फ्रांसीसी लेखक आंद्रे मलरॉक्स ने एक बार जवाहर लाल नेहरू से पूछा था कि भारत की आजादी के बाद उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती क्या रही है. नेहरू का जवाब था, ‘न्यायसंगत तरीकों से एक न्यायसंगत समाज का निर्माण.’ फिर आगे जोड़ते हुए वे बोले थे, ‘शायद, एक धार्मिक देश के भीतर एक धर्मनिरपेक्ष देश का निर्माण भी.’विडंबना देखिए कि उन्हीं नेहरू के एक प्रपौत्र ने साबित कर दिया है कि भले ही इस बात को लगभग आधी सदी बीतने को आई हो पर आज भी इन दोनों चुनौतियों की दुरूहता उसी तरह कायम है.
नेहरू के प्रपौत्र, इंदिरा गांधी के पोते और संजय गांधी के पुत्र वरुण के लिए ये सोचना हमेशा से स्वाभाविक ही रहा होगा कि उनकी नियति औरों से खास है
गुमनामी के अंधेरों से जूझ रहे 29 साल के वरुण गांधी पिछले महीने अचानक कुख्याति की रोशनी से सराबोर हो गए. मार्च के मध्य में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक चुनावी सभा में दिए गए उनके भाषण के कुछ अंश टीवी चैनलों पर क्या आए पूरा देश स्तब्ध रह गया. काला कुरता पहने और लाल टीका लगाए वरुण मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जहर उगलते दिख रहे थे.
देश में राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है इसके उदाहरण वैसे तो अब अक्सर देखने को मिलने लगे हैं मगर ये एक नई गिरावट थी. शायद कोई और होता तो उसकी ऐसी बातों से इतना भूचाल खड़ा नहीं होता मगर ऐसा वह शख्स कह रहा था जिसके नाम के आगे गांधी लगा था. हर किसी को हैरत थी कि आखिर वरुण को क्या हो गया? आखिर क्यों वे अपने परिवार की विरासत को धोखा देने पर उतर आए?
कुछ दिलचस्प सवाल और भी हैं. मसलन जिस पारिवारिक विरासत को धोखा देने के लिए वरुण की आलोचना हो रही है क्या वह विरासत उनके पास कभी रही भी? और कहीं इसकी अनुपस्थिति ने ही तो वरुण को इस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित नहीं किया?
नेहरू के प्रपौत्र, इंदिरा गांधी के पोते और संजय गांधी के पुत्र वरुण के लिए ये सोचना हमेशा से स्वाभाविक ही रहा होगा कि उनकी नियति औरों से खास है, वे भी इतिहास का एक पन्ना हैं जिसे कभी पलटा जाएगा. आखिर सारी दुनिया मानती थी कि इंदिरा गांधी की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने वाले संजय गांधी ही होंगे जिनमें अपनी मां की छाप है. वरुण के ताऊ राजीव की तो राजनीति में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी.
मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था. वरुण चार महीने के थे जब उनके पिता संजय गांधी की एक हवाई दुर्घटना में मौत हो गई. उनकी मां मेनका गांधी ने जब अपनी सास और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से खटपट होने के बाद घर छोड़ा तो बुखार से तप रहे वरुण की उम्र महज दो साल थी. तब से अपने पैतृक परिवार से कटा हुआ ये भाई अब चोट खाए कर्ण की तरह भीतर ही भीतर सुलग रहा है.
प्रधानमंत्री आवास से बाहर आने या जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, धकियाए जाने के बाद मेनका पहले गोल्फ क्लब रोड, फिर जोरबाग, उसके बाद महारानी बाग और आखिर में उस फ्लैट में रहीं जो संजय गांधी ने उनके लिए खरीदा था. 27 साल की एक महिला, जिसकी गोद में दो साल का बच्चा हो, के लिए ये काफी बुरा समय था. पति के परिवार से बिछड़ने के बाद उन्होंने भावनात्मक सहारे के लिए अपने परिवार से फिर से संपर्क साधा. मगर यहां भी हालात अच्छे नहीं थे. जैसा कि उनके एक करीबी मित्र याद करते हैं, ‘उनका परिवार हमेशा बिखरने के कगार पर लगता था, वहां हमेशा कुछ न कुछ होता ही रहता था.’ मेनका के पिता का शव एक दिन संदिग्ध परिस्थितियों में खेत में पड़ा मिला था. ये गोलियों से छलनी था. फिर एक दिन उनका भाई गायब हो गया और कभी नहीं लौटा. मेनका की मां अमतेश्वर आनंद पशुपालन के क्षेत्र में योगदान के लिए मशहूर सर दत्तार सिंह की चार संतानों में एक थीं. भाई-बहनों में संपत्ति को लेकर तीखा विवाद हुआ जो अगली पीढ़ी तक भी चलता रहा. कहा जा सकता है कि पारिवारिक दरारें भी वरुण गांधी की जिंदगी का एक पहलू रही हैं.
2004 में जब वरुण भारत आए थे तो कहा जाता है कि ब्रिटिश एयरवेज की उस फ्लाइट में उनके साथ राहुल भी थे. दोनों भाई 10 जनपथ पहुंचे थे और उन्होंने रात साथ ही बिताई थी
बचपन से वरुण को जानने वाले सभी लोग उन्हें एक शांतचित्त और एकांतप्रिय बालक के तौर पर याद करते हैं जो लोगों से मिलने-जुलने से ज्यादा किताबों में दिलचस्पी रखता था. उनकी पढ़ाई के शुरुआती कुछ साल आंध्र प्रदेश स्थित ऋषि वैली बोर्डिंग स्कूल में गुजरे. बताया जाता है कि आठवीं क्लास में वरुण को उनके किसी गैरजिम्मेदाराना बर्ताव के कारण स्कूल छोड़ने के लिए कह दिया गया था. हालांकि दिल्ली स्थित ब्रिटिश स्कूल की पूर्व प्रधानाचार्य श्रीमती प्रभु याद करती हैं कि वरुण जितने समय तक उनके स्कूल में रहे उनसे किसी को कोई परेशानी नहीं हुई. प्रभु के शब्दों में, ‘वह बुद्धिमान था और क्लास में सबसे अलग लगता था. दिखता था कि उसमें नेतृत्व की क्षमता है क्योंकि वह हमेशा अपने विचारों को बेहद दिलचस्प तरीके से सामने रखता था.’
स्कूली पढ़ाई खत्म होने के बाद वरुण कुछ साल के लिए इंग्लैंड चले गए. वापस आने तक उनमें काफी बदलाव आ चुके थे. इतिहास में उनकी गहरी दिलचस्पी पैदा हो गई थी, वे साधारण कविताओं की एक किताब द अदर साइड ऑफ साइलेंस लिख चुके थे, लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और द स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (एसओएएस), यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से उन्हें मास्टर डिग्री मिल चुकी थी. हालांकि बाद में पता चला कि ये दोनों बातें झूठी थीं. वरुण ने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में फुल टाइम कोर्स के लिए दाखिला ही नहीं लिया था और एसओएस में एम (फिल) कोर्स से भी उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया था.
तो फिर ये एकांतप्रिय पाठक, पीलीभीत में नफरत उगलने वाले नेता में कैसे तब्दील हो गया?
जवाब है अपनी शक्तिशाली विरासत को खोने का बोध. नेहरू-इंदिरा की राजनीतिक विरासत के असली दावेदार संजय गांधी के पुत्र वरुण तो अपनी साधारण युवावस्था जी रहे थे और उधर, अनिच्छा से ये विरासत संभालने वाले राजीव गांधी के बच्चों राहुल और प्रियंका की जिंदगी हर मायने में असाधारण थी, है. राहुल और प्रियंका पर हर तरफ से राजनीति में आने का दबाव बन रहा था. इससे उपजा नुकसान का बोध वरुण की सोच को चलाने वाला कारक बन गया.
इस कहानी का एक मर्मस्पर्शी पहलू ये भी है कि चचेरे भाई-बहन हमेशा एक-दूसरे से कटे नहीं रहे. 2004 में जब वरुण भारत आए थे तो कहा जाता है कि ब्रिटिश एयरवेज की उस फ्लाइट में उनके साथ राहुल भी थे. दोनों भाई 10 जनपथ पहुंचे थे और उन्होंने रात साथ ही बिताई थी. जैसाकि उनके एक करीबी दोस्त कहते हैं, ‘उनके दरवाजे वरुण के लिए कभी बंद नहीं थे. प्रियंका की शादी में उनके सबसे नजदीक वरुण ही खड़े थे. बाद में उन्हें सुल्तानपुर से चुनाव लड़ने की पेशकश की गई. मगर वरुण को लगा कि वे अपनी मां की पीठ में छुरा नहीं भोंक सकते जिनकी जिंदगी तमाम मुश्किलों से भरी रही थी. उन्होंने हमसे कहा कि मैं राजनीति को मां से ज्यादा तरजीह नहीं दे सकता. मुझे उनके साथ ही जाना होगा.’मगर इससे उनके लिए स्थिति बड़ी अजीब हो गई. अब उनके पास परिवार की विरासत नहीं थी और इसके बिना वे रह नहीं सकते थे. विकल्पहीनता की स्थिति में वे भाजपा में चले गए. इसलिए नहीं कि भाजपा में उनका विश्वास था बल्कि इसलिए कि उन्हें जल्दी से जल्दी कोई फैसला करना था.
इस सूत्र के मुताबिक वरुण मानते हैं कि नेहरू एक कमजोर व्यक्ति थे और उनके मुताबिक भारत के इतिहास में काम करने वाले दो ही लोग थे-उनके पिता और उनकी दादी
समझने वाली अहम बात ये है कि पीलीभीत में वरुण ने जो किया वह अपनी विरासत को धोखा देने जैसा नहीं था. बल्कि ये तो उस विरासत को फिर से हासिल करने की दिशा में उठाया गया पहला कदम था. दरअसल वरुण, नेहरू नहीं बल्कि सही मायनों में संजय गांधी के वारिस हैं. वे खुद भी ऐसा ही मानते हैं. वरुण नेहरू-गांधी परिवार की चकाचौंध से नहीं बल्कि अंधेरी छाया से आते हैं. उनके पास अपनी दादी जैसी परिपक्व और अपने पिता जैसी असैंवधानिक बुद्धि है. इतिहास की सबसे प्रखर हस्तियों में से एक के पोते संजय गांधी गुंडों की तरह जोर जबर्दस्ती पर उतर आते थे क्योंकि औचित्य के लिए उनके मन में कोई सम्मान ही नहीं था. वरुण भी इसी विरासत का हिस्सा लगते हैं. राजनीतिक लाभ के लिए इस देश में असल मुद्दों पर काम करने की बजाय लोगों की भावनाएं भड़काना अक्सर ज्यादा आकर्षक विकल्प लगता है और वरुण आसानी से इस लालच के आगे घुटने टेक देने वाले लगते हैं.
कई साल से मेनका और वरुण के करीबी रहे प्रीतिश नंदी इसकी पुष्टि करते हैं, ‘वरुण अपने पिता की तरह हैं. भावावेश में काम करने वाले और अधीर, वे एक अहम भूमिका अदा करना चाहते हैं. वे कोई कामयाबी हासिल करना चाहते हैं. मैं ये मानना पसंद करूंगा कि ये एक अल्पकालिक और सोचीसमझी पैंतरेबाजी थी’
विवादित भाषण के सुर्खियों में आने के बाद तहलका ने वरुण के बेहद करीबी एक सूत्र से बात की. बातचीत में वरुण के व्यक्तित्व की कुछ दिलचस्प बारीकियों के बारे में पता चला. ‘कृपया इसे वरुण के कायांतरण जैसा मत लिखियेगा’ सूत्र का कहना था, ‘वरुण को इस बात की समझ है कि वे क्या कर रहे हैं. वे अपने पिता की तरह बनना चाहते हैं. हमारे देश में जो समस्याएं हैं जरूरी नहीं कि उनके समाधान जटिल ही हों. लोग कहते हैं कि संजय ज्यादा ही सख्तमिजाज थे मगर उनके जैसी छवि राजीव कभी हासिल नहीं कर पाए. लोग कहते हैं कि अगर संजय आज होता तो देश का ये हाल नहीं होता. हर मनुष्य अपने अंदर के राक्षसों से लड़ता है. वरुण भी उन से लड़ रहे हैं जिनसे कभी उनके पिता लड़े थे–क्या उन्हें राजनीतिक रुप से सही दिखकर बेअसर हो जाना चाहिए या फिर सच बोलने और आलोचना झेलने की हिम्मत दिखानी चाहिए और काम हो ऐसा सुनिश्चित करना चाहिए?’
इस सूत्र के मुताबिक वरुण मानते हैं कि नेहरू एक कमजोर व्यक्ति थे और उनके मुताबिक भारत के इतिहास में काम करने वाले दो ही लोग थे-उनके पिता और उनकी दादी. वरुण को लगता है कि नैतिक आदर्शवाद का वक्त अब खत्म हो चुका है. नैतिकता के साथ अब ताकत के डर को भी जोड़ा जाना चाहिए. सूत्र के शब्दों में ‘वरुण हिंसा के खिलाफ हैं, क्या आपको लगता है कि वरुण किसी के खिलाफ सेना लेकर चढ़ बैठेंगे? पीलीभीत में उनका भाषण सिर्फ एक तरह का चेतावनी संदेश था. महात्मा गांधी ने अपनी ताकत का इस्तेमाल कर सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस से बाहर करवा दिया. तो क्या वह एक तरह की नैतिक बदमाशी नहीं थी? दुनिया बदल चुकी है, हम डरे हुए लोग बन चुके हैं. वरुण इस डर को आवाज देना चाहते थे, इसे शांत करना चाहते थे. लोगों को संविधान पढ़ाने से वे शांत नहीं होने वाले. वरुण अपनी उम्र के शक्तिहीन नेताओं की तरह नहीं बनना चाहते जिनका जनता पर कोई असर नहीं है. उनके चचेरे भाई राहुल की उत्तर प्रदेश में क्या उपलब्धि है? अरुंधती राय और मेधा पाटकर ने क्या हासिल कर लिया है? वरुण को इस बात का गर्व है कि वे अकेले ऐसे युवा नेता हैं जिसने राष्ट्रीय स्तर पर एक बहस छेड़ दी है.’
वैसे 2004 में जब वरुण भारत वापस आए थे तो शुरुआत में उनमें नेहरू के विचारों की झलक दिखी थी. मालेगांव में भाजपा की एक चुनावी रैली में उन्होंने आम नेताओं की तरह सरकार की खिंचाई करने से इनकार कर दिया था. उनके शब्द थे, ‘बहुत से लोगों ने मुझसे ये बोलने के लिए कहा है कि इस सरकार (कांग्रेस-एनसीपी) ने कोई काम नहीं किया. मगर मैं ऐसा नहीं करूंगा. आरोपों और प्रत्यारोपों से किसी का भला नहीं होता. सिर्फ जनता का नुकसान ही होता है. मैं दूसरी तरह की राजनीति का सूत्रपात करना चाहता हूं.’
हालांकि वरुण के भाषण की निंदा करने वाले हिंदुओं की कमी नहीं थी मगर साफ नजर आ रहा था कि हवा में बदलाव की आहट है और इस बार पीलीभीत में वोट हिंदू-मुसलमान के आधार पर पड़ने वाले हैं
तो सवाल उठता है कि इतने भले विचार अचानक बदल कैसे गए?
वरुण के करीबी इस सूत्र का कहना है, ‘शहरों में सारी सुविधाओं से संपन्न अपने घरों में बैठकर दूसरों को खलनायक कहना आसान है. दिल्ली से 50 किलोमीटर दूर जाइए और आपको एक दूसरी ही हकीकत के दर्शन होंगे. इस हकीकत से निपटने के लिए आपको एक दूसरी जबान की जरूरत होती है.’
ऐसा लगता है कि वरुण में ये बदलाव उत्तर प्रदेश में राजनीति की जमीनी हकीकतों से वाकिफ होने के बाद आए. सूत्र के शब्दों में ‘वहां पर अगर कुछ हकीकत है तो वोहै धर्म, जाति और गुंडागर्दी. उदाहरण के लिए मुलायम सिंह की समूची राजनीति पुलिस तंत्र के प्रबंधन से चलती है. शहरों की सुविधाओं में जीकर देश की एक सुखद तस्वीर देखना और दिखाना आसान है.’ कहा जाता है कि दुविधा की स्थिति में लिए गए फैसलों से किसी इंसान की सही पहचान होती है. भाजपा के भीतर वरुण हमेशा एक अनिश्चितता की स्थिति में रहे हैं. हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी और कुछ हद तक लालकृष्ण आडवाणी भी उनके शुभचिंतक रहे हैं मगर पार्टी के दूसरे लोगों को वे जरा भी पसंद नहीं. नरेंद्र मोदी के करीबी भाजपा के एक अंदरुनी सूत्र के शब्दों में, ‘वे बस तीन दिन का टीवी तमाशा हैं. वे स्वभाव से ही झूठे हैं और उन्हें तो भाजपा की विचारधारा तक में विश्वास नहीं है. उनकी तुलना तो योगी आदित्यनाथ से भी नहीं हो सकती. आप देखिएगा कल किसी शहरी क्षेत्र में भाषण देते हुए उनका लहजा बदल जाएगा.’
बात सही है. जब वरुण को मध्य प्रदेश में मुस्लिम बहुल सीट विदिशा से संभावित उम्मीदवार बनाए जाने की चर्चा चल रही थी तो उन्होंने अपने शुरुआती नाम फीरोज पर जोर देना शुरू कर दिया था. हालांकि फिर आखिरी वक्त पर उन्हें टिकट न दिए जाने का फैसला हुआ. बीते वर्षों के दौरान कई बार उन्हें राष्ट्रीय सचिव और पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई का अध्यक्ष पद देने की पेशकश की गई मगर हर बार पार्टी के भीतर मौजूद दूसरी पांत ने ऐसा नहीं होने दिया. साफ है कि वरुण बड़ा खेल खेलने के लिए अधीर हो रहे थे.
वरुण की कहानी में कई दिलचस्प मोड़ हैं. चार बार उनकी मां को लोकसभा भेज चुके पीलीभीत संसदीय क्षेत्र से जब उनके खड़े होने की बारी आई तो परिसीमन के चलते वहां के चुनावी समीकरण उनके खिलाफ हो गए. पोवाया, जहां के अधिकांश वोट परंपरागत रूप से उन्हें मिलते रहे हैं शाहजहांपुर संसदीय क्षेत्र में चला गया तो हिंदुओं और मुसलमानों की मिली-जुली आबादी वाला बहेरी पीलीभीत से जुड़ गया. उनके लिए चिंता का एक और कारण था. स्थानीय आबादी का सिर्फ 30 फीसदी हिस्सा मुस्लिम होने के बावजूद पिछले विधानसभा चुनावों में इस इलाके की पांच में तीन सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों की झोली में गई थी. शायद यही वजह थी कि वरुण को अचानक लगने लगा कि पीलीभीत से सांसद बनना आसान नहीं है.
वरुण को चुनौती देने वाले मुख्य रूप से तीन उम्मीदवार हैं. सपा के रियाज अहमद, बसपा के बुद्ध सेन वर्मा और कांग्रेस के वीएम सिंह. विडंबना देखिए कि वीएम सिंह, रिश्ते में उनके मामा लगते हैं. अकूत संपत्ति के मालिक सिंह पीलीभीत में सबसे पहले मेनका के सहायक के तौर पर आए थे. मगर संपत्ति विवाद, मेनका के तथाकथित भ्रष्टाचार और उनके व्यवहार के चलते वे उनसे अलग हो गए. सिंह के मुताबिक मेनका से किनारा करने के बारे में उन्होंने तब सोचना शुरू किया जब उन्हें ये अहसास हुआ कि मेनका ने स्थानीय विकास के लिए मिलने वाले एमपी फंड में से काफी कमीशन खाया है. हालांकि वे फिर भी काफी समय तक अपनी बहन के साथ खड़े रहे. पर जब बाद में मेनका सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री बन गईं और कुछ समय बाद उन पर मौलाना आजाद एजुकेशनल फाउंडेशन में से 50 लाख रुपए निकालकर अपनी बहन अंबिका शुक्ला द्वारा चलाए जा रहे एक एनजीओ को देने के आरोप पर सीबीआई जांच शुरू हो गई तो सिंह का धैर्य जवाब दे गया. सिंह का इस इलाके में काफी सम्मान है. गन्ना किसानों को बेहतर कीमत दिलाने की मांग को लेकर वे सुप्रीम कोर्ट तक गए हैं. उन्होंने चर्चित केशवपुर बलात्कार मामले, जिसमें पुलिसकर्मियों ने दो नाबालिग सिख लड़कियों का रात भर बलात्कार किया था, में दखल देकर इस मामले को दिल्ली स्थानांतरित करवाया. अर्धसैनिक बलों की एक बटालियन के लिए जमीन के अवैध अधिग्रहण के खिलाफ भी सिंह किसानों के साथ खड़े रहे हैं.
इन तीन उम्मीदवारों और भारत में होने वाले हर चुनाव की स्वाभाविक जटिलताओं के चलते वरुण को अहसास हो गया कि 13 लाख वोटरों की आबादी वाले इस इलाके के साढ़े आठ लाख हिंदू वोट बिखरे हुए हैं. उन्होंने फैसला किया कि ऐसे में सिर्फ यही एक रणनीति बचती है कि हिंदुओं का जाति की बजाय धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण कर दिया जाए. हालांकि वरुण इससे साफ इनकार करते हैं. वे ये भी नहीं मानते कि अपने भाषण में इस तरह की बातें कहकर उन्होंने कोई गलत काम किया है. वे कहते हैं, ‘मेरी मां के कार्यकाल में इस क्षेत्र में एक भी सांप्रदायिक घटना नहीं हुई. मेरे भाषण के बाद भी कोई सांप्रदायिक तनाव नहीं फैला. तो फिर आप कैसे कह सकती हैं कि मैं हिंसा भड़का रहा था.’
बरेली से 50 किलोमीटर दूर स्थित पीलीभीत शांत और उपजाऊ इलाका है. वरुण गांधी के गिरफ्तार होने से पहले जब हम धूल और गड्ढों से भरी यहां की सड़कों से गुजरे तो दो चीजों ने हमें चौंकाया. पहली ये कि 18 साल से मेनका गांधी को चुनकर संसद में भेजने के बावजूद पीलीभीत में विकास के कोई चिन्ह नजर भले ही न आते हों मगर गांधी नाम का आकर्षण अब भी यहां बरकरार है. दूसरी ये कि पीलीभीत सांप्रदायिक सौहार्द से भरी जगह है. चंदोई, भिखारीपुर, कूरी, नकुल, बारखेड़ा. कितने ही गांवों से हम गुजरे और हमने पाया कि हिंदू और मुसलमान यहां भाईचारे और मेलजोल के साथ रहते हैं. काफी पूछने पर भी कभी-कभार होने वाली छिटपुट घटनाओं के सिवाय सांप्रदायिक तनाव की कोई बड़ी घटना के बारे में पता नहीं चलता. जिस एक घटना में थोड़ा-बहुत दम लगता है वह बिसालपुर से बसपा विधायक अनीस अहमद से संबंधित है. कहा जाता है कि अनीस के लोगों ने कुछ महीने पहले एक मेले में रुपयों के लेन-देन को लेकर सोनू नाम के एक चाटवाले की हत्या कर दी. जब भाजपा नेता राम सरन वर्मा ने इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की तो मायावती सरकार ने उन पर रासुका लगाकर उन्हें जेल भेज दिया. वे अब भी जेल में हैं. अगर वरुण इस घटना को चुनावी मुद्दा बनाते तो उन्हें सही कहा जा सकता था मगर फिर भी क्या इससे पूरे समुदाय के खिलाफ उनके जुबानी आक्रोश को न्यायोचित ठहराया जा सकता है.
वरुण की शैतानी राह और इसके असर को उस माहौल से अच्छी तरह से समझा जा सकता है जो 29 मार्च, 2009 को पीलीभीत में था. अग्रिम जमानत याचिका खारिज होने के बाद वरुण के अदालत में आत्मसमर्पण करने की खबर क्या आई आमतौर पर शांत रहने वाला पीलीभीत ध्रुवीकरण से तपते एक चुनावी क्षेत्र में तब्दील हो गया. अदालत के सामने वाली गली दस हजार से भी ज्यादा लोगों की भीड़ से खचाखच भर गई. जय श्रीराम, ये वरुण गांधी नहीं आंधी है, जो हमसे टकराएगा चूर चूर हो जाएगा, जैसे नारे गूंजने लगे. हर तरफ भगवा झंडे नजर आ रहे थे. हालांकि भाजपा के झंडे गायब थे जिसका मतलब ये था कि वरुण पर अपने नजरिए को लेकर पार्टी अभी असमंजस की स्थिति में थी.
पुलिस भीड़ पर काबू पाने की कोशिश कर ही रही थी कि तभी बालीवुड की किसी फिल्म के दृश्य की तरह हरे रंग की एक कार आकर रुकी और इसकी छत से लाल कुर्ता पहने और लंबा लाल तिलक लगाए वरुण प्रकट हुए. लोगों का अभिवादन करते हुए उनके चेहरे पर किसी विजेता जैसे भाव नजर आ रहे थे. उन्हें देखकर भीड़ बेकाबू होने लगी. अदालत पहुंचकर वरुण कार से बाहर निकले और धक्कामुक्की के बीच शांत भाव से भीतर दाखिल हो गए. उधर, पुलिस भीड़ को बाहर रोके रखने के लिए संघर्ष कर रही थी.
एक घंटे बाद चीखते-चिल्लाते समर्थकों के हंगामे के बीच वरुण को जेल भेज दिया गया. धर्म के आधार पर लोगों में दुश्मनी भड़काने के के लिए उन पर भारतीय दंड संहिता की धाराएं 295(ए), 505(दो), 153(ए) और 188 लगाई गई थी जिनके तहत आरोपी शख्स की जमानत नहीं हो सकती. जब वरुण को जेल ले जाया जा रहा था तो हंगामा और भी तेज हो गया. उनके समर्थकों ने जेल में घुसने की कोशिश की. हालात पर काबू पाने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसमें 25 लोग बुरी तरह घायल हो गए. बाद में मीडिया से बात करते हुए मेनका ने एक घातक हथियार चलाया. उन्होंने कहा कि भीड़ पर गोली चलाने की शुरुआत एक मुस्लिम पुलिस अधिकारी परवेज असलम ने की.
पीलीभीत के गांव-गांव में इस घटना की चर्चा फैल गई. हालांकि वरुण के भाषण की निंदा करने वाले हिंदुओं की कमी नहीं थी मगर साफ नजर आ रहा था कि हवा में बदलाव की आहट है और इस बार पीलीभीत में वोट हिंदू-मुसलमान के आधार पर पड़ने वाले हैं. नकुल गांव के एक किसान हर प्रसाद कहते हैं, ‘वरुण जनता के साथ हैं इसलिए जनता उनके साथ है.’ गौर करने वाली बात ये है कि ये वह इलाका है जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में सपा के मुस्लिम प्रत्याशी को वोट देकर जिताया था. ‘आज से पहले कोई नहीं जानता था कि पीलीभीत पीली है या काली. वरुण गांधी ने इसे चर्चा में ला दिया है. क्यों शब्बीर भाई?’, चंदोई गांव में मिठाई की दुकान चलाने वाले राजकुमार अपनी दुकान में काम करने वाले एक कारीगर से कहते हैं. जिस सहजता से वे शब्बीर से ये बात कहते हैं उससे इस इलाके के दोनों समुदायों के आपसी मेलजोल की झलक भी मिल जाती है. बारखेड़ा में साइकिल रिपेयर की दुकान चलाने वाले दंबार सिंह से हम पूछते हैं कि क्या कभी भी उन्हें अपने मुसलमान पड़ोसी से डर लगा है. जवाब आता है, ‘नहीं, मगर वरुण गांधी ने उस भावना को जुबान दी है जो हम दिल में महसूस करते हैं.’
इससे पहले ये संवाददाता एक दीवार फांदकर अदालत परिसर में घुसने में कामयाब हो गई थी. वरुण के इर्दगिर्द मच रहे हंगामे के बीच अचानक मुझे उनसे बातचीत का मौका मिला. वरुण एक कुर्सी पर बैठे थे.
‘क्या आप इस सबसे अभिभूत हैं?’, मैंने पूछा
‘हां, थोड़ा सा, उन्होंने कहा, मैं बिल्कुल अलग माहौल में पला-बढ़ा हूं.’
‘जो कुछ हुआ है अगर आप उसे पूरी तरह बदल सकते तो क्या ऐसा करते?’
‘अगर मैं ऐसा कर सकता तो जरूर. मैं नहीं चाहता कि देश के 25 करोड़ लोग ये सोचें कि मेरी राजनीति का आधार उनका विरोध करना या उनमें डर पैदा करना है. मैं सांप्रदायिक नहीं हूं.’
‘तो आपने मीडिया को दिए अपने बयानों में ये बात क्यों नहीं कही?’, मैं पूछती हूं.
‘किसी ने मुझसे ये सवाल पूछा ही नहीं.’
पर अगली ही बात से विरोधाभास झलकता है, ‘मैं उन बातों पर कायम हूं जो मैंने अपने भाषण में कहीं थीं, मगर मैं एक स्थानीय स्थिति पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहा था. मेरे विचार एक समुदाय के लिए नहीं थे.’साफ लगता है कि उनके भीतर मौजूद संजय गांधी और नेहरू के हिस्से आपस में टकरा रहे हैं.
मैं पूछती हूं, ‘आपने बहुत गलत भाषा का इस्तेमाल किया और लगता है कि आप इस विवाद से खुश हैं.’
जवाब आता है, ‘आठ दिन से मैं घर से बाहर नहीं निकला हूं. मैं हर दूसरे चैनल पर इंटरव्यू देता नजर नहीं आ रहा हूं. क्या इससे आपको लगता है कि मैं इस विवाद से खुश हूं. मुझे इस सबसे गहरा दुख पहुंचा है.’
मगर आपने मजरूल्ला और करीमुल्ला का नाम लेकर जो बातें कहीं उनका क्या?
‘मेरा आशय दो खास मुस्लिम नेताओं से था. पूरे समुदाय से नहीं, पूरनपुर और अमरैया से ताल्लुक रखने वाले दो भाई’, बिना पलक झपकाए वे जवाब देते हैं.
मगर पता चल जाता है कि वरुण लोगों को भरमाने में माहिर हैं. दरअसल ऐसे किन्हीं भाइयों का कोई अस्तित्व है ही नहीं. संजय और नेहरू के बीच के अंर्तद्वंद में जीत संजय की हुई. आकस्मिकता जीत गई. बाहर भीड़ उनके नाम का नारा लगा रही है. विरासत की दौड़ का उनका पहला फेरा शुरू हो गया है.
पीलीभीत की उस सुबह के बाद से वरुण जेल में हैं. उत्तर प्रदेश की सरकार ने उन पर रासुका लगा दिया है जिसे उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. अफवाहें हैं कि छोटा शकील उनकी हत्या करवाना चाहता है. हर गुजरते दिन के साथ वे पहले से ज्यादा कुख्यात होते जा रहे हैं और हिंदुत्व के हीरो के रूप में उनका कद बढ़ रहा है. अवसरवादिता में माहिर भाजपा भले ही उनके विवादित भाषण से खुद को अलग कर रही हो मगर समर्थन के मामले में वो पूरी तरह से उनके साथ ही. जेल से बाहर आने के बाद वरुण की योजना उत्तर प्रदेश के हर जिले में 100 स्वयंसेवकों का एक दल बनाने की है ताकि वे अपने विचारों का प्रसार कर सकें. उधर, उनके चचेरे भाई राहुल पुनरुत्थान के एक ऐसे ही अभियान पर हैं मगर उनका मकसद ज्यादा धर्मनिरपेक्ष है.
फ्रांसीसी लेखक आंद्रे मलरॉक्स ने एक बार जवाहर लाल नेहरू से पूछा था कि भारत की आजादी के बाद उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती क्या रही है. नेहरू का जवाब था, ‘एक धार्मिक देश के भीतर धर्मनिरपेक्ष देश का निर्माण.’ साठ साल बाद उनके दो पड़पोते इस बहस को जारी रखे हुए हैं.