11 अप्रैल 2009 के पूर्वाह्न् में, दिल्ली से जब डॉ रमेश सक्सेना ने मुझे हिंदी के वरिष्ठतम साहित्यकार और आखिरी बड़े गांधीवादी लेखक विष्णु प्रभाकर के पिछली रात निधन की दुखद सूचना दी तो मैं बीकानेर में था. इस सूचना से मैं स्तब्ध ही नहीं था बल्कि दिल्ली से दूर होने के कारण उन्हें श्रंद्धांजलि न दे पाने के अपराध-बोध से ग्रस्त भी हुआ. पुरानी स्मृतियां पंख लगाकर उड़ने लगीं और बीकानेर जंक्शन से सटे डाक बंगले के अपने एकांत कमरे में मैं स्मृतियों में डूबा मोहन सिंह पैलेस कॉफी हाउस पहुंच गया. इस कॉफी हाउस में दिल्ली के लेखक प्राय: शनिवार को मिलते थे. और कोई आए या न आए विष्णु जी निश्चित रूप से जब तक वे समर्थ थे, जरूर आया करते थे. वे कॉफी हाउस में हिंदी लेखकों के सिरमौर थे. हम लोग कॉफी पीते हुए मजाक में विष्णु जी से कहते थे कि आप कॉफी हाउस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं और हम लोग आपके छात्र. इस टिप्पणी पर विष्णु जी मुस्कुराते हुए अपनी गांधी टोपी ठीक करते थे. पंकज बिष्ट हमसे सहमति जताते कॉफी का आर्डर देते थे. भीष्म साहनी इस लीला को देखते हुए मुस्कुराते थे.
अकारण नहीं है कि बांग्ला के प्रसिद्ध साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय भी मानते हैं कि उन्होंने बांग्लाभाषी समाज को शरत् चंद्र से परिचित कराया
विष्णु जी के लेखन से पहले मेरा परिचय हुआ, बाद में कॉफी हाउस में उनसे व्यक्तिगत परिचय. मई 1960 में भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में ‘नई कहानियां’ का प्रकाशन शुरू हुआ था जिसमें डॉ नामवर सिंह कहानी पर नियमित ‘हाशिए पर’ स्तंभ लिखा करते थे. इसी पत्रिका में उन्होंने विष्णु प्रभाकर की कहानी ‘धरती अब घूम रही है’ पर टिप्पणी की थी. उनकी टिप्पणी से ही आकर्षित होकर पहली बार मैंने विष्णु जी की यह कहानी पढ़ी थी. 1974 में राजपाल एंड संस, दिल्ली से उनके द्वारा लिखित अमर कथा शिल्पी शरत् चंद्र चटर्जी का संपूर्ण जीवन चरित्र ‘आवारा मसीहा’ शीर्षक से छपा था. चूंकि 14 वर्षो के अथक परिश्रम से उन्होंने यह जीवनी लिखी थी, इसकी चर्चा तो होनी ही थी. कॉफी हाउस के उनके फैन का अनुमान था कि उनकी इस कालजयी कृति पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलना चाहिए. लेकिन हुआ उल्टा. 1975 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ को. इस पुरस्कार से विचलित कॉफी हाउस के लेखकों ने विष्णु प्रभाकर की कृति ‘आवारा मसीहा’ को पाब्लो नेरूदा पुरस्कार से नवाजा. चिली के कवि पाब्लो नेरूदा को उनके कविता संग्रह पर 1971 में नोबेल पुरस्कार मिला था और हिंदी समाज में वे समादृत थे. यह कॉफी हाउस के लेखकों का एक बड़ा प्रतिरोध था.
लेकिन साहित्य अकादमी, दिल्ली ने अपनी ‘भूल-गलती’ का सुधार करते हुए उन्हें पुरस्कृत किया उनके उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर’ पर, 1993 में. फिर भी हिंदी-समाज में ‘आवारा मसीहा’ को ओझल करने की कचोट बनी रही. विष्णु जी नियमित पहले की तरह ही अनुमानत: 2003 तक कॉफी हाउस आते रहे और हिंदी लेखकों को दीक्षित करते रहे अपने सौम्य आचरण, संवाद और आत्मीयता से. इसी कॉफी हाउस में उन पर कई वृत्तचित्र बनाए गए.
21 जून 1978 को मैं बिहार से एक विभागीय काम के सिलसिले में दिल्ली आया था. मेरे साथ एक नवोदित कवि सुधांशु त्रिवेदी भी थे. उनके साथ मैं कॉफी हाउस गया जहां उन्होंने विष्णु जी से उनका ऑटोग्राफ चाहा. विष्णु जी ने लिखा – ‘न लिखना सीख – शरत् – नीचे उनका हस्ताक्षर. हम हक्का-बक्का रह गए. ‘आवारा मसीहा’ फिर हमारी चेतना में कौंधने लगी. विष्णु जी से यह मेरी पहली मुलाकात थी.
अब जब मैं विष्णु जी पर यह श्रंद्धांजलि लिख रहा हूं, मुझे याद आता है कि उन्होंने कॉफी हाउस में अपनी दो पुस्तकें मुङो भेंट की थीं – ‘अर्धनारीश्वर’ उपन्यास पर मेरा नाम लिखकर और दूसरी ‘आवारा मसीहा’. तब मैं समझ नहीं पाया था कि विष्णु जी जैसे वरिष्ठ लेखक ने मुझे कैसे इस योग्य समझ. अभी ‘आवारा मसीहा’ पलटते मैंने देखा. इस पुस्तक पर लिखा है – ‘विष्णु प्रभाकर जी के सौजन्य से, हस्ताक्षर और तिथि: 10 जुलाई 1993.
अब जब पूरा हिंदी समाज विष्णु जी के शतायु होने की उम्मीद कर रहा था, 97 वर्ष के सार्थक जीवन और लेखन के बीच वे चले गए. संतराम बी.ए., और बच्चन के बाद संभवत: हिंदी के वे ऐसे तीसरे लेखक हैं जिन्हें लंबी उम्र मिली. ‘आवारा मसीहा’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है – ‘सन् 1959 में मैंने अपनी यात्रा आरंभ की थी और अब 1973 है. 14 वर्ष लगे मुझे ‘आवारा मसीहा’ लिखने में.’ शरत् चंद्र पर जीवनी लिखने की चुनौती को उन्होंने जिस तरह स्वीकार किया वह विरल है. यह अकारण नहीं है कि बांग्ला के प्रसिद्ध साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय भी मानते हैं कि उन्होंने बांग्लाभाषी समाज को शरत् चंद्र से परिचित कराया. हमें हिंदी प्रकाशन के भीष्म पितामह श्री नाथूराम प्रेमी (हिंदी ग्रंथ रत्नाकर, बम्बई के स्वामी) का स्मरण भी जरूरी लगता है, जिनकी प्रेरणा से ‘आवारा मसीहा’ लिखा गया. साहित्यकार कभी नहीं मरता और विष्णु प्रभाकर ‘आवारा मसीहा’ जैसे कालजयी कृति के रूप में जीवित रहेंगे भले प्रो. नंदकिशोर नवल हिंदी की कालजयी कृतियां’ में उन्हें शामिल करें या नहीं.
इस प्रभविष्णु साहित्यकार को हमारी हार्दिक श्रंद्धांजलि!