मजबूर और निर्णायक

आडवाणी जब भी आतंकवाद को लेकर खुद के मबूत और विरोधियों के नरम होने की बात करते हैं तो कांग्रेस और सहयोगी कांधार के भूत को जीवित कर देते हैं. उलटवार ये होता है कि आज से एक दशक पहले जब आईसी 814 का अपहरण कर अफगानिस्तान के कांधार ले जाया गया था तब वाजपेयी सरकार ने तीन खूंख्वार आतंकियों को अपह्रत विमानयात्रियों के बदले छोड़ दिया था और लानत वाली बात ये है कि तब के विदेशमंत्री जसवंत सिंह खुद इन तीनों को अपने साथ लेकर कांधार गए थे.

आडवाणी ने अपनी किताब में ये श्रेय लिया है कि अपहर्ताओं से इतनी बढ़िया सौदेबाजी की गई कि वो 36 आतंकियों को रिहा कराने की मांग से नीचे आकर केवल 3 पर राजी हो गए

भाजपा कहती है कि ऐसा उसे डेढ़ सौ भारतीयों की जान बचाने के लिए करना पड़ा था. गुजरात के मुख्यमंत्री इसके लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराते हैं जिसने इतना दबाव बना दिया था कि सरकार कुछ और कर ही नहीं सकती थी. भाजपा के प्रवक्ता ये उलाहना देना भी नहीं भूलते कि जो इतने लोगों के लिए तीन आतंकियों को छोड़ने पर शोर मचाते हैं वो रूबिया सईद के बदले पांच आतंकियों को छोड़ने पर कुछ क्यों नहीं बोलते.

ये बात सही है कि किसी भी चुनी हुई सरकार द्वारा, दस साल पहले की परिस्थितियों में, अंतिम उपाय के तौर पर तीन आतंकियों को छोड़ के डेढ़ सौ नागरिकों की जान बचाना बिल्कुल गलत तो कतई ही नहीं होगा. मगर  इस विकल्पहीनता तक पहुंचने-पहुंचाने की जिम्मेदारी किस के सर है.

अपह्रत विमान करीब पौन घंटे तक अमृतसर हवाईअड्डे पर खड़ा रहा मगर हम न तो उसे निष्क्रिय कर पाए और न देश से बाहर जाने से ही रोक पाए. और तो और जिन यात्रियों की सुरक्षा के लिए आतंकियों को छोड़ा गया इस दौरान उनसे भी 25 ज्यादा – 25 महिलाओं और बच्चों को अपहर्ताओं ने यूएई में छोड़ दिया था- की जान जाते-जाते बची थी क्योंकि अमृतसर से उड़ान भरते समय समय विमान में लाहौर तक पहुंचने के लिए भी ईंधन नहीं था और वो वहां उतरते समय नष्ट होते-होते बचा था.

आडवाणी ने अपनी किताब में ये श्रेय लिया है कि अपहर्ताओं से इतनी बढ़िया सौदेबाजी की गई कि वो 36 आतंकियों को रिहा कराने की मांग से नीचे आकर केवल 3 पर राजी हो गए. मगर आतंकियों की शुरुआती मांग तो केवल मसूद अजहर को छोड़ने की थी. तो बाद में उनकी मांग बढ़ने और फिर घटने के बाद भी पहले से ज्यादा होने का श्रेय कौन लेगा? आडवाणी ने ये भी लिखा है कि जब विमान यूएई में था तो अमेरिकी राजदूत को तो हवाईअड्डे में जाने दिया गया मगर भारतीय को नहीं और अमेरिका ने भारत के इस अनुरोध पर ध्यान ही नहीं दिया कि वह यूएई में अपनी ताकत का इस्तेमाल कर किसी तरह विमान को न उड़ सकने की स्थिति में पहुंचा दे. तो इस कूटनीतिक विफलता का श्रेय किसके सर मढ़ा जाए?

विमान का अपहरण 24 दिसंबर को हुआ था और सरकार के मुताबिक प्रक्रियागत समस्याओं के चलते, जिनपर भारत का कोई जोर नहीं था, पहला बातचीत और राहत दल कांधार 27 दिसंबर को यानी करीब 60 घंटे बाद पहुंचा. अब सरकार की ऐसी असहायता को क्या कहा जाए?

रहा सवाल मीडिया का तो अगर शुरू से ही कोई सरकार लड़खड़ाती दिखाई दे और मसला 8 दिन लंबा खिंच जाने पर भी यदि देश और मीडिया कुछ न कहें, तो उस देश का चरित्र कुछ और तो होगा, लोकतांत्रिक नहीं.

संजय दुबे