रण से जुदा नीति

आज तक किसी अमेरिकी राष्ट्रपति से दुनिया ने इतनी उम्मीदें नहीं पालीं जितनी बराक ओबामा से. ओबामा युवा हैं, उदारवादी हैं और आदर्शों में यकीन रखते हैं. अब तक उन्होंने जो भी कहा और किया है उससे लगता है कि तरह-तरह की उथल-पुथल से जूझ रही इस दुनिया में स्थिरता लौटेगी. ये काफी हद तक इस पर निर्भर करता है कि अपनी कोशिशों में वे कितने सफल हो पाते हैं.

अफगानिस्तान में पहले गुलबुद्दीन हिकमतयार और फिर तालिबान को भेजकर इस देश को जंग के मैदान में तब्दील करने वाली आईएसआई ही थी

मगर लगता है कि अफगानिस्तान, जहां से आतंक के खिलाफ अमेरिका की जंग शुरू हुई थी, में ओबामा नाकामयाबी की तरफ बढ़ रहे हैं. आतंक के खिलाफ युद्ध को लेकर 27 मार्च 2009 को उन्होंने जिस नई रणनीति का ऐलान किया था वह काफी हद तक उनके पूर्ववर्ती जॉर्ज डब्ल्यू बुश की नीति से मेल खाती है. यही वजह है कि इसका भी वही हश्र हो सकता है जो पिछली नीति का हुआ.

बुश की तरह ओबामा भी शिद्दत से ये मानते हैं कि अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक पाकिस्तान, तालिबान और अलकायदा को उखाड़ फेंकने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध न हो इसलिए पाकिस्तान को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करना सबसे अहम है.

ओबामा प्रशासन पाकिस्तान के साथ लंबी सामरिक साझेदारी की संभावनाएं तलाश रहा है. इस साझेदारी की शर्त ये होगी कि पाकिस्तान अल कायदा के खिलाफ युद्ध और आंतरिक सुधारों के लिए अमेरिका को पूरा सहयोग देगा. मगर ओबामा ये भी जानते हैं कि पाकिस्तानी सेना को पाकिस्तान के भीतर ही तालिबान और अलकायदा से लड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. इसके लिए पहले उसे ये यकीन दिलाने की जरूरत होगी कि ऐसा करना उसके हित में है. यहीं पर ओबामा की रणनीति सबसे कमजोर लगती है.

एशिया सोसाइटी टास्क फोर्स, जिसमें रिचर्ड होलब्रुक और ओबामा के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जनरल जेम्स जॉन्स भी शामिल हैं, की एक हालिया रिपोर्ट कहती है,‘ये बात सही हो या गलत, मगर पाकिस्तान का सुरक्षा तंत्र ये मानता है कि इसके वजूद पर खतरा है और इस खतरे का सामना करने के लिए इसने जो व्यवस्था विकसित की है उसे खत्म करना तब तक बहुत मुश्किल है जब तक इसकी उस बुनियादी चिंता को दूर नहीं किया जाता – ये है पाकिस्तान के अस्तित्व और इसकी संप्रुभता को खतरा.’

इस उपाय की सरलता देखकर हैरानी होती है. कौन नहीं जानता कि अफगानिस्तान हो या कश्मीर, पिछले दो दशक में यहां जो भी आतंकी कार्रवाई हुई है उसे पाकिस्तानी सेना ने अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई के जरिए अंजाम दिया है. अफगानिस्तान में पहले गुलबुद्दीन हिकमतयार और फिर तालिबान को भेजकर इस देश को जंग के मैदान में तब्दील करने वाली आईएसआई ही थी. मुजफ्फराबाद में यूनाइटेड जिहाद काउंसिल को खाद-पानी देने वाली और इसके मुजाहिदीनों को कश्मीर भेजने के पीछे भी इसी खुफिया एजेंसी का हाथ रहा. लश्कर-ए-तैयबा को भी ये समर्थन देती रही है. अब टास्क फोर्स की रिपोर्ट की मानें तो ऐसा इसने सिर्फ इसलिए किया ताकि पाकिस्तान की सीमाएं सुरक्षित रहें. तो फिर इसका विस्मयकारी निष्कर्ष ये निकलता है कि अलकायदा के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तानी सेना अमेरिका का साथ देगी या नहीं ये अफगानिस्तान और भारत पर निर्भर करता है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अमेरिका ये मान रहा है कि जो भी पाकिस्तानी सेना को चाहिए उसे दे दीजिए और वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरी तरह से उसके साथ होगी.

ओबामा को समझना होगा कि ऐसा नहीं होता कि आप एक हाथ से वार करें और दूसरे हाथ से दोस्त बनाने की कोशिश

बड़ी हैरानी की बात है कि टास्क फोर्स की रिपोर्ट में उन भावनाओं का कोई जिक्र नहीं है जिनसे पाकिस्तानी अखबार भरे पड़े हैं. न्यूयार्क टाइम्स ने भी छह अप्रैल को लिखा कि सभी पाकिस्तानी अब भी मानते हैं कि ये उनकी लड़ाई नहीं है और इसमें अपनी सेना को झोंकना अपने भाइयों की हत्या करने जैसा होगा. टास्क फोर्स की रिपोर्ट में कहीं इसका जिक्र नहीं कि पाकिस्तानी सेना का एक बड़ा हिस्सा भी इस बात से इत्तफाक रखता है. इसलिए रिपोर्ट ये नहीं बता पाती कि अगर क्षेत्रीय संप्रभुता को बनाए रखना ही पाकिस्तानी सेना का एकमात्र लक्ष्य है तो फिर क्यों ये भारतीय सीमा पर तैनात 18 डिविजंस और 20 ब्रिगेड्स में एक को भी हटाने से लगातार इंकार करती रही है और क्यों अफगानिस्तान सीमा पर इसने सिर्फ दो डिविजंस तैनात की हैं. न ही रिपोर्ट ये बता पाती है कि 2007-08 में जब पाकिस्तान में चल रहा गृहयुद्ध दिनों-दिन और भी वीभत्स रूप अख्तियार कर रहा था और नियंत्रण रेखा पर भारत की तरफ से कोई खतरा नहीं था तो भी पाकिस्तान ने वहां तैनात तीन इंफैंट्री डिविजंस और पांच इंफैंट्री ब्रिगेड्स में से किसी को भी हटाकर अफगानिस्तान सीमा पर तैनात नहीं किया.

दरअसल सच्चाई ये है कि भारत से खतरे का हौव्वा सिर्फ इसलिए खड़ा किया गया है कि इसकी आड़ में तालिबान से लड़ने की अनिच्छा को छिपाया जा सके. दरअसल पाकिस्तानी सेना तालिबान से मुकाबला नहीं करना चाहती क्योंकि उसे ये भरोसा नहीं है कि वह इस लड़ाई में जीत जाएगी. इसकी सीधी सी वजह ये हो सकती है कि सूदूर कबायली इलाकों में तालिबान आदिम तरीकों से लड़ रहे हैं जिनमें आम नागरिकों को बलि का बकरा बनाया जाता है. वे छोटी सी बात पर भी लोगों की हत्या कर देते हैं. फिर लोग सरकार से मदद की गुहार लगाते हैं मगर सरकार उन्हें सुरक्षा नहीं दे पाती. ऐसा इसलिए क्योंकि सुरक्षा बल हर समय हर जगह मौजूद नहीं हो सकते. हताशा में लोग या तो उस जगह से भाग जाते हैं या फिर तालिबान की हुकूमत स्वीकार कर लेते हैं. किसी जगह पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का ये सबसे पुराना तरीका है.

इस लड़ाई में पाकिस्तानी सेना को जीत तभी मिल सकती है जब वह आम लोगों को सुरक्षा दे सके. मगर वह जानती है कि उसके पास सैनिक इतनी संख्या में नहीं हैं कि वे पूरे इलाके में फैलकर एक ऐसा माहौल तैयार कर सकें जिसमें आम आदमी बिना डर के जी सके. यही वजह है कि तालिबान को लेकर उसने दोहरा रुख अपना रखा है. उसे पता है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में शांति की पहली शर्त ये है कि अफगानिस्तान में उदार तालिबान को मुख्य धारा में शामिल करने के लिए कोई राजनीतिक समझौता हो जाए. मगर ओबामा के आने से पहले अमेरिकी प्रशासन में कोई ये बात सुनने के लिए तैयार नहीं था.

पाकिस्तान जानता है कि उसके पास अपनी मर्जी से लड़ाई से पीछे हटने का कोई विकल्प नहीं है. इधर कुआं उधर खाई वाली हालत में इसके पास एक ही विकल्प बचता था और वह था भारत को किसी सैन्य कार्रवाई के लिए उकसाना. पिछले साल काबुल में भारतीय दूतावास और फिर मुंबई पर हुआ हमला इसी की कोशिश थी.

शायद ओबामा भी ये समझने लगे हैं. इसलिए अब वे कट्टर तालिबान को अलग-थलग करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. मगर किसी राजनीतिक हल की उनकी रणनीति दिशाहीन लगती है. ओबामा को समझना होगा कि ऐसा नहीं होता कि आप एक हाथ से वार करें और दूसरे हाथ से दोस्त बनाने की कोशिश. इस मुद्दे के हल के लिए सिर्फ अफगानिस्तान और पाकिस्तान को शामिल करना और अफगानिस्तान के दूसरे पड़ोसियों की उपेक्षा करने से काम नहीं चलने वाला.

जरूरत इस बात की है कि नया राजनीतिक समझौता बनाने की जिम्मेदारी किसी ऐसे तीसरे पक्ष को सौंपी जाए जो लड़ाई में शामिल न हो. जैसा कि हेग में पिछले महीने हुई संयुक्त राष्ट्र की बैठक में ईरान के विदेश मंत्री ने संकेत दिया भी था कि लड़ रहे गुटों को इस बात का भरोसा दिया जाए कि अगर वे अपने मतभेद भुला दें और एक व्यावहारिक संविधान बनाकर सरकार चलाने लगें तो विदेशी फौजें वहां से चली जाएंगी. ईरान और उजबेकिस्तान के साथ पाकिस्तान की भी इस समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए. मगर यदि पाकिस्तान तालिबान से लड़ने लगा तो वह ये अधिकार खो देगा.

सैन्य कार्रवाई तेज किए जाने से पहले राजनीतिक समझौते की पेशकश होनी चाहिए. आदर्श यही रहेगा कि इस समझौते की रूप रेखा अफगानिस्तान के पड़ोसी और भारत से मिलकर बना क्षेत्रीय गुट बनाए. पाकिस्तान भारत को इस मामले में शामिल किए जाने का तीखा विरोध करता है. मगर ओबामा प्रशासन को ये समझना होगा कि अगर शांति प्रक्रिया से भारत को बाहर रखा जाता है तो अफगानिस्तान में कोई शांति समझौता होना मुमकिन नहीं है. इसकी वजह ये है कि ऐसा करने से पाकिस्तानी सेना को पश्चिमी सीमा पर अल कायदा और तालिबान से समझौता कर शांति बहाल करवाने और इसके बदले में पूर्वी सीमा पर जिहाद जारी रखने में उनकी मदद करने का मौका मिल जाएगा. अगर भारत पर हमले जारी रहते हैं तो वह पाकिस्तान में चल रहे आतंकी ठिकानों पर कार्रवाई करने के लिए मजबूर हो जाएगा. इसका हवाला देकर पाकिस्तानी सेना भारतीय सीमा से एक भी सैनिक नहीं हटाएगी. इस तरह से ओबामा की नई रणनीति अपने मूल में ही असफल हो जाएगी.

प्रेम शंकर झा

वरिष्ठ पत्रकार