असमंजस में बॉलीवुड

मम्मी ने अपनी सबसे बढ़िया सिल्क की साड़ी पहनी थी और उनके बालों का जूड़ा बहुत खूबसूरत लग रहा था. मैंने भी 1970 के दशक के फैशन से मेल खाते कपड़े पहने थे. मुझे ये तो याद नहीं कि वो दिन इतना खास क्यों था पर इतना याद है कि पापा उस दिन जल्दी घर आ गए थे. तैयार होकर हम सब उस सिनेमा हॉल पहुंचे थे जहां राजकपूर की फिल्म बॉबी लगी हुई थी. वैसे तो इसे लगे कई हफ्ते हो चुके थे मगर शो अब भी हाउसफुल जा रहा था.

फिल्म इंडस्ट्री में अब ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो कांटेट के मामले में जोखिम उठाने से झिझकते नहीं. ये बदलाव बड़े बजट वाली फिल्मों में भी दिख रहा है

सिनेमा का ये मेरा पहला अनुभव था. सैकड़ों लोगों और शोर-शराबे से भरी उस अंधेरी गुफा में मुझ जैसे किसी भी बच्चे को बेचैन हो जाना चाहिए था मगर अगले कुछ घंटों तक मेरी नजरें स्क्रीन से हिली तक नहीं. इस दौरान मेरे लिए सिनेमा के परदे पर आती तस्वीरों के अलावा किसी और चीज की कोई अहमियत नहीं थी. ऋषि कपूर के दर्द और डिंपल कपाड़िया की तड़प को मैं भी महसूस कर पा रही थी.

ये पहला मौका था जब मुझे अहसास हुआ कि दुनिया सिर्फ वही नहीं है जिसके केंद्र में मैं हूं बल्कि न जाने कितनी दूसरी दुनियाएं भी हैं जिनमें जिंदगी अनगिनत तरीके से खुद को जी रही है. हिंदी फिल्मों से मेरे जुनूनी लगाव की ये शुरुआत थी. मेरी किशोरावस्था के दौरान फिल्म इंडस्ट्री अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी. हालांकि तब भी फिल्मों के प्रति लोगों की दीवानगी कम नहीं हुई थी. उस दौर में वीडियो लाइब्रेरीज का बोलबाला था जहां फिल्मों के शौकीनों के लिए पायरेटेड वीडियो कैसेट्स किराए पर मिलते थे. मि. इंडिया  और परिंदा जैसी इक्का-दुक्का फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो ये वो दौर था जब ज्यादातर फिल्मों को देखना एक बोझिल अनुभव हो जाता था. फिल्मउद्योग के बारे में माना जाता था कि इसमें लगा ज्यादातर पैसा अंडरवर्ल्ड का है और जो इसके हिसाब से नहीं चलता उसका अंजाम बुरा होता है.

अभिनेता, स्क्रिप्ट लेखक और निर्देशक सौरभ शुक्ला कहते हैं, ‘80 का दशक हिंदी सिनेमा का सबसे बुरा दौर था. मेरे हिसाब से ऐसा अपराध की दुनिया के साथ इसके रिश्ते की वजह से हुआ. जब माफिया इस धंधे में दाखिल हुए तो वैसी ही फिल्में बनीं जैसी वे देखना चाहते थे.’ शुक्ला ने रामगोपाल वर्मा की बहुचर्चित फिल्म सत्या में कल्लू मामा का चर्चित किरदार तो निभाया ही था, साथ ही उन्होंने अनुराग कश्यप के साथ मिलकर इस फिल्म की पटकथा भी लिखी थी. वे कहते हैं, ‘सत्या  ने कई सांचे तोड़े. इस पर आर्ट फिल्म का ठप्पा नहीं लगा और इसने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ दिए. ये फिल्म मील का पत्थर थी.’

आज 60 फीसदी कारोबार मल्टीप्लेक्सेज के जरिए हो रहा है. वहां जाने वाले लोगों को दुनिया भर के सिनेमा की खबर रहती है और वे नियमित रूप से टीवी देखते रहते हैं

11 साल बाद आज आर्ट और कमर्शियल जैसे शब्द अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं. एक जमाना था जब हिंदी फिल्में फॉर्मूलों के हिसाब से बनती थी मगर अब वे फॉर्मूले किनारे रख दिए गए हैं. शुक्ला के शब्दों में ‘90 के दशक के मध्य में कॉरपोरेट्स इस धंधे में कूदे, पैसे का लेनदेन कानूनी तरीके से होने लगा और हमें इंडस्ट्री का दर्जा मिल गया.’ आज शुक्ला, कश्यप और रजत कपूर जैसे फिल्मकार ऐसी फिल्में बनाने में जुटे हैं जो कांटेंट के मामले में तो अलग हैं ही, साथ ही उनका बजट भी दूसरी फिल्मों की बनिस्बत कम है.

शुक्ला, जिनकी तीन कॉमेडी फिल्में जल्द ही रिलीज होने वाली हैं, कहते हैं, ‘रजत की भेजा फ्राई की रिकॉर्डतोड़ सफलता के बाद अब नई कहानियां सुनाना थोड़ा आसान हो गया है. भेजा फ्राई  ने अपार सफलता हासिल की और लोगों को लगा कि संभावनाएं दूसरी तरह के सिनेमा में भी हैं. मेरी फिल्म आई एम 24, 42 साल के एक व्यक्ति के बारे में है जो इंटरनेट पर एक लड़की को अपनी उम्र 24 साल बताता है. मेरी दूसरी फिल्म एक रात के रिश्ते पर आधारित है जिसमें आदमी को इस बारे में कुछ भी याद नहीं रहता कि रात को हुआ क्या था. मैंने पहले भी ये आइडिया कमर्शियल सिनेमा के कुछ बड़े नामों को दिया था मगर उनकी प्रतिक्रिया अच्छी नहीं रही. उनका मानना था कि ये भूमिकाएं हीरो के परंपरागत खांचों में कहीं भी फिट नहीं होती थीं.

जानकार मानते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री में अब ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो कांटेट के मामले में जोखिम उठाने से झिझकते नहीं. ये बदलाव बड़े बजट वाली फिल्मों में भी दिख रहा है जहां कहानी के मामले में नए प्रयोग देखने को मिल रहे हैं. चक दे इंडिया और दिल्ली 6 जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं.

जानकारों का ये भी कहना है कि अलग तरह की फिल्मों की सफलता में मल्टीप्लेक्सेज का भी योगदान रहा है. जैसा कि यूटीवी मोशन पिक्चर्स के सीईओ सिद्धार्थ रॉय कपूर कहते हैं, ‘आज 60 फीसदी कारोबार मल्टीप्लेक्सेज के जरिए हो रहा है. वहां जाने वाले लोगों को दुनिया भर के सिनेमा की खबर रहती है और वे नियमित रूप से टीवी देखते रहते हैं. यही वजह है कि उनका सामना इस तरह की चीजों से होता रहता है जिन्हें भारतीय सिनेमा के लिहाज से अपारंपरिक कहा जा सकता है.’

यूटीवी, इरोज, टीवी18, बिग और अष्टविनायक जैसे कॉरपोरेट्स के फिल्म उद्योग में आने का असर ये हुआ है कि फॉर्मूले की तर्ज पर फिल्में बनाने वाले लोगों के दिन लद चुके हैं. नतीजा ये हुआ है कि आरके फिल्म्स, मनमोहन देसाई की एमकेडीफिल्म्स और सुभाष घई की मुक्ता आर्ट्स का जलवा अब पहले जैसा नहीं रहा. अब वह जमाना भी नहीं रहा जब कभी-कभार एक तरफ तो अमर अकबर एंथनी जैसी बेमिसाल फिल्म बन जाती थी और उसी वक्त नागिन जैसी कोई उबाऊ फिल्म भी रिलीज हो रही होती थी. अब काम कॉरपोरेट शैली में होने लगा है जहां अनुशासन की अहमियत पहले से कहीं ज्यादा हो गई है.

दसविदानिया  के लिए भी आप दर्शक से 250 रुपए मांग रहे हैं और गजनी के लिए भी. ये ठीक बात नहीं है क्योंकि पहली फिल्म दो करोड़ में बनी है जबकि दूसरी के बनने में 50 करोड़ मेंरॉक ऑन और लक बाय चांस जैसी चर्चित फिल्मों के निर्माता एक्सेल फिल्म्स के रितेश सिधवानी कहते हैं, ‘अब आप सिर्फ ये नहीं सोच सकते कि ठीक है, मेरे पास ये कहानी है और मैं इस पर फिल्म बनाऊंगा. कुछ साल पहले तक आलम ये था कि डायलॉग्स और सीन्स भी शूटिंग के दिन ही लिखे जाते थे. अब हर अभिनेता आपसे स्क्रिप्ट मांगता है. इसीलिए पुराने फिल्मकार, जिन्हें इसकी आदत नहीं है, परेशानी महसूस कर रहे हैं. अब दर्शक कूड़ा हजम नहीं कर सकता. फिल्मों की सफलता अकेले उनके कांटेंट की मजबूती पर निर्भर करती है. रॉक ऑन के साथ यही हुआ! जनता कहानी में गहराई चाहती है. बड़ा मुद्दा यही है.’ ये बात अक्षय कुमार को शायद ठोकर खाकर समझ में आई. कहा जाता है कि निखिल आडवाणी की चांदनी चौक टू चाइना  के लिए अक्षय ने इस फिल्म से जुड़ा एक आकर्षक पोस्टर देखकर ही हां कर दी थी.

आईनॉक्स लेजर लिमिटेड में वाइस प्रेसीडेंट (प्रोग्रामिंग एंड डिस्ट्रीब्यूशन) उत्पल आचार्य भी इससे सहमत हैं कि आज कांटेंट की अहमियत सबसे ज्यादा है. वे कहते हैं, ‘अगर निर्माता अच्छे अभिनेता लेता है पर अच्छे कांटेंट की उपेक्षा करता है तो उसे नाकामयाबी ही मिलती है. टशन, चांदनी चौक टू चाइना, दिल्ली 6 और द्रोणा जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं.’ आचार्य के मुताबिक निर्माताओं-वितरकों और थियेटर मालिकों के बीच चल रहे टकराव की जड़ दरअसल वह अवास्तविक मेहनताना है जो स्टार्स को दिया जा रहा है. वे कहते हैं, ‘आर्थिक तेजी के वक्त जब सिंग इज किंग और वेलकम जैसी फिल्में हिट हुईं तो स्टार्स को मुंहमांगा पैसा मिलने लगा. अब यशराज फिल्म्स को छोड़कर सारे कॉरपोरेट्स शेयर बाजार में सूचीबद्ध हैं इसलिए उन्हें हर तिमाही अपने नतीजे घोषित करने होते हैं. इसके लिए उन्हें मजबूत कांटेंट की जरूरत होती है. उस समय हर कोई अक्षय कुमार या शाहरुख खान के पीछे भाग रहा था इसलिए उनकी कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ गईं. अगर फिल्म की लागत 50 करोड़ थी तो अकेले अभिनेता ही 35 करोड़ ले रहा था! अब वे ये पैसा थियेटर मालिकों से वसूलना चाहते हैं.’ आचार्य के मुताबिक इसका सबसे बढ़िया हल है निर्देशक या अभिनेता के मेहनताने को लाभ के साथ जोड़ देना.

हालांकि ऐसा करना इतना आसान नहीं है. आचार्य कहते हैं, ‘इंड्स्टी में एक ही अक्षय कुमार है और एक ही शाहरुख खान भी. अगर कोई प्रोड्यूसर कहे कि वह इतना पैसा नहीं दे सकता तो उनके लिए कोई समस्या नहीं होती. उन्हें पता है कि कोई दूसरा इतना पैसा दे ही देगा. मुझे नहीं लगता कि हॉलीवुड के सितारे इकट्ठा इतना पैसा लेते हैं. रंग दे बसंती के लिए आमिर खान ने नाममात्र का पैसा लिया था और इसके बाद उनका मेहनताना फिल्म के प्रदर्शन पर तय हुआ था. केवल वही एक स्टार हैं जो आखिर तक फिल्म के साथ रहते हैं और कांटेंट के प्रति बेहद गंभीर रहते हैं. जब फिल्म सफल हो जाती है तब जाकर वे अपने हिस्से के फायदे की मांग करते हैं.’ आचार्य के मुताबिक इन सब दबावों का ही नतीजा ये है कि पिछले दो साल में फिल्म इंडस्ट्री के कॉरपोरेट्स को कोई खास फायदा नहीं हुआ है. बल्कि कहा जाए तो वे बस किसी तरह खुद को नुकसान से बचा पा रहे हैं.

आदर्श स्थिति तो ये है कि बॉक्स ऑफिस यानी सिनेमाघरों में होने वाली कमाई निर्माताओं-वितरकों और थियेटर मालिकों में बराबर-बराबर बंटे. मगर तब विवाद इस बात पर फंस जाता है कि छोटे बजट वाली उन फिल्मों के मामले में आनुपातिक बंटवारा कैसे हो जिनकी अच्छी ओपनिंग की गारंटी नहीं होती. आचार्य कहते हैं, ‘जब आप कूड़ा बनाते हैं तो यही होता है. थियेटर मालिकों ने अपने न्यूनतम खर्चे तय कर दिए हैं. लाभ का बंटवारा तो तभी हो सकता है जब दर्शक फिल्म देखने आएं. बतौर प्रोड्यूसर आप अपना पैसा सैटेलाइट, ओवरसीज और म्यूजिक राइट्स के जरिए कमा सकते हैं. ज्यादा मामलों में छोटी फिल्में मार्केटिंग कवायदों की तरह होती हैं. मैं चल चला चल जैसी फिल्म देखने के लिए ढाई सौ रुपए खर्च नहीं करूंगा. कांटेंट सही मायने में अलग होना चाहिए. ऐसे में सारी मार थियेटर मालिक पर पड़ती है.’

जैसा कि संभावित था निर्माता-वितरक भी अपनी जिद पर अड़े हैं. रॉय कपूर कहते हैं, ‘हमें एक-दूसरे का सहारा बनने की जरूरत है. 50-50 की हिस्सेदारी सही हल है और हम उम्मीद कर रहे हैं कि थियेटर मालिक इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगे ताकि हम हर गुरुवार की रात को आपस में लड़ने की बजाय इंडस्ट्री के विस्तार के लिए मिलकर काम कर सकें.’

फिलहाल हालात इतने खराब हैं कि निर्माताओं-वितरकों ने अप्रैल से कोई भी फिल्म रिलीज न करने का फैसला किया है. मगर थियेटर मालिक भी अपने रुख से हटने को तैयार नहीं. रॉय कपूर कहते हैं, ‘वास्तव में देखा जाए तो परीक्षाओं और आईपीएल की वजह से अप्रैल में कुछ भी नहीं होगा. मई के बाद से ये मसला सुलझ जाएगा. मेरे हिसाब से ये फिल्म के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा. यदि ऐसा हो जाता है तो कांटेट की समस्या खुद ही सुलझ जाएगी.’ संबंधों में कितनी कड़वाहट आ गई है इसका उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि अक्सर तीसरा हफ्ता आते-आते फिल्में मल्टीप्लेक्सेज से उतार दी जाती हैं.  

हैडमेंड फिल्म्स के सुनील दोशी, जिनकी भेजा फ्राई के बनने में अहम भूमिका रही है, का मानना है कि इंडस्ट्री को अपनी सोच का दायरा बड़ा करने की जरूरत है. वे कहते हैं, ‘हालात पर गौर कीजिए, दसविदानिया  के लिए भी आप दर्शक से 250 रुपए मांग रहे हैं और गजनी के लिए भी. ये ठीक बात नहीं है क्योंकि पहली फिल्म दो करोड़ में बनी है जबकि दूसरी के बनने में 50 करोड़ की लागत आई है. उधर, टिकटों की कीमतों के मामले में भी आपने एक वर्ग को फिल्म देखने से पूरी तरह वंचित कर दिया है. फिलहाल हालात बहुत खराब हैं. यूरोप और अमेरिका की तरह हमें भी डेस्टिनेशन सिनेमाज की जरूरत है जहां कम कीमत पर छोटी फिल्में दिखाई जाएं.’ दोशी मानते हैं कि आजकल चल रहे इस टकराव की एक वजह ऐसे थियेटरों का अभाव भी है. कॉरपोरेट्स के फैलते दायरे को लेकर उनमें कोई उत्साह नजर नहीं आता. वे कहते हैं, ‘हिंदी फिल्म उद्योग में कॉरपोरेट्स के बढ़ते प्रभाव का नतीजा ये होगा कि अमेरिकी स्टूडियोज के लिए देश में घुसना आसान हो जाएगा और वे यहां की कंपनियों को खरीद लेंगे.’

दोषी का मानना है कि इंडस्ट्री को अपने काम के तरीके में निश्चित रूप से बदलाव लाने की जरूरत है. वे कहते हैं, ‘कई फिल्मों के डीवीडी और टेलीविजन पर रिलीज होने से हालात में बहुत से बदलाव आएंगे. हमारी फिल्मों की एडवरटाइजिंग और प्रोमोशन के तरीके को भी फिर से परिभाषित किए जाने की जरूरत है. बांबे, दिल्ली और सीपीसीआई जैसी पुरानी टेरिटरीज खत्म हो रही हैं. हमें नई टेरेटरीज पर ध्यान देने की जरूरत है जो काल सेंटर्स और आईटी उद्योग में काम करने वाले लोगों और स्कूल और कालेजों के छात्रों से मिलकर बनती हैं. हमें इस नए बाजार की तरफ ध्यान देना होगा.’

आज बॉलीवुड में हर तरह की फिल्में बन रही हैं. दर्शकों ने गजनी को भी पसंद किया है और इससे बिल्कुल अलग देव-डी को भी. पक्के तौर पर कोई भी नहीं कह सकता कि फिल्म-निर्माण की कौन सी शैली ज्यादा सफल रहेगी. न ही कोई ये बता सकता है कि मौजूदा विवाद में जीत निर्माता-वितरक गुट की होगी या थियेटर मालिकों की. मगर ये पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा का जादू पहले की तरह ही लोगों के सिर चढ़कर बोलता रहेगा.