पार्टी के टेकों पर मजबूत नेता

मजबूत नेता को आजकल जो देखो राष्ट्रभक्त पार्टी में टेका लगा रहा है. कभी आपने देखा और सुना कि बीच चुनाव में किसी पार्टी ने कहना शुरू किया हो कि इस बार तो प्रधानमंत्री के हमारे उम्मीदवार फलांचंद जी हैं और अगली बार दुलाचंद जी होंगे. चुनाव लड़ती और सत्ता में आने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा चुकी पार्टी न तो ऐसी शानदार प्लानिंग कर सकती हैं न बीच धार में कह सकती है कि इस बार तो यह ठीक है लेकिन अगली बार पार लगाने वाला हमारी वह नौका होगी. भैया इस बार तो लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बना लो फिर कहना कि हमारा अगला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होगा.

संघ परिवार के ये नैष्ठिक प्रचारक संगठक अब भी मानते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी से हिंदुत्व की सेवा नहीं होगी. नरेन्द्र मोदी यह बेहतर कर सकते हैं

कांग्रेस ऐसी अनोखी लोकतांत्रिक पार्टी है जिसमें प्रधानमंत्री एक ही परिवार में पैदा होते हैं. जैसे पहले राजा एक ही वंश में पैदा हुआ करते थे. मोतीलाल नेहरू के घर जवाहरलाल हुए. फिर जवाहरलाल नेहरू के घर इंदिरा हुईं. उनने विवाह भले ही फीरोज गांधी नाम के पारसी से कर लिया हो पर वह बेटी तो प्रधानमंत्री नेहरू की थीं इसलिए प्रधानमंत्री बनीं. उनके बेटे राजीव को राजनीति से खटक पड़ती थी. लेकिन वे बेटे तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के थे इसलिए प्रधानमंत्री बने. अब सारी दुनिया जानती है उनके बेटे राहुल प्रधानमंत्री होंगे. लेकिन अभी उनकी राजनैतिक ट्रेनिंग चल रही है. राजतिलक रुका हुआ है. राजमाता सोनिया गांधी ने मुनीम मनमोहन सिंह को कामकाज चलाने के लिए खड़ाऊं दे कर बैठा रखा है.

सब जानते हैं कि राज सिंहासन सूना है और प्रतीक्षा में है. लेकिन कांग्रेस जैसी राजतंत्रिक पार्टी को कोई छोटा-मोटा चोबदार भी नहीं कहता कि इस बार तो मनमोहन सिंह ठीक हैं लेकिन अगले प्रधानमंत्री राहुल गांधी होंगे. तो फिर भैया भारतीय जनता पार्टी जैसी संघनिष्ठ और करिश्माई सर्वोच्च नेतृत्व में विश्वास न करने वाली पार्टी के चाणक्य अरुण शौरी को अमदाबाद में क्यों कहना पड़ गया कि नरेन्द्र मोदी अगले भाजपाई प्रधानमंत्री होंगे? और मान लो कि मोदी को प्रधानमंत्री बनाने को उतावले गुजरातियों को संतुष्ट करने के लिए अरुण शौरी ने कह भी दिया तो अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद जैसे दूसरे कागजी नेताओं ने इस गलती पर पानी डालने के बजाए इस आग को और हवा क्यों दे दी? बीच चुनाव में ऐसी हालत क्यों पैदा कर दी कि मजबूत नेता की जोरदार उम्मीदवारी को छोड़ कर लोग नरेन्द्र मोदी की बात करने लगे? अभियान को तो सफल होने के लिए एक ही फोकस करना पड़ता है. फिर लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने के पहले ही अगले प्रधानमंत्री की बात क्यों चलाई गई?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनैतिक बेटी भारतीय जनता पार्टी को अंदर बाहर से जानने वाले लोग कहते हैं कि संघ और भाजपा में ऐसे तत्वनिष्ठ हिंदुत्ववादियों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी के बजाए नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना कर चुनाव में उतरा जाता तो भाजपा के सत्ता में आने और मोदी के प्रधानमंत्री बनने की बेहतर संभावना होती. ये वे लोग हैं जिनके दबाव के कारण जिन्ना को सेकुलर कहने वाले लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा के अध्यक्ष पद से उतरना पड़ा था. यही वे लोग हैं जिनने विश्वास कर रखा था कि भाजपा की सरकार में आडवाणी गृह और उप प्रधानमंत्री हुए तो अयोध्या में राम मंदिर बनने का रास्ता निकल आएगा. लेकिन जो आडवाणी के सत्ता में बने रहने के मोह से बहुत निराश हुए थे और मानने लगे थे कि उनने हिंदुत्व को सत्ता में आने की सीढ़ी बना कर उसे फेंक दिया है.

आतंक से निपटने की इस ‘मजबूती’ में भी लालकृष्ण आडवाणी का लोहा पिघला हुआ दिखाई दिया. तो खुद जसवंत सिंह मजबूत नेता को टेका लगाने आगे आए

संघ परिवार के ये नैष्ठिक प्रचारक संगठक अब भी मानते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी से हिंदुत्व की सेवा नहीं होगी. नरेन्द्र मोदी यह बेहतर कर सकते हैं और उन्हीं को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए. संघ और पार्टी के लाख कहने पर भी ये लोग उत्साहित हो कर चुनाव में नहीं लगे हैं. उनका रवैया ठंडा है. गुजरात में तो मोदी के आसपास घूमने-फिरनेवालों ने मान ही लिया है कि वही प्रधानमंत्री होने चाहिए. वे अपनी उतावली बताने में शरमाते या हिचकते भी नहीं. इन लोगों को आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लड़े जा रहे चुनाव में सक्रिय करने के लिए मान लिया गया है कि भाजपा के अगले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होंगे. यानी राजनाथ सिंह और दूसरी पीढ़ी के कई नेताओं का कोई जिक्र ही नहीं है. भाजपा में आडवाणी के बाद मोदी हैं. अरुण शौरी और अरुण जेटली जैसी अमरबेल ‘नेतागीरी’ को भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिस पर वे चढ़ें. वह अटल बिहारी नाम का वटवृक्ष है या लालकृष्ण आडवाणी नाम का खजूर या नरेन्द्र मोदी नाम का बबूल.

इसलिए अगला भाजपाई प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी है ऐसा सार्वजनिक ऐलान कर के मजबूत नेता को संघ परिवार में टेका लगाया गया है. ऐसा ही एक टेका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूतपूर्ण सरसंघचालक सुदर्शन ने लगाया. मुंबई में मनमोहन सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में लिखित बयान में कहा था कि जब लुच्चे लफंगे और गुंडे बाबरी मसजिद गिरा रहे होंगे तो मैं लालकृष्ण आडवाणी की तरह कोने में बैठ कर रोता नहीं रहूंगा. कुछ करूंगा. क्योंकि नेताई, भाषण बहादुरी  करने में नहीं सही और मजबूत कार्रवाई करने में है. मनमोहन सिंह ने मुंबई में ऐसा कहा लेकिन सोनिया गांधी और उनकी बेटी प्रियंका और बेटा राहुल तो बाबरी मसजिद के ध्वंस में मजबूत नेता की असहायता और निपट कर्महीनता को लगातार निशाना बनाए ही हुए थे. मजबूत नेता की मजबूती बाबरी ध्वंस पर तार-तार हो रही थी.

इस खस्ता हालत में मजबूत नेता को टेका लगाने के लिए अपने संन्यास से बाहर निकले सुदर्शन जी ने विस्तार से बताया कि बाबर मसजिद के ध्वंस के लिए लालकृष्ण आडवाणी कतई जिम्मेदार नहीं थे. उसे गिरवाना तो कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव चाहते थे. लालू प्रसाद यादव ने कहा कि बाबरी के गिरने में कांग्रेस भी जिम्मेदार है. नहीं, कांग्रेस ही जिम्मेदार है. क्योंकि नरसिंह राव ने बाबरी मसजिद को बचाने के लिए हमारी इतनी बात तक नहीं मानी कि सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दें कि वह लखनऊ हाईकोर्ट को कहे कि विचाराधीन मामले पर जल्दी फैसला दे दें. अब यही सुदर्शन पहले कह चुके हैं कि बाबरी मसजिद सरकार की तरफ से आए लोगों की बारूद से गिरी. कारसेवकों का उसमें कोई पराक्रम नहीं था. लेकिन यहां सुदर्शन जी को लालकृष्ण आडवाणी को बाबरी ध्वंस की किसी भी जिम्मेदारी से बरी करना था. सब जानते हैं कि बाबरी मसजिद के ध्वंस की अध्यक्षता तो संघ परिवार का पितृ संगठन संघ ही कर रहा था. इसलिए सुदर्शन जी को टेका लगाने के लिए आना पड़ा. वे उस समय संघ में सह कार्यवाह थे.

मनमोहन सिंह, राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी ने इंडियन एअरलाइंस के विमान के काठमांडो से काबुल अपहरण और उसे यात्रियों समेत छुड़ाने में तीन दुर्दांत आतंकवादियों की रिहाई में लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका को भी उनके मजबूत नेता होने के सबूत की तरह देश को दिखाया. आडवाणी जी ने अपनी किताब और एक इंटरव्यू में कह रखा है कि तब के विदेश मंत्री जसवंत सिंह के आतंकवादियों को ले कर कंधार जाने की उन्हें कोई स्पष्ट जानकारी नहीं थी. इसी पर पूछा गया कि ये कैसे लौह पुरुष गृह मंत्री थे जिन्हे मालूम नहीं था कि विदेश मंत्री आतंकवादियों के साथ कंधार जा रहे हैं. या तो वे अपना काम ठीक से कर नहीं रहे थे या प्रधानमंत्री का उनमें विश्वास नहीं था कि बताते कि सरकार क्या कर रही है.

आतंक से निपटने की इस ‘मजबूती’ में भी लालकृष्ण आडवाणी का लोहा पिघला हुआ दिखाई दिया. तो खुद जसवंत सिंह मजबूत नेता को टेका लगाने आगे आए. वे दार्जीलिंग से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. उनने एक्सप्रेस के संवाददाता को बुला कर कहा कि लालकृष्ण आडवाणी तो  दरअसल आतंकवादियों की रिहाई के विरुद्ध थे. इस मामले में उनकी राय कैबिनेट और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को मालूम थी. लेकिन कैबिनेट की राय अलग थी. आडवाणी और अरुण शौरी ही असहमत थे. इसलिए प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उन्हें (यानी जसवंत सिंह को) आडवाणी को समझने और मान लेने के लिए भिजवाया. मैंने उन्हें सब बताया और पार्टी के वफादार और समर्पित नेता की तरह उनने सब मान लिया.

दस साल चुप रहने के बाद जसवंत सिंह अब कह रहे हैं कि आतंकवादियों को रिहा करने का फैसला तो कैबिनेट और प्रधानमंत्री वाजपेयी का था. लालकृष्ण आडवाणी तो उससे सहमत भी नहीं थे. उन्हें तो हमने मनाया. यानी कंधार से अपने विमान और यात्रियों को आतंकवादियों के बदले छुड़ाने के लिए लालकृष्ण आडवाणी नहीं – अटल बिहारी वाजपेयी जिम्मेदार थे. यानी कंधार के लिए भी लालकृष्ण आडवाणी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. वे एक महज एक असहमत गृह मंत्री थे जिन्हें प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की इच्छा के सामने झुकना पड़ा. पार्टी का समर्पित और वफादार नेता क्या करता?

यानी पार्टी बता रही है कि लालकृष्ण आडवाणी बाबरी मसजिद के ध्वंस के लिए जिम्मेदार नहीं है. उनके लिए तो वह जीवन का सबसे दुखद दिन था. दस साल पहले एनडीए की सरकार में गृह मंत्री रहते हुए तीन दुर्दात आतंकवादियों की रिहाई हुई थी. विदेश मंत्री जसवंत सिंह खुद उन्हें विमान में अपने साथ कंधार ले कर गए थे. गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी नहीं. यानी मजबूत नेता सचमुच मजबूत हैं. जो संघ परिवारी मानते हैं कि वे नहीं नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री होना चाहिए उन्हें अरुण शौरी ने समझा दिया है कि अगले प्रधानमंत्री वही होंगे. अभी तो लालकृष्ण आडवाणी को बनाओ.

टेकों के बिना लालकृष्ण आडवाणी जैसा लौह पुरुष भी मजबूत नेता नहीं होता. यही राम नाम का सत्य है.