दैहिक विमर्श की रेत

चरित्रों की भीड़…दर्जनों आख्‍यान एक-दूसरे में गुंफित…और कथा की जमीन वह इंसानी जाति जिसे अंग्रेज़ों ने ‘जरायमपेशा’ करार दिया था – ये सब मिल कर बनाते हैं एक नया मुहावरा। यह मुहावरा कई स्थितियों पर लागू किया जा सकता है। इनमें सबसे पहले हम जिक्र करना चाहेंगे आधी दुनिया की बदहाली का, न सिर्फ उसके भौतिक अर्थ में बल्कि उस संदर्भ में भी जिसमें पारंपरिक भारतीय शास्‍त्रों ने इसे ‘नर्क का द्वार’ घोषित कर रखा है। भगवानदास मोरवाल के नए उपन्‍यास ‘रेत’ में दरअसल यही वह केंद्रीय विषय है जिस पर बुद्धि विलासिता के पश्चिमी गलियारों में काफी मगजपच्‍ची तो की गई है, लेकिन कभी भी उस ‘सबआल्‍टर्न’ यथार्थ के बरअक्‍स नहीं देखा गया जो भारतीय उपमहाद्वीप की घुमंतू जनजातियों के जीवन का पर्याय है। मोरवाल ऐसी दृष्टि विकसित करने के लिए अपनी रचना की जमीन ही बदल डालते हैं, नया मुहावरा गढ़ते हैं और बताते हैं कि स्‍त्री विमर्श में निम्‍नवर्गीय प्रसंग के आखिर क्‍या मायने हैं। वे हालांकि ‘काला पहाड़’ की परंपरा को नहीं भूलते। एक विवेकशील और संवेदनशील रचनाकार की यही खूबी है।

राजकमल से प्रकाशित इस उपन्‍यास में कहानी है कंजरों की – एक ऐसी घुमंतू जाति जो समूचे दक्षिण-पश्चिमी एशिया में कमोबेश फैली हुई है। कहानी घूमती है कमला सदन नाम के एक मकान के इर्द-गिर्द, जो परिवार की मुखिया कमला बुआ के नाम पर रखा गया है और जहां रुक्मिणी, संतो, पिंकी आदि तमाम महिलाओं का जमघट है। ये सभी पारंपरिक यौनकर्मी हैं और जिस कंजर समाज से वे आती हैं, वहां इस पेशे को लंबे समय से मान्‍यता मिली हुई है। समूचे परिदृश्‍य में सिर्फ एक पुरुष पात्र है जिसे सभी बैदजी कह कर पुकारते हैं। यह पात्र वैसे तो दूसरी जाति का है, लेकिन घर-परिवार के मामलों में इसे सलाहकार और हितैषी की भूमिका में दिखाया गया है। यहीं से शुरू होती है स्‍त्री विमर्श के निम्‍नवर्गीय प्रसंगों की दास्‍तान – जहां स्‍त्री की देह को पुरुष समाज के खिलाफ लेखक ने एक औजार और हथियार के रूप में स्‍थापित किया है।

पुस्‍तक- रेत 

लेखक- भगवानदास मोरवाल

प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन

 मूल्य-350.00 रुपए

यहीं याद आती है मशहूर बांग्‍ला लेखिका नवनीता देव सेन के एक उपन्‍यास की वह बूढ़ी पात्र, जिसके जीवन का निचोड़ ही यह फलसफा होता है कि पुरुष स्त्रियों की देह का शिकार करने आते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि वे खुद ही शिकार हो गए हैं। मोटे तौर पर कमला बुआ और कमला सदन की सभी रहवासियों का फलसफा भी यही है जो आखिर तक अपनी स्‍वतंत्रता और स्‍वायत्‍तता से समझौते करने को तैयार नहीं होतीं।

भारत के राजस्‍थान में आम तौर पर पाई जाने वाली इन जनजातियों के समाज में यदि यौनकर्म के सामाजिक उभार का अध्‍ययन करें, तो पाएंगे कि यह पेशे के तौर पर अक्‍सर बेडि़या समाज में ही देखने में आता है। कंजरों को जबकि गायक, नर्तक, कलाकार आदि के रूप में लोकप्रियता हासिल है। टेराकोटा के बने छोटे खिलौनों के लिए वे जाने जाते हैं। इसलिए उपन्‍यास के माध्‍यम से इस जाति को पूरी तरह यौनकर्म केंद्रित जाति के रूप में दिखाना भले ही तथ्‍यात्‍मक रूप से सही न हो–हम समझ सकते हैं कि हरेक आख्‍यान की अपनी सीमाएं भी होती हैं–मगर जो बात मायने रखती है वो है इन घटनाओं की बुनावट से निकला संदेश। मोरवाल अपने प्‍लॉट चुनने की क्षमता के लिए ही जाने जाते हैं, बाकी सबआल्‍टर्न शोध और इतिहास की जानकारी भी उन्‍हें पर्याप्‍त है।

यह कहानी एकाध जगहों पर जब झकझोरती है, तो पाठक को समझ आता है कि दरअसल प्‍लॉट को ऐसा चुनना और विषय का ट्रीटमेंट सोद्देश्‍य किया गया है। कमला सदन की बहू ही इकलौती ऐसी महिला है जो यौनकर्म में लिप्‍त नहीं है। उसकी बच्‍ची जब कहती है कि वह बड़ी होकर भाभी नहीं, बल्कि बुआ बनना चाहती है तो लगता है जैसे पैरों के नीचे से धरती खिसक गई हो। इस बच्‍ची का चरित्र दरअसल कमला सदन पर एक गंभीर टिप्‍पणी है- एक नए किस्‍म के स्‍त्री विमर्श में भी यहां दिख जा रही हैं उस पितृसत्‍तात्‍मक समाज की खंडहर होती मान्‍यताएं, जो स्त्रियों के बीच विभाजन का कारण बनती हैं। यह दरअसल दो किस्‍म के दैहिक विमर्शों के बीच पैदा दरार है- बच्‍ची उसी को चुनती है जो सुविधाजनक है। उसे अपनी मां रास नहीं आती। आखिरकार, यह भाभी किसी दिन के झुटपुटे में किसी के साथ चुपके से खिसक लेती है। यह बच्‍ची की टिप्‍पणी का न्‍यायिक परिणाम कहा जा सकता है।

बैदजी का चरित्र शुरू से लेकर अंत तक बाहरी रखा गया है, जो तमाम जुड़ावों के बावजूद बुआ के सामने घुटने टेकने को मजबूर है। यह एक खांटी पैटी-बुर्जुआ पात्र है जो तमाम बुराइयों पर मूक है और अपनी छवि को साफ बनाए हुए है। दरअसल, ये सभी पात्र किसी न किसी स्‍तर पर समाज के किसी न किसी तबके का प्रतिनिधित्‍व करते हैं, फिर चाहे उपन्‍यास में आए पुलिस अधिकारी, रियल एस्‍टेट कारोबारी और अन्‍य अभिजात्‍य वर्ग के पात्र हों। इन सभी पर लेखक ने पर्याप्‍त टिप्‍पणियां छोड़ी हैं।

उपन्‍यास की भाषा हिंदी और अलवर, भरतपुर व मेवात के इलाकों की बोलियों का मिश्रण है। भाषा पर लेखक की जमीनी पकड़ साफ दिखाई देती है। विषय पूरी तरह सबआल्‍टर्न यानी निम्‍नवर्गीय है, जिसे हम शायद ही कभी पाठ्य पुस्‍तकों से भी जान पाते होंगे। लेकिन जिस परिप्रेक्ष्‍य में इस उपन्‍यास को गढ़ा गया है, उस पर एक बार गहन पड़ताल की जरूरत जान पड़ती है। परिप्रेक्ष्‍य का अर्थ हम यहां उन पूर्व स्‍थापित मान्‍यताओं से ही लगा रहे हैं जो हमारे समाज में जनजातियों को लेकर व्‍याप्‍त हैं। इनके सामाजिक इतिहास से जुड़ी कुछ पुस्‍तकों का हवाला दिया जा सकता है जिनके माध्‍यम से यदि इस उपन्‍यास को पढ़ा जाए तो आलोचनात्‍मक नजरिया बेहतर हो सकेगा।

पहली है जोसेफ बर्लांड की 1982 में हारवर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से छपी पुस्‍तक नो फाइव फिंगर्स आर अलाइक : कॉग्निटिव एंप्‍लीफायर्स इन सोशल कन्‍टेक्‍स्‍ट । दूसरी उपयोगी पुस्‍तक भी इसी लेखक की है जो 1987 में प्रकाशित हुई थी दी अदर नोमैड्स : पेरीपैटेटिक माइनॉरिटीज इन क्रॉस कल्‍चरल पर्सपेक्टिव । इसके अलावा विषय में दिलचस्‍पी रखने वाले पाठक भारतीय नृविज्ञान सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित पीपॅल ऑफ इंडिया भी देख सकते हैं जिसे कुमार सुरेश सिंह, डी.के. सामंता और एस.के. मंडल ने संपादित किया है।

कुल मिला कर भगवानदास मोरवाल के उपन्‍यास ‘रेत’ के बारे में यही कहा जा सकता है कि सामाजिक गल्‍प की दृष्टि से देखें तो यह पुस्‍तक इतिहास, खासकर हाशिये के लोगों के इतिहास में दिलचस्‍पी रखने वालों के लिए काफी महत्‍वपूर्ण बन पड़ी है। थोड़ी महंगी जरूर है, लेकिन इसे जरूर पढ़ा जाए।

अभिषेक श्रीवास्तव