाह को 25 लाख रुपये की पेशकश की गई थी. टाइटलर के मामले में अपना बयान बदलने के बाद मुख्य गवाह एक साल के लिए विदेश चला गया. इस मामले का दूसरा गवाह अब भी अमेरिका में है. पता चला कि गवाहों पर दबाव डालकर उनसे ये कहलवाने में कि टाइटलर भीड़ की अगुवाई नहीं कर रहे थे, एक प्रमुख सिख नेता भी शामिल था. एक और सनसनीखेज सच ये भी था कि सज्जन कुमार के खिलाफ अपने बयान से पलटने वाले एक मुख्य गवाह को उनके घर ले जाया गया था.
जब नानावती ने 2005 में सरकार को सौंपी रिपोर्ट में पाया कि टाइटलर के खिलाफ साक्ष्य मजबूत हैं तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मजबूर होकर उन्हें कैबिनेट से हटने के लिए कहना पड़ा
मगर ये कहानी मुख्य रूप से टाइटलर और राजनीति के रिक्टर स्केल पर उनके असर के बारे में है. इसलिए फिर से सुरिंदर सिंह पर लौटते हैं जो इस मामले के मुख्य गवाह थे और जिन्होंने टाइटलर के खिलाफ बयान दिया था. दूसरे पीड़ितों को तरह सिंह पर भी बिचौलियों और उनके आकाओं का दबाव था. जब सिंह के हलफनामे पर नानावती आयोग ने जगदीश टाइटलर को सम्मन भेजा तो सुनवाई के दिन साफ नजर आ रहा था कि मुख्य ग्रंथी का मिजाज बदला-बदला सा था. टाइटलर ने आयोग का ध्यान सिंह द्वारा दाखिल एक दूसरे हलफनामे की तरफ खींचा जो पांच अगस्त 2002 का था और इसमें सिंह उस बात से पलट गए थे जो उन्होंने पहले कही थी. उनका कहना था कि उन्हें तो पता तक नहीं कि पहले दाखिल किए गए हलफनामे में था क्या क्योंकि वे अंग्रेजी पढ़-लिख नहीं सकते हैं. सिंह ने ये भी कहा कि उन्होंने टाइटलर को पुलबंगश गुरुद्वारे पर हमला करने वाली भीड़ की अगुवाई करते हुए नहीं देखा था. ये हलफनामा अक्टूबर 22, 2002 को दाखिल किया गया था और ये एक साल बाद तब प्रकाश में आया जब टाइटलर को आयोग के सामने पेश होने का नोटिस दिया गया. आयोग इससे हैरान था कि टाइटलर को इस तरह के किसी हलफनामे की जानकारी कैसे है क्योंकि 17 जनवरी 2002 को सिंह ने जो बयान दिया था उसमें उन्होंने टाइटलर का नाम लिया था.
टाइटलर सुरिंदर सिंह को अपने पाले में करने की कोशिश कर रहे थे. नानावती कमीशन के सामने दिए गए बयान में सिंह ने माना भी था कि टाइटलर ने 10 नवंबर 1984 को उनसे संपर्क किया था और दो कागजों पर दस्तखत करने को कहा था. उन्होंने हालांकि ऐसा करने से इनकार कर दिया था मगर लगता है कि टाइटलर लगातार सिंह को खरीदने की कोशिश करते रहे और आखिरकार उन्हें कामयाबी मिल ही गई. सिंह के बदले हुए हलफनामे पर जस्टिस नानावती का कहना था, ‘इस सबसे लगता है कि बाद में दिया गया हलफनामा शायद दबाव के तहत दिया गया. अगर इस गवाह ने वास्तव में भीड़ में टाइटलर को नहीं देखा होता या फिर उससे टाइटलर ने संपर्क नहीं किया होता तो वह सबूत देने के लिए खुद आयोग के सामने नहीं आता या आयोग को ये नहीं बताता कि हमला इस तरह से हुआ. सच्चाई बताने के लिए उसे पांच अगस्त 2002 तक इंतजार करने और एक अतिरिक्त हलफनामा देने की जरूरत नहीं थी.’
इसलिए जब नानावती ने 2005 में सरकार को सौंपी रिपोर्ट में पाया कि टाइटलर के खिलाफ साक्ष्य मजबूत हैं तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मजबूर होकर उन्हें कैबिनेट से हटने के लिए कहना पड़ा. एक भावुक भाषण में प्रधानमंत्री का कहना था, ‘मुझे माफी मांगने में कोई झिझक नहीं है, न सिर्फ सिख समुदाय से बल्कि पूरे देश से क्योंकि ये दंगे राष्ट्र की अवधारणा पर चोट हैं. जो हुआ उस पर मेरा सिर शर्म से झुका है..मगर ये किसी देश के इतिहास में आने वाले ज्वार-भाटे हैं.’ ये मानते हुए कि अतीत को बदला नहीं जा सकता मनमोहन ने कहा था, ‘मगर हमारे पास एक बेहतर भविष्य लिखने की इच्छाशक्ति है और हमें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि इस तरह की घटनाएं दोहराई न जाएं.’
एक भावुक सिख प्रधानमंत्री के इन कठोर शब्दों ने उस समय मरहम का काम किया था, मगर उसके बाद जो हुआ वह शर्मनाक है. दो साल के अंतराल के बाद सीबीआई ने दिल्ली की एक निचली अदालत को बताया कि वह ये मामला बंद करना चाहती है मगर अदालत ने आदेश दिया कि टाइटलर के खिलाफ मामले की फिर से जांच की जाए. मजबूर होकर सीबीआई फिर से सुरिंदर सिंह के पास गई जिन्होंने फिर से एक नया हलफनामा दिया. इसमें उनका कहना था, ‘अगर मेरी मौत हो जाती है तो इसके लिए जगदीश टाइटलर जिम्मेदार होंगे. जगदीश टाइटलर ने मुझ पर काफी दबाव डाला था और दो कोरे कागजों पर मेरे दस्तखत करवा लिए थे..उन्होंने मुझे धमकी दी थी कि अगर भविष्य में मैंने उनके खिलाफ बयान दिया तो मुझे मेरे परिवार सहित खत्म कर दिया जाएगा.’
दरअसल सीबीआई तो सुरिंदर तक पहुंचती ही नहीं अगर अदालत उसे ऐसा करने को नहीं कहती. जांच एजेंसी ने अदालत से मामला बंद करने को कहा था क्योंकि टाइटलर मामले में वह और कोई गवाह नहीं ढूंढ़ पाई थी. नानावती आयोग के सामने दिए गए एक हलफनामे में जसबीर सिंह ने कहा था कि उन्होंने तीन नवंबर 1984 की रात किंग्सवे कैंप के पास टाइटलर को देखा था जो एक भीड़ को सिखों के कत्लेआम के लिए उकसा रहे थे. जसबीर पिछले छह साल से अमेरिका में है और सीबीआई का कहना था कि उसका पता-ठिकाना मालूम नहीं चल पा रहा. इससे इस जांच एजेंसी के काम करने के तरीके पर सवाल खड़े होते हैं क्योंकि सीबीआई कह रही थी कि वह जसबीर को ढूंढ नहीं पा रही और उधर जसबीर एक टीवी चैनल पर हो रहे सीधे प्रसारण में अपनी बात कह रहा था.
टाइटलर का कहना है कि जसबीर एक अपराधी है और उनके शब्दों में ‘वह भारत वापस इसलिए नहीं आ रहा क्योंकि वह जानता है कि यहां एक गिरफ्तारी वारंट उसका इंतजार कर रहा है.’विडंबना देखिए कि टाइटलर उसे अपराधी कह रहे हैं जिसने उनके खिलाफ बयान दिया है. वे खुलेआम ये भी कह रहे हैं कि सुरिंदर के पिता और भाई उनसे मिलने आए थे और उन्होंने उन्हें बताया था कि सुरिंदर झूठ बोल रहा है. मगर अहम सवाल ये है कि इस मामले के आरोपी टाइटलर आखिर एक अहम गवाह, जिसने उनके खिलाफ हलफनामा दिया है, के रिश्तेदारों से क्यों मेलजोल रख रहे हैं? एक आंख वोट बैंक पर रखे कांग्रेस ने भले ही आफत को थोड़ा टाल दिया हो मगर 1984 की जवाबदेही अब तक तय नहीं हो पाई है.
पीड़ित अब भी न्याय के इंतजार में हैं.